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प्रणय विशेष

प्रणय विशेष

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तुम्हारी स्मृति का आभास,
ह्रदय के अंदर किया विशेष।
हुआ फिर विस्मृत मैं ही स्वयं ,
रहा पाने को फिर क्या शेष।

तुम्हारी स्वासों का उच्छ्वास ,
सुगंधित सुरभित दिव्य प्रदेश।
अहो मैं स्वयं बन गया गंध,
हुआ निर्द्वन्द और निर्विशेष।

प्रकम्पित मधुर तुम्हारे अधर,
झर रहा जिनसे नित्य पियूष।
पराजित हुआ स्वयं ही काम,
देखकर इन्हे सदा अनिमेष।

नयन नीले दो ज्योतिर्मान,
समाये हुए नित्य आकाश।
देख ठिठके इनको दिनमान,
तुल्य कैसा ये दिव्य प्रकाश।

दमकती दामिन सी धुति एक,
किंतु कुंतल का कैसा दोष?
नयन अधरों की प्रभा विशेष,
निशा बन छाए केश अशेष!

तुम्हारे निर्मल विमल कपोल,
लालिमा लज्जा की न, तैश।
शुभ्र लगता यह पूरन भेष,
प्रिये मै नही भृमित लवलेश।

नही भोयें यह तनी कमान,
नयन के सायक चले अशेष।
हर रहे उर का अंतर ताप,
नशीले किस मधु से उन्मेष?

तेरे वे कोमल मृदुल उरोज,
हुआ गिरिश्रन्गो का प्रतिभाष।
सृजन पालन की हेतुक शक्ति,
नवल जीवन हित नवल प्रभाष।

अहो कटि का सुंदर विन्यास,
आह सुरमयी चाल वो ख़ास!
मिलन करने शिव से ज्यो स्वयं,
जगत जननी का हुआ प्रवास।

भाव मन के है मधुर विनीत,
गीत सा सदा हुआ अभ्यास।
विमल तन कोमल सा नवनीत,
ज्योत्स्ना का देता आभास।

अहो प्रियतम तुम ही तो छंद,
अक्षरों सा सुंदर विन्यास।
बसी आकर भावो के मध्य,
तुम्हारा बाहर कहाँ निवास!

मूल से ब्रह्म रन्ध्र के मध्य,
पिण्ड के भीतर का आकाश।
छिपी बन करके चेतन शक्ति,
प्रणय की करूँ कौनसी आस?


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