धूप
धूप
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धूप का यूँ धूप होना,
समझ मुझको भी न आया।
कौन सूरज कौन छाया,
कौन है रवि की किरण यह,
रूप कैसा तूने पाया?
जो झलकती खिड़कियों के,
रंध से सुंदर सलोनी।
लग रही तम कोठरी में,
दही मक्खन की बिलोनी।
कह रहे कुछ जिंदगी तू,
आचमन करता जगत है।
नित्य शाश्वत समय रथ का,
तू स्वयं ही दीप्त पथ है।
सखी तू श्रम स्वेद की है,
नयन ज्योति विराट की है।
शिखा सत के दीप की है,
आरती प्रभात की है।
तू स्वयं ही पूर्ण कविता,
छुद्र कवि फिर क्या लिखे?
देख सकता क्या पृथक वो,
तेरे बिना जब न दिखे।
धूप तेरा रूप यह तो,
स्वयं ही परिपूर्ण सा है।
पूर्ण रत हो या विरत ही
पूर्ण को जो गा चूका है।
धूप आना नित्य तुम,
तम अनी को नष्ट करने।
और हाँ मनु के लिए भी,
नित नई फिर सृष्टि करने।