सत्ता का खेल
सत्ता का खेल
पार्क में बैठे हुए मनोहर जी अचानक ही चक्कर आने पर बेहोश हो गए।
जब से वे बेटे के पास शहर में आकर रहने लगे थे प्रायः रोज ही दोपहर में दो घंटे आकर पार्क में बैठ जाते थे। बैठे बैठे गाँव के पुराने दिनों को याद कर जैसे वहीं पहुँच जाते थे। गाँव के मुखिया थे। गाँव का हर आदमी उन्हें, उनके परिवार को पहचानता था। उनका सम्मान करता था।
प्रायः उनका बेटा अशोक जब भी कोई बदमाशी करता, इधर उधर घूमता, गिर पड़ जाता तो सभी उससे कहते "अरे तू मनोहर जी का बेटा है न! वे क्यों इसे इस तरह अकेला छोड़ देते हैं।" और वे लोग उसे पकड़ कर मनोहर जी के घर छोड़ आते थे।
तभी उन्हें बेहोश देखकर उनके आसपास कुछ लोग इकट्ठे हो गए थे।
"अरे कौन हैं ये?"
"पहचान नहीं पा रहें है..।"
"अरे ये तो अशोक जी के पिता जी हैं। हमारी बिल्डिंग में ही रहते हैं। रूको, मैं उनको फोन लगाता हूँ।"
मनोहर जी को कुछ होश आ गया था।
"पापा.. आप भी न! ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है आपका। इस तरह अकेले पार्क में नहीं आना चाहिए था।" अशोक ने उन्हें पकड़ कर धीरे से गाड़ी में बैठाते हुए कहा।
मनोहर जी धीरे से गाड़ी की पिछली सीट पर समय के इस सत्ता परिवर्तन के खेल में खिलौना बनकर आँख बन्द किए बैठे थे।
