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Priya Joil

Tragedy Others

4.2  

Priya Joil

Tragedy Others

कळ अनवट

कळ अनवट

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210


सगेसोयरे गेले सोडून, 

असे अचानक, आकस्मिक की, 

कोरोनाची दहशत बसली

मनात माझ्या खोल खोल ती!

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नव्हते माहीत इतुके खडतर

वाट्याला जगणे येईल,की

हसणे होईल महाग इतुके

जगण्याची तारांबळ नुसती!

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खुश होतो, घरी अपुल्या 

कामधाम ते करून सगळे

खातपित, वाचत, अभ्यासत

गुजगोष्टी करीत संगे!

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जगण्यासाठी गरजेचे जे

मिळवित होतो कणाकणाने

ओझी उतरत खांद्यावरची

जबाबदारी मणामणाने!

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कुठून अचानक एकाएकी 

आला धडकत वादळवारा 

आणि तयाने ध्वस्तच केला

मी रचलेला बंगला सारा!

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एकापाठोपाठ चौकडी

निखळत गेली, तोडीत वचने

अल्पावधीतच भकास झाले

घरकुल गाई शोकतराणे!

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नव्हती वाटत आधी भीती,

कोरोनाची आणि कशाची!

तरून जाऊ, करून काही

संकटाची बिशाद कैसी!

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अता विचारा मनास माझ्या, 

जगता कैसे कोरोनासह?

'जगतो बाबा, विसरून सारे

कळ अनवट ती उरात दाबून!

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नातीगोती, जातीपाती,

रितीभातीला सारून मागे

पुसतो प्रत्येकास अता मी,

स्नेहाचे जोडित ते धागे!

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महामारी ही सरेल केव्हा?

असेन मी, की नसेन तेव्हा...

कुणास ठाऊक भविष्य अपुले?

जगणे सजवू क्षणाक्षणाने!

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हात देऊनी आधाराचा,

कधी मायेचा, पाठिंब्याचा

जगवू माणूसपणास आतील,

थोर धर्म जो मानवतेचा!

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