कुमार अशोक

Children Stories Inspirational

4.4  

कुमार अशोक

Children Stories Inspirational

वह कौन थी ?

वह कौन थी ?

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"आज तो मैं तुझे तेरी असल औकात समझा के ही रहूँगा बच्चू।"

“हाथ तो लगा के तो देख साने, आज तुझे तेरी छठी का दूध ना याद दिला दिया तो कहना।"

 "तू भी मुझे जरा छूकर तो दिखा, मौलाना की दुम, पता चल जाएगा कि मेरे ललाट के लाल टीके में कितनी आग है और चुटिया में कितना करेंट।"

 "ऐ पंडित की पूँछ, जान प्यारी है तो खिसक ले यहाँ से, वर्ना आज यहीं के यहीं तेरी कब्र बनाके उस पे अपनी टोपी की चादर चढ़ा दूँगा।"

 बोल-वचन वाले बारूद भरे बम बरसाते हुए दोनों खतरनाक इरादे से एक-दूसरे की ओर बढ़ते जा रहे थे।

 

शाम हो रही थी, सूरज आहिस्ता-आहिस्ता समन्दर में उतर रहा था, तट पर आस-पास अभी भी कुछ सैलानी थे लेकिन बीच-बचाव की पहल कोई नहीं कर रहा था। शायद लोग अपना अधूरा मनोरंजन इन दोनों नौजवानों की मुर्गा-लड़ाई देखकर पूरा करना चाह रहे थे। वैसे भी आजकल की तथाकथित सभ्य और समझदार दुनिया में दो के झगड़े में कोई तीसरा जल्दी आना नहीं चाहता, क्या पता बैठे-बिठाए कौन-सी मुसीबत गले पड़ जाए।

 

यह कोई पहला मौका नहीं था कि शंकर और शफ़ीक आपस में भिड़े हों। करसोवा गवर्नमेंट हाई स्कूल, जहाँ ये दोनों आठवीं में पढ़ते हैं, वहाँ के खेल का मैदान इन दोनों की ऐसी सैकड़ों तकरारों का चश्मदीद गवाह रह चुका है। हर बार शंकर और शफीक की लड़ाई टीका-चोटी और टोपी-दाढ़ी से शुरू होकर कर्बला-कुरूक्षेत्र से गुजरते हुए जय बजरंग बली और या ईलाही पर जाकर खत्म होती है। ये दोनों हमउम्र, एक जैसे नाक-नक्श वाले, हट्टे-कट्ठे बारह-साला नौजवान पढ़ते तो आठवीं क्लास में हैं परंतु दोनों में आँकड़ा है छत्तीस का। एक-दूसरे के लिए नफऱत हीं नफरत भरी पड़ी है दोनों के दिलों में।

इस नफरत के दो कारण हैं। पहला, शंकर के दिमाग में बैठी हुई यह धारणा कि शफीक और उस जैसे मजहब को मानने वाले सारे लोग देश के लुटेरे हैं, धोखेबाज हैं, आतंकवादी और देशद्रोही हैं। दूसरा, शफीक की यह सोच कि शंकर और उसके धर्म को माननेवाले सारे लोग उसके दुश्मन हैं, उन्हें भगा देना चाहते हैं , कभी हमारे अपने नहीं हो सकते चाहे हम लाख कुर्बानी दे दें।

 

शंकर हमेशा शान से कहा करता - ”मेरी नसों में एक खानदानी सनातनी का खून है। कभी उबल गया ना तो रंग तो वो दिखेगा कि देखते रह जाओगे ”। शफीक भी गरज कर कहता - “मेरी रगों में भी एक खानदानी मजहबी का पाक लहू है , गरम हो गया ना तो झुलस जाओगे।“ उनकी यह मानसिकता उनके परिवार और मोहल्ले में धर्मांधता के नित बोए जाने वाले बीजों से पनपे संकीर्णता, अविश्वास, और असहिष्णुता के पौधों पर खिली नफरत की कलियाँ नहीं तो और क्या हैं !

