कळ अनवट
कळ अनवट


सगेसोयरे गेले सोडून,
असे अचानक, आकस्मिक की,
कोरोनाची दहशत बसली
मनात माझ्या खोल खोल ती!
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नव्हते माहीत इतुके खडतर
वाट्याला जगणे येईल,की
हसणे होईल महाग इतुके
जगण्याची तारांबळ नुसती!
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खुश होतो, घरी अपुल्या
कामधाम ते करून सगळे
खातपित, वाचत, अभ्यासत
गुजगोष्टी करीत संगे!
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जगण्यासाठी गरजेचे जे
मिळवित होतो कणाकणाने
ओझी उतरत खांद्यावरची
जबाबदारी मणामणाने!
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कुठून अचानक एकाएकी
आला धडकत वादळवारा
आणि तयाने ध्वस्तच केला
मी रचलेला बंगला सारा!
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एकापाठोपाठ चौकडी
निखळत गेली, तोडीत वचने
अल्पावधीतच भकास झाले
घरकुल गाई शोकतराणे!
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नव्हती वाटत आधी भीती,
कोरोनाची आणि कशाची!
तरून जाऊ, करून काही
संकटाची बिशाद कैसी!
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अता विचारा मनास माझ्या,
जगता कैसे कोरोनासह?
'जगतो बाबा, विसरून सारे
कळ अनवट ती उरात दाबून!
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नातीगोती, जातीपाती,
रितीभातीला सारून मागे
पुसतो प्रत्येकास अता मी,
स्नेहाचे जोडित ते धागे!
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महामारी ही सरेल केव्हा?
असेन मी, की नसेन तेव्हा...
कुणास ठाऊक भविष्य अपुले?
जगणे सजवू क्षणाक्षणाने!
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हात देऊनी आधाराचा,
कधी मायेचा, पाठिंब्याचा
जगवू माणूसपणास आतील,
थोर धर्म जो मानवतेचा!
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