स्वार्थ
स्वार्थ
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आसमाँ ऊपर पड़ा, पाताल नीचे है
देवेश ने वृष्टि से सारे भूमि सींचे हैं
हम उसे हर रोज़ झुककर कर रहे नमन
देख दुनिया की गति हम आँख मींचे हैं |
सोच ऐसी बन गई सब कुछ ये अर्थ है
काम कुछ भी हो भले , पर स्वार्थ – स्वार्थ है
छोड़ो ज़रा अहम् को भी , फेंको इसे परे
चेतो जरा ऐ मानवों , ये तो अनर्थ है |
होकर भला इंसान भी अपने को ठगते हो
अपने ही परिजन हेतु तुम ख़ुद जाल बुनते हो
अच्छाई इसमें कुछ नहीं यूँ फँस के रोओगे
छोड़ो इसे अब भी सही , क्यों स्वार्थ चुनते हो ?
भगवान भी अब रो पड़े , धरती भी रोई है
देवी भी तुमसे रूठकर , अब दूर सोई है
सोच कर निज स्वार्थ तुम करते रहे गलती
देते रहे गाली की अपनी भाग्य सोई है |
- स्वप्निल कुमार झा