 

शंकर के पिता विंध्याचल गुप्ता जी कट्टर सनातनी हैं और जयंती मार्केट में उनकी रेडिमेड कपड़ों की एक छोटी-सी दुकान है। गोल-मटोल शरीर, ललाट पर मोटा लाल टीका, कलाई में लाल-पीले धागों की मुटाई और गले में रुद्राक्षों की तीन मालाओं की अलग-अलग लंबाई दूर से ही इनका परिचय दे देते हैं। दुकान में रेडिमेड कपड़े भले हीं कम हों पर तरह-तरह की झंडियों, चुनरियां, पीले-लाल-केसरिया साड़ियों, गमछों, रामनामियों और बंडी-पैंटों की भरमार है। एक नौकर सारा काम देखता है और ये जनाब खुद गल्ले पर बैठकर ग्राहकों को मुफ्त में धार्मिक ज्ञान बाँटते रहते हैं। धर्म की ऐसी-ऐसी आग्नेय व्याख्याएँ देते हैं ये जो किसी भी धर्मग्रंथ या और अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ हैं। शंकर इनकी इकलौती संतान है। बड़ी शान से कहते हैं कि मेरी भक्ति-भावना से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उपहार स्वरूप दिया है मुझे यह बेटा।

 

सामान्य कद-काठी वाले, आठों वक्त के नमाजी, जूते से एक बित्ते उपर पाजामा , आँखों में करीने से लगा सूरमा, सर पर हर वक्त नमाजी टोपी और गले में हकीक की माला --  ये हैं शफीक के पिता फैयाज शेख। अपनी एक छोटी-सी प्रीटिंग प्रेस चलाते हैं मुर्तजा मार्किट में जिसमें ज्यादातर धार्मिक जलसों और मिलादों के पोस्टर-पर्चे ही छपवाने आते हैं लोग। हुनरमंद इतने कि जलसे की जगह और मेहमाने खास का नाम भर पूछते हैं बाकी इबारत ऐसी लिख-छाप डालते हैं कि तेजाब भी फीका पड़ जाए। शफीक उनके खानदान का इकलौता चराग है। शादी के आठ साल बाद अल्लाह के फजल से उन्हें औलाद की नेमत हासिल हुई थी सो बड़े लाडले हैं साहबजादे।

 

स्कूल से तीन किलोमीटर पूरब है शंकर का घर श्यामनगर में और पश्चिम में लगभग तीन किलोमीटर पर रहता है शफीक दिलावरगंज में। बीच में है उनका स्कूल।

 

स्कूल में कुछ दोस्त इन दोनों को भड़काकर तब तक मजे लेते हैं जब तक नौबत मार- पीट तक ना पहुँच जाए। कई बार तो मार-पीट भी हुई विशेषकर स्कूल के गेट के बाहर तब जब वे अक्सर शाम को स्कूल के बाद घर को वापस जा रहे होते हैं। लेकिन हर बार स्कूल गेट के पास परचून की दुकान चलानेवाली अधेड़ औरत उन्हें समझा बुझा कर शांत कर देती। वे उसकी बात मान भी लेते थे क्योंकि वे अक्सर उसकी छोटी-सी दुकान से चॉकलेट और बिस्किट खरीदा करते थे और अक्सर वह एक-दो बिस्किट या चॉकलेट ज्यादा हीं दे देती थी। हालाँकि दुकान पर वह हमेशा भावहीन और यंत्रवत् ही रहती थी लेकिन उनकी लड़ाई शांत कराते समय उनको बड़े प्यार से कहती – “ बेटे क्या ये खून-खून लगा रखा है ! अरे खून का रंग तो सबका एक जैसा होता है – लाल। तुम्हें आपस में झगड़ना नहीं चाहिए। विद्या के मंदिर में आते हो बेटा और ऐसी ओछी बातें सोचते हो? यह ठीक बात नहीं , तुमलोगों को पढ़ाई-लिखाई में दिल लगाना चाहिए।“

 

समन्दर की सूखी रेत का साम्राज्य किनारे पर जहाँ खत्म होता है वहीं से शुरु होता है उनके स्कूल का अहाता जिससे सटकर खड़े नारियल के पेड़ यों लहराते हैं मानों कह रहे हों – दीवार फाँदना चाहते हो, लो पकड़ो हाथ।“ एक बार दीवार फाँद कर इधर आ गए फिर तो मजे हीं मजे। इसी चक्कर में शफीक दीवार फाँद कर आया था आखिरी घंटे के शुरु होते हीं लेकिन शंकर इधर पहले हीं पहुँच कर मटरगस्ती कर रहा था। एक-दूसरे को देखते ही दोनों की आँखों में नफरत का तूफान मचलने लगा वे लड़ने-झगड़ने की जुगत भिड़ा़ने लगे। इसी चक्कर में फालतू टहलते-टहलते काफी वक्त भी निकल गया। झगड़े की प्लानिंग के पीछे वे यह भूल गए कि सूने स्कूल में उनके बस्ते बेसब्री से उनका इंतजार कर रहे हैं।

 

