A poem on Yamuna river
A poem on Yamuna river
यमुना नहीं बची- अरे! ओ मानव!
क्या तुमने सुना नहीं
तुम्हारी यमुना नहीं बची
कल रात उसका देहांत हो गया
सदियों से चले आ रहे नदियों से रिश्ते का
देखो कल अंत हो गया
पिछले साल ही तो गया था दिल्ली मैं
दिखी थी वो मुझे थोड़ी ख़राब हालत में
उसकी सुंदरता कम हो चली थी
पानी से बास आने लगी थी
कूड़े कचरे का घर होने लगी थी
पूरे शहर के मलबे का बोझ ढोने लगी थी
लोगों को उसकी खूबसूरती नहीं जची
तभी शायद यमुना नहीं बची
सुना होगा तुमने भी वो बीमार चल रही थी
लोगों की प्यास बुझाने वाली देखो खुद तड़प रही थी
नदी से नाला बनने का वो सफ़र तय कर रही थी
सब लोगों को ज़िन्दगी देने वाली
खुद ज़िन्दगी के लिए लड़ रही थी
लेकिन लोगों को फ़िक्र नहीं थी
उसकेे नाजुक हालात की
वो पत्थर दिल क्या परवाह करते उ
सके गहरे जज़्बात की
उन्हें तो बस अपनी प्यास दिखी त
भी शायद यमुना नहीं बची
एकदम सच बोल रहा हूँ मैं
अभी बेचारी यमुना अब नहीं बची