माँ और मेरा बचपन
माँ और मेरा बचपन
माँ तू तो सब जानती है, अपने बच्चे को अच्छे से पहचानती है.
याद है मुझे,
जब मैं बचपन में शैतानी किया करता था,
मुझे पीट,
तू खुद रोती रहती थी घर के एक कोने में बैठ कर.
देख कर तुम्हे रोता,
जब मैं तुम्हारे आंसू पोछता था,
फिर झट से मुझे तुम सीने से लगा लेती थी सब कुछ भूलकर.
यह भी याद है जब मैं गुस्सा करता था,
और खाने को मना कर देता था,
फिर तू कैसे अपने गोदी में बिठा कर,
एक एक निवाला खिलाती थी बातों-बातों में बहलाकर.
और फिर मेरी तबियत बिगड़ने पर,
तू बैठी रहती थी मेरे पास दिन के आठों पहर,
और बदलते रहती थी जलपट्टी जब चढ़ता था ज़्यादा बुखार,
माँ बतायेगी तू मुझे कैसी कर लेती थी इतना प्यार?
वह तुम्हारी लोरी भी याद है,
जो मुझे तुम सुनाया करती थी,
और फिर अपने सीने से लगाकर हर रात सुलाया भी करती थी.
याद है चोट लगने पर जब मैं माँ माँ करता तुम्हारे पास आता था,
और कितनी सावधानी से वह हल्दी का लेप तुम मेरे घाव पर लगाती थी.
गर्मी के मौसम में जब आम के बगीचे में अपने दोस्तों के साथ मैं दोपहर बिताता था,
और तुम जब ढूंढते हुए आती थी,
मैं तुम्हे कितना भगाता था,
तेरे लाख कोशिश करने पर भी हाथ न आता था.
माँ मैं क्यूँ बड़ा हो गया,
क्यों हो गया हूँ समझदार?
मुझे फिर से चाहिए तुम्हारा वही स्नेह,
तुम्हारा वही दुलार,
माँ क्या कभी लौटेगा मेरे बचपन का संसार.