सिर्योझा - 6
सिर्योझा - 6
करस्तिल्योव और बाकी लोगों में क्या फ़र्क है
लेखक: वेरा पनोवा
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
बड़े लोगों के पास कितने फ़ालतू शब्द होते हैं ! मिसाल के तौर पर, यही देखिए:
सिर्योझा चाय पी रहा था और उसने चाय गिरा दी; पाशा बुआ कहती है:
“कैसा फ़ूहड़ है! तेरे रहते तो घर में मेज़पोश रह ही नहीं सकता. अब कोई छोटा तो नहीं है तू, शायद!”
यहाँ सारे के सारे शब्द फ़ालतू हैं, सिर्योझा की राय में. सबसे पहले, वह उन्हें सौ बार सुन चुका है. और दूसरी बात, उनके बिना भी वह समझता है कि उससे गलती हुई है: जैसे ही चाय गिराई, समझ गया और उसे बहुत बुरा भी लगा. उसे शर्म आ रही है और वह बस एक ही बात चाहता है – कि वह जल्दी से मेज़पोश निकाल ले, जब तक और लोग इस ओर ध्यान दें. मगर वह है कि बोले ही जाती है, बोले ही जाती है:
“तुम कभी भी नहीं सोचते कि किसी ने इस मेज़पोश को धोया, कलफ़ किया, इस्त्री की, मेहनत की...”
“मैंने जान बूझ कर तो नहीं किया,” सिर्योझा उसे समझाता है, “मेरे हाथों से कप छूट गया.”
“मेज़पोश पुराना है,” पाशा बुआ शांत होने का नाम ही नहीं लेती, “मैंने उसे रफ़ू किया, पूरी शाम बैठी रही, कितनी मेहनत की.”
जैसे कि अगर मेज़पोश नया होता तो उस पर चाय गिराई जा सकती थी!
अंत में पाशा बुआ उद्विग्नता से कहती है:
“शुक्र है कि तूने ये जानबूझ कर नहीं किया! बस, इसी की कमी रह गई थी!”
यदि सिर्योझा कोई चीज़ फ़ोड़ देता है, तब भी यही सब कुछ कहा जाता है. मगर जब वे ख़ुद गिलास और प्लेटें तोड़ते हैं, तो ऐसा दिखाते हैं कि ऐसा ही होना चाहिए था.
या फिर, मिसाल के तौर पर, मम्मा यह कोशिश करती है कि वह ‘प्लीज़’ कहा करे, मगर इस शब्द के तो कोई मायने ही नहीं हैं.
“इससे विनती प्रकट होती है,” मम्मा ने कहा. “तुम मुझसे पेन्सिल मांगते हो, और यह दिखाने के लिए कि यह विनती है, तुम उसके साथ ‘प्लीज़’ जोड़ते हो.”
“मगर क्या तुम समझी नहीं,” सिर्योझा ने पूछा, “कि मैंने तुमसे पेन्सिल मांगी है?”
“समझ गई, मगर बगैर ‘प्लीज़’ के – यह अशिष्टता होगी, असभ्यता होगी. इसका क्या मतलब हुआ: “पेन्सिल दे!” मगर, अगर तुम कहते हो कि “पेन्सिल दो, प्लीज़,” – तो यह शिष्टाचार है, और मैं ख़ुशी-ख़ुशी दूँगी.”
“और अगर मैं न कहूँ – तो बिना ख़ुशी के दोगी?”
“बिल्कुल नहीं दूँगी!” मम्मा ने कहा.
अच्छी बात है, प्लीज़ - सिर्योझा उनसे कहता है “प्लीज़”, अपनी सारी अजीब अजीब हरकतों के बावजूद वे ताकतवर हैं और बच्चों पर राज करते हैं, वे सिर्योझा को पेन्सिल दे भी सकते हैं और नहीं भी दे सकते हैं, जैसी उनकी मर्ज़ी.
मगर करस्तिल्योव ऐसी फ़ालतू की बातों से परेशान नहीं होता, वह उन पर ध्यान भी नहीं देता – कि सिर्योझा ने ‘प्लीज़’ कहा है या नहीं कहा.
और अगर सिर्योझा गली के कोने में अपने खेल में मगन है और वह नहीं चाहता कि कोई उसे इसमें से बाहर खींचे – करस्तिल्योव कभी भी उसका खेल नहीं बिगाड़ता, वह कोई भी बेवकूफ़ी भरी बात नहीं कहेगा, जैसे, “चल, आ जा, मैं तेरी पप्पी ले लूँ!” – जैसा लुक्यानिच कहता है, काम से लौटते समय. अपनी कड़ी दाढ़ी से सिर्योझा की पप्पी लेकर लुक्यानिच उसे चॉकलेट या सेब देता है. धन्यवाद, मगर बताइए तो, इन्सान की क्यों ज़बर्दस्ती पप्पी ली जाए और उसे खेल से उठा लिया जाए- खेल तो सेब से ज़्यादा ज़रूरी है, सेब तो सिर्योझा बाद में भी खा सकता है.
...घर में कई तरह के लोग आते हैं – अक्सर करस्तिल्योव के पास. सबसे ज़्यादा आता है अंकल तोल्या. वह जवान है और ख़ूबसूरत है, उसकी काली लम्बी बरौनियाँ हैं, सफ़ेद दाँत और शर्मीली मुस्कुराहट है. सिर्योझा के मन में उसके प्रति आदर है, दिलचस्पी है, क्योंकि अंकल तोल्या कविताएँ लिख सकता है.
उसे अपनी नई कविताएँ पढ़ने के लिए मनाते हैं, पहले तो वह शरमाता है और इनकार करता है, फिर उठ कर खड़ा हो जाता है, एक ओर को जाता है और मुँह ज़बानी पढ़ने लगता है. कौन सी ऐसी चीज़ है जिसके बारे में उसने कविता नहीं लिखी है! युद्ध के बारे में, शांति के बारे में, कल्ख़ोज़ के बारे में, फ़ासिस्टों के बारे में, और बसंत के बारे में, और नीली आँखों वाली किसी लड़की के बारे में जिसका वह इंतज़ार कर रहा है, इंतज़ार कर रहा है, और यह इंतज़ार ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. लाजवाब कविताएँ! वैसी ही लय में, और प्रवाह में, जैसी किताबों में होती हैं! पढ़ने से पहले अंकल तोल्या खाँसता है और एक हाथ से अपने काले बाल पीछे करता है; और ज़ोर से पढ़ता है, छत की ओर देखते हुए. सब उसकी तारीफ़ करते हैं, और मम्मा उसके लिए प्याले में चाय डालती है. चाय पीते हुए गायों की बीमारियों के बारे में बातें करते हैं: अंकल तोल्या ‘यास्नी बेरेग’ में गायों का इलाज करता है.
मगर घर में आने वाले सभी लोग अच्छे और आपका ध्यान खींचने वाले नहीं होते. मिसाल के तौर पर, अंकल पेत्या से सिर्योझा दूर ही रहता है: उसका चेहरा ही बड़ा घिनौना है, और सिर हल्का गुलाबी और गंजा है जैसे प्लास्टिक की गेंद हो. और हँसी भी गन्दी है : “ही-ही-ही-ही!” एक बार