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कोई तो है शायद ऐसी

कोई तो है शायद ऐसी

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दिल मेरा झूमता बस उसे देखते

दिन भी कटते मेरे बस उसे देखते

ना देखूँ गर उसको तो घबराता है मन

एक ऊर्जा सी मिलती बस उसे देखते |

 

उसके खिड़की के नीचे मैं रहता खड़ा

हाथ होता मेरे एक ख़त पड़ा

जिसमे भावों को अपने मैंने उकेरा हुआ

बाट उसकी मैं घंटों तकता हुआ |

 

काश ! रस्मों-रिवाजों को सीख जाती वो

और अचानक से खिड़की में दिख जाती वो

उसके नीचे आने की मैं तकता राहें  

और आँखों से दिल पे कुछ लिख जाती वो |

 

फिर पीछे के रास्ते से बाहर आती वो

देख मुझको कुछ पल को फिर शर्माती वो

मैं भी हँसता थोड़ा अब उसे देखकर

फिर हौले से मुझको कुछ कह जाती वो |

 

रोजाना ही अब ये तो होता है मुझपे

दिल है मेरा धड़कता और साँसें हैं रुकते

क्यों सपने में ये सब घटित हो रहा है  

कोई है अगर तो मिल जाऐ मुझसे |

 

  • स्वप्निल कुमार झा

 


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