मायके में अपने निशाँ ढूंढती हू
मायके में अपने निशाँ ढूंढती हू
ससुराल से पीहर आना ,
त्योहार से कम नहीं होता है
यही तो एक जगह है जहाँ
मेरा मुझसे मिलन होता है
आते ही सबसे पहले
दरवाजे में अपने पैरों के चिन्ह खोजती हूँ
विदा होते हाथों से लगाई छाप ढूँढती हूँ
आँगन के झूले में सावन और
वहीं बाजु में पड़ी खाट में आराम ढूँढती हूँ
कभी माँ की अलमारी
यूँ ही बेवजह टटोलती हूँ
कुछ चाहिए तुझे
पूछने पर ना में गर्दन हिला देती हूँ
ना जाने कितनी बार देखे घर को
घूम घूम फिर से देखती हूँ
रसोई में पहली बार पकाए
खाने की महक ढूँढती हूँ
छत पर उड़ाई पतंगों के
माँझे यूँ ही सुलझाती हूँ
घर के जिस कोने को
गुड़िया का घर बना खेलती थी
उसमे अपना संपूर्ण संसार सोचती हूँ
टूटे हुए खिलौनों में अपना बचपन जी लेती हूँ
खेल खेल में पापा के साथ
लगाए नींबू अमरूद के पौधों में
जीवन का रस चख लेना चाहती हूँ
स्टोर रूम में रखी किताबें
यूँ ही उलट पलट कर रख देती हूँ
पुराने कपड़ों में दबी स्कूल की ड्रेस
भी मुझे देख मुस्कुरा देती है
बड़े दिनों बाद आई बिटिया
कितने दिन रहोगी इस बार
पड़ौस की खबरी ताई का पूछना
और मैं बस भरी आँखों को
कुर्ते की आस्तीन से पौंछ लेती हूँ
पापा प्याज की कचौड़ी लाएं हैं खास तेरे लिए
ये सुनने के लिए कान कितने बेताब रहते हैं
ओह! कितनी मिर्ची है कहकर
माँ से गुलगुले भी बनवा लेती हूँ
पानी का गिलास हाथों में
लिए भागे आते हैं पापा
उनकी आँखों में आए पानी को भी
गले में उंडेल जाती हूँ
अपने लिए साड़ियां पसंद करले,
जाने कब बुलावा आ जाये तेरा
कहकर माँ पल्लू मुँह में
खोस रोना दबा जाती है
चाय बनाकर लाती हूँ
बहाने से भाग जाती है
बस माँ की चाय में अपना
पूरा बचपन ढूंढ लेती हूँ
थोड़ी देर और सो लेने दे,
चैन की नींद सो रही है
पापा का यूँ कहना और
माँ का लाड़ से सिर पर हाथ फेरना
थोड़े दिन के लिए ही सही
मायके में अपने निशाँ ढूंढती हूँ
और माँ पापा के लिए अपनी
यादों का समंदर छोड़ जाती हूँ।