इधर दोनों को जिस घड़ी का इंतजार था वह आज आ गई थी और दोनों दो-दो हाथ करने का मौका गंवाना नहीं चाहते थे। दो कदम आगे बढ़कर वे एकदम आमने-सामने आ गए और एक दूसरे की कमीज का कॉलर पकड़ लिया। शफीक ने लंगड़ी मारकर शंकर को बालू पर गिरा दिया और उसपर चढ़ बैठा। वह घूंसे बरसाने हीं वाला था कि शंकर ने उसे धकेलकर दूर गिरा दिया। यह जोर-आजमाइश चल हीं रही थी कि दूर से आवाज आई दूर हटो, मत लड़ो, अलग हो जाओ। पर यह आवाज मदमस्त साँढ़ों के कानों में कहाँ जा रही थी ! क्रोध और नफरत की दीवारों ने सद्वचनों का रास्ता रोक रखा था।

 

वही परचून दुकान वाली अधेड़ औरत दौड़ती-हाँफती आवाज लगाती आ रही थी। शायद वह इनके स्कूल आने-जाने पर नजर रखती थी और जब छुट्टी के बाद भी उनको स्कूल से नहीं वापस जाते देखा तो शक में उन्हें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते इधर आ गई। उसके शक की हकीकत अब उसके सामने थी।

 

वह उन्हें छुड़ाने की कोशिश करने लगी कि तभी इस धक्कम-मुक्का में वह गिर गई और उसका सर पास पड़े पत्थर से जा टकराया। सिर फट गया और खून बेतहाशा बहने लगा। शंकर और शफीक इस अप्रत्याशित घटना से बिल्कुल हीं हतप्रभ और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। लड़ना भूलकर वो बुत-से बदहवाश कभी एक-दूसरे को देखते तो कभी उस अधेड़ औरत को तो कभी बनकर उसके बहते खून को। वे इतना डर गए कि तुरंत वहाँ से भाग जाना चाहते थे पर ना जाने किस सुमति के प्रभाव से उन्होंने अपने-अपने रुमाल निकाले, औरत के सर पर पट्टी बाँधी और किसी तरह उठाकर-पुठाकर

बालू को पार करते हुए पक्की सड़क के पास आए फिर वहाँ से एक ऑटोरिक्शा लेकर सरकारी अस्पताल पहुँचे।

डॉक्टर पिक्चरों में दिखाए जाने वाले किरदार के उलट एक निहायत ही शरीफ आदमी था। उसने पहले तो तुरंत मरहम पट्टी कर दी फिर रजिस्टर की खानापूर्ति करने लगा।

“नाम” – डॉक्टर ने पूछा।

“जी, मारिया जोजेफ” औरत ने दर्द से कराहते हुए कहा।

“हसबैंड का नाम ?”

“जी मेरे हसबैंड नहीं है, शादी नहीं हुई”

“कैसे सर फट गया, ये लड़के कौन हैं?”

शंकर और शफीक के दिल डर के मारे जोर-जोर से पसलियों से टकराने लगे।

“जी मैं ….. मैं …..।“

 

 “हाँ, हाँ,बोलिए, मैं सुन रहा हूँ। जल्दी बोलिए।“ – शायद शराफत के पास भी समय की कमी थी।

“ मैं, मैं बीच पर टहल रही थी कि अचानक मेरा सर घूमने लगा और मैं गिर पड़ी। माथा पास पड़े पत्थर से टकरा गया और खून बहने लगा। ये तो मेरी खुशकिस्मती थी कि ये दोनों लड़के भी उधर टहल रहे थे और मेरी जान बचाने के लिए यहाँ ले आए।“

शंकर-शफीक के कलेजे मुंह को आते-आते हलक में अटक कर रह गए।

 

डाक्टर ने ब्लड प्रेसर नापते हुए कहा – कमजोरी है, मैं दवा दे दिए देता हूँ लेकिन चक्कर फिर आ सकता है। आज रात भर अस्पताल में रहना होगा।“

डाक्टर के जाने के बाद शंकर-शफीक रुआँसे से, ग्लानि से गड़े उस औरत के समीप खिसक आए और कहने लगे “हमें माफ कर दो, हमने जान-बूझकर यह नहीं किया है।“

उस औरत ने कहा कि माफ नहीं करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है लेकिन एक शर्त है।

“ क्या ?” दोनों एक साथ चौंककर बोले।

“मेरे खून का रंग तो तुम लोगों ने देख लिया”

“हाँ”

“क्या हर इंसान के खून का रंग ऐसा ही होता है?”

