लफ्ज़ करें तेरा इस्तकबाल
लफ्ज़ करें तेरा इस्तकबाल
मैं शून्य हूँ
जब मैं कहती हूँ तो सहमत नहीं होते तुम
विराट हूँ मैं ऐसा मानना है तुम्हारा
मत झोंको समष्टि में मुझे
व्यष्टि ही बने रहने दो
की तुम्हारी यादों से घिरी रहूंगी मैं
कोई नहीं होगा आस-पास
दूर-दूर तक नहीं कोई नहीं
न कोई शहर न गांव कोई
न मकान न झोंपड़ी
न रेत न टीले न पहाड़ न समन्दर कोई
बस तुम होगी और तुम्हारी यादें होंगी
तुम कहते हो की बस छा जाओ
छा जाओ और दिखा दो
दुनिया को अपनी उँगलियों की हुनर
मुझे नहीं लिखना एक लफ़्ज भी ऐसा
जो तुझसे ज़ुदा हो
हर लफ्ज़ को करना चाहिये
तेरा इस्तकबाल
तेरे जज़्बे से ही फूटी हैं ये
कमबख्त भाषाएँ भी
जुबानें भी लहज़े भी तहज़ीब भी
तू बस मेरे लफ़्ज़ों की इबादत कर
और मैं पढूं आयतें तेरे हर लफ्जों की।