मिलन
मिलन
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मिलते हो तुम
हर रोज़
अनगिनत बातों का पिटारा लिये
मैं चुप हो जाती हूं
सुनती रहती हूँ
देखो
ये जमकर बरसती
बारिश की अनगिनत बूंदे
मुझ पे गिरती बेशुमार
एक-दूजे से मिलकर प्रवाह बन
चल पड़ती है और
मैं चुप खड़ी
भीगती रहती हूं
भीतर का सूखापन लिए
तुम आओ न
सुनहरी किरणों में कुछ
भीगापन पिरोते हुए
मेरे अंतस तक छा जाओ न
आओ
वो एहसास फिर से जगाये हम
और चरम को छूती हुई
परम प्रेम की अनुभूति
और
शब्दो को पिघलाता हुआ
प्रगाढ़ मौन