Sandeep Mohan

Children Stories Inspirational

5  

Sandeep Mohan

Children Stories Inspirational

सम्मान

सम्मान

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किसी गाँव के समीप छोटी पहाड़ियों के बीच घुमावदार पगडंडीयों पर टहलते हुए एक पिता व पुत्र बातें कर रहे थे। पिता, रघु को अपने पुत्र, मकरंद के प्रश्नों के उत्तर देना खूब भाता था। प्रश्नों की बढ़ती पेचीदगी रघु को अपने पुत्र पर गर्व का एहसास करती थी।

राह चलते मकरंद अपने विचारों में खोया हुआ, एक पत्थर को अपने पैरों से ठोंकर मारता चल रहा था। खेलते-खेलते, वह छोटा पत्थर रास्ते से हट कर झाड़ियों में खो गया।

मकरंद अपने पिता का हाथ छोड़ कर उसे लेने दौड़ा। तभी, रघु ने उसे आवाज़ दी।

'मकरंद, अब जाने भी दो पुत्र, तुम उस पत्थर को पर्याप्त ठोकरें मार चुके हो।' रघू ने हँस कर कहा। मकरंद ने अपने पिता की और देखा और कुछ संचयपूर्ण भाव के साथ पूछा। 'ऐसा क्यों? पत्थर को तो पीड़ा का अनुभव नहीं होता ना पिताजी?'

रघू ने अपने पुत्र को मुस्कुराते हुए कहा, 'नहीं। परन्तु प्रश्न केवल पीड़ा पहुंचाने का नहीं हैं। प्रश्न सम्मान देने का हैं।'

मकरंद के चेहरे पर उसके मन में उठी उलझन साफ दिखाई पड़ रही थी। एक निर्जीव वस्तु के प्रति मन मे सम्मान की क्या आवश्यकता?


'मैं तुम्हारी दुविधा समझता हूँ पुत्र।' रघू ने हँस कर कहा। यह कहते हुए रघू ने जा कर वह पत्थर उठा लिया और मकरंद को वह पत्थर दिखाते हुए उससे पूछा, 'अच्छा यह बताओ पुत्र के किसी का भी सम्मान हम क्यों करते हैं?'

मकरंद सोचने लगा। पर उसे उत्तर नहीं मिला। उसने उसके पिता की और देखा और विचार करते हुए कहा, 'क्योंकी वें सभी बुजुर्ग हैं।'

रघू ने मुस्कुरा कर मकरंद को भी अपने साथ बैठा लिया। 'यह तो कोई कारण नहीं हुआ! तुम एक बालक हो तो क्या तुम्हारा सम्मान नहीं होना चाहिए?'

मकरंद के चेहरे पर उलझन की लकीरें गहरी पडती जा रहीं थी। वह बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था के कब उसे उत्तर मिले। यह देख रघू ने देर न करते हुए मकरंद को उत्तर और उसी मे समाया हुआ पाठ जल्द से जल्द दे देना उचित समझा।

'पुत्र, आदर-सम्मान यह जटिल भावनाए हैं। इन्हें हम मनुष्य हीं अनुभव कर सकते हैं। जीव-जंतु नहीं।' मकरंद सोचने लगा और सोचते-सोचते उसकी नज़र निकट ही एक चींटीयों की बाम्बी पर गई।

'गौर से देखो उन चींटीयों को। कितनी अनुशासित हैं, हैं न?' रघू ने उत्सुकता के साथ पुछा। 'जी पिताजी, वें एक कतार मे ही चलती हैं, झगड़ती नहीं आगे निकलने के लिए, और लगन के साथ मेहनत करती हैं।' मकरंद ने अपने पिता की और देखते हुए जिज्ञासा भरी आँखों के साथ पूछा, 'वें किसका सम्मान करती हैं पिताजी?'

'किसी का नहीं,' यह उत्तर सुन कर मकरंद को थोड़ी हैरत हुई। पिताजी ने इनका वर्णन ही क्यों किया होगा जब यह किसी का सम्मान नहीं करती। उसने सोचा। 'पुत्र कीट-पतंगों की बुद्धि इतनी विकसित नहीं होती के सम्मान भाव को समझ सके। यही समझ तो हमें उनसे अलग बानाती हैं।' मकरंद को यह सुन कर चींटियों के वर्णन का कारण समझ आया।

'अच्छा अब एक प्रश्न का उत्तर दो मकरंद, देखें तुम्हें बात समझ आ रही हैं या नहीं। जब कोई बैल हल को खिंचता हैं और अपने मालिक का कहा मानता है, तो क्या उसके मन मे उसके मालिक के प्रति सम्मान होता है?' मकरंद अपनी क्षमता में कुछ क्षण विचार करने के बाद बोला, 'नहीं पिताजी, मेरे अनुसार उस बैल को कौडो से पड़ने वाली मार का भय होता है, इसीलिए वह अपने मालिक का कहा मानता है।'

रघू ने अपने पुत्र पर गर्व करते हुए एक गहरी सांस ली। और उसकी पीठ पर हाथ रखा। 'बहुत अच्छे पुत्र, भय को आदर समझ लेने की मूर्खता अक्सर लोग करते है। पर जब तुम दादाजी का सर दबाते हो, उन्हें पाणी पिलाते हो, और उनकी कहानियो को गौर से सुनते हो, उसमे सम्मान होता है। सम्मान का आधार प्रेम है, जहा प्रेम होता है केवल वहीं सम्मान रह सकता है।' मकरंद चुप था। कई सारे विचार उसके मन मे चल रहे थे। 'हाँ, हमारे विद्यालय मे सभी गणित के आचार्य जी का सम्मान करते हुए प्रतीत होते है, पर अब देखूँ तो ऐसा नहीं है। बच्चे उनकी डांट और पिटाई से भयभीट है, वह तो सम्मान नहीं है। जितना बच्चे उनके सामने अनुशासित रहते है, उतने ही संगीत की शिक्षिका के सामने भी होते है, पर वह तो बहुत कोमल है।'

'पिताजी क्या बैल प्रेम का अनुभव कर सकता है?' 