“हाँ”

“फिर क्यों कहते हो खानदानी खून हैं, हिन्दू का खून है, मुसलमान का खून है? ”

दोनों चुप, क्या जवाब दें।

“तो आज घर जाकर बताना और अपने माता-पिता से पूछना तुम्हारे शरीर में किस रंग का खून है, किसका खून है।”

 

दूसरे दिन स्कूल जाने के लिए दोनों अपने-अपने घरों से जल्दी हीं निकल पड़े और सीधे अस्पताल पहुँचे। लेकिन नर्स ने बताया कि औरत को सवेरे हीं छुट्टी दे दी गई है और वह घर चली गई है।

 

दोनों स्कूल-गेट के पास उस औरत के परचून दुकान पर पहुँचे। लेकिन दुकान तो बंद पड़ी थी। पड़ोसियों से पूछने पर पता चला कि यह औरत इसी दुकान में भाड़े पर पिछले बारह सालों से रहती थी, दुकान चलाती थी, बिल्कुल अकेली थी। ना वह कहीं आती-जाती थी ना ही उसके यहाँ कोई आता-जाता ही था। आज अचानक सुबह वह आई और अपना सारा हिसाब-किताब नक्की करके अचानक चली गई यह कहते हुए कि घर जा रही हूँ , आज मेरे बेटों का जन्मदिन है।

उसने यह भी कहा कि मेरे जाने के बाद दो लड़के आएंगे, उनसे कह दीजिएगा कि जो उनसे माँगा था उसे वे पास ही रखें और अपने दिल से लगा कर रखें।

 शंकर और शफीक को बहुत दुख हुआ कि इतने बरसों बाद वह औरत अपने बेटों का जन्मदिन मनाने भी गई तो इस तरह घायल होकर, उनकी वजह से।

 

उस दिन स्कूल से घर लौटकर रात में जब वे अपने-अपने घरों में खाना खा रहे थे तो उन्हें औरत के दोनों सवाल याद आ गए। शफीक ने शेख से पूछा “ अब्बा हुजूर क्या हिन्दू-मुसलमान दोनों के शरीर में एक जैसा खून होता है ?”

“बेटा रंग तो ठीक है लेकिन हमारे शरीर में खालिस मुस्लिम का खानदानी लहू है।“

यही सवाल शंकर ने अपने पिताजी से पूछा।

जवाब मिला इंसान के खून का रंग तो एक होता है बेटा लेकिन हमारा खून एक असली हिंदू का खानदानी खून है।“

फिर दूसरा सवाल पूछा उन्होंने “मेरे शरीर में किसका खून है ? हिंदू का , मुसलमान का या इंसान का?”

“ये कैसा सवाल है ?”

“सवाल तो सवाल है, बताईए ना पिताजी”

“बताईए ना अब्बूजान”

“हम पर ये सवाल कर्ज है किसी का”

“सवाल….. कर्ज…… किसका ?”

इधर गुप्ता और उधर शेख – दोनों दंपत्ति किसी अनहोनी की आशंका से परेशान थे। भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है यह तो नजूमी भी ठीक-ठीक नहीं जानता और वे तो बेचारे साधारण इंसान थे।

 

पहले तो वे सवाल को टालते रहे लेकिन बच्चों ने कई दिन तक जिद्द मचाए रखी तो आखिरकार वे टूट गए। क्यों ना टूटते ? चाहे जैसे भी थे , थे तो आखिर माँ-बाप ही।

 

शेख ने शफीक को बताया कि औलाद की चाहत में मियाँ-बीबी ने किस-किस पीर-औलिया-फकीर की मजार पर फरियाद नहीं की, मन्नतें नहीं मानी। एक मुबारक दिन किसी गुमनाम की मजबूरी फरिश्ते की शक्ल अख्तियार कर मेरे घर आई और सीढ़ियों पर तुम्हें हमारे लिए छोड़ गई मेरे बच्चे। शेख इस बात से बिल्कुल हीं अंजान थे कि गुप्ता जी की भी कमोबेश यही कहानी थी फर्क था तो बस इतना कि मजारों की जगह मंदिर थे , पीर-औलिया-फकीर की जगह साधु-महात्मा और मन्नतों की जगह पूजा-उपवास, व्रत और कथा। जिस दिन उन्हें शफीक मिला था ठीक उसी दिन एक बच्चे के लिए दस साल से तड़पते- तरसते गुप्ता दंपत्ति को शिशु शंकर उनके घर की सीढ़ियों पर पड़ा मिला था। गौर किया जाय तो शऱीक और शंकर के नैन-नक्श भी काफी हद तक मिलते-जुलते हैं। आखिर माजरा क्या है ?

 

शंकर और शफीक समझ नहीं पा रहे थे कि उनकी रगों में हिंदू का खून है, मुसलमान का या इसाई का ?

और वो क्रिश्चियन औरत ?

वो कौन थी ?


 

 


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