रघू ने स्नेह के साथ मकरंद के सर पर हाथ फेरा। 'हाँ बिलकुल, प्रेम, दुख, और आनंद मौलिक भावनाए हैं। इन्हें हम मनुष्यों के अलावा भी कई जीव अनुभव कर सकते हैं। संसार मे प्रेम का भाव जीवित रहे इसलिए हमारे प्राचीन ज्ञानियों ने हमें यह संस्कार दिए। जिनमे सम्मान एक ऐसा उपहार हैं जो सभी को अच्छा लगता हैं और एक मज़बूत सम्बन्ध बनाने मे हमारी सहायता करता हैं। परन्तु जीव जंतु उनके मन के प्रेम कों सम्मान नहीं बना सकते उनके लिए प्रेम ही प्रयाप्त है। प्रेम और भय उन्हें जंगलों मे जीवित और एकत्र रखता है। हमारा मनुष्य समाज एक जटिल समाज है और इसके उचित संचालन के लिए जटिल भाव सम्मान आवश्यक है।

मकरंद अपना सर खुजलाते हुए खड़ा हो गया और उसने उसके पिता के हाथ से वो छोटा पत्थर छीन लिया।

'पिताजी, इस छोटे से पत्थर से न तो मुझे प्रेम है, न भय, मैं इसका सम्मान क्यों करू?' यह कहते हुए मकरंद ने उस पत्थर को फेकने के लिए अपना हाथ उठाया। रघू ने झट उसका हाथ रोक दिया।

रघू बैठा ही रहा और मकरंद के हाथ से वो पत्थर लेके के बोला, 'पुत्र, इस छोटे पत्थर का सम्मान करना तुम्हे एक बहुत भयानक विश से बचाएगा। वह विश जो अनेक जीवनो को नष्ट कर देता है।'

'ऐसा वह कौनसा विश है, और कहा से आएगा?' मकरंद ने अपनी बालकपन की मासूमियत को साँझा करते हुए पूछा।

'अहंकार, पुत्र अहंकार वह विश हैं। हम अपमान या अनादार उन्ही का करते है जो हमसे कमज़ोर या हमें चोट पहुँचाने में असमर्थ होते है। पर हमें यह सदैव स्मरण रहना चाहिए के क्षमता केवल अवस्था पर निर्भर होती है। एक चूहा हाथी के सामने निर्बल होता है, परन्तु वही चूहा अगर हाथी के कान मे चला जाये तो उसकी मृत्यु का कारण बन सकता है। जरा अपना एक जूता निकालो मकरंद।' रघू ने मकरंद को अचरज मे डालते हुए कहा।


पुत्र ने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए अपना एक जूता निकाल दिया। रघू ने वह छोटा पत्थर मकरंद के जूते मे डाला और उसे वह जूता पहन लेने को कहा।

'पर पिताजी...' मकरंद समझ नहीं पाया पर किसी तरह उसने वह जूता अपने पैर पर चढ़ा ही लिया।

'अब चलो पुत्र हम अपने घर तक का सफर फिर शुरू करतें हैं।'

बस दो कदम चल कर ही मकरंद रुक गया और दर्द से सिसकियाँ लेने लगा। रघू ने उसके जूते से पत्थर को निकल कर उसके पैरों को अपने हाथो से सहलाया।

'हम यह मान कर इस पत्थर का सम्मान कर सकते हैं की कम से कम वह हमारे जूते मे नहीं हैं।' यह कह कर रघू हसने लगा।

'पुत्र, इन सभी निर्जीव वस्तुओ का भी सम्मान करने मे यदि हम सक्षम हो गए, तो हार किसी व्यक्ति, वस्तु, या पशु का भी सम्मान करना हमारे लिए सहज होगा।'

अपने पिता का हाथ फिर पकड़ कर चलते हुए मकरंद को बहुत सी बाते समझ आई। 'पिताजी? क्या इसीलिए दादी हमेशा पुस्तक, झाड़ू, दरवाजे, को पैर लगने पर सर से लगाने को कहती हैं? और किसी भी काम को जो हाथो से होना चाहिए, पैरों से करने पर डाँटती हैं?'

'बिल्कुल सही मकरंद, तुम आज यह बात तो सीख ही गए।'

'पर दादी कहती हैं के ऐसा करने से पाप लगता है।'

'हाँ, वह इसलिए है क्योंकी उसे भी इसी तरह उसके माता-पिता ने सीखाया होगा। वह तुम्हारे बड़े दिमाग़ की जिज्ञासा को शांत करने मे असमर्थ हैँ पुत्र।' रघू ने घर की ओर कुछ आखिरी कदम बढ़ाते हुए अपने पुत्र से कहा।

'सम्मान एक ऐसी संपत्ति हैं जिसे बाँटने से वह कम नहीं होती। और केवल यह एक उपहार ऐसा हैं जिसे देने व लेने से यह पूर्ण विश्व एक बेहतर जगह बन सकता हैं। इन छोटी, बेमोल, निर्जीव वस्तुओ का भी सम्मान करने से हमारे दिलो मे प्रेम का भाव बना रहता हैं और हम सुख का अनुभव करते हैं, और अहंकार हमसे दूर रहता है।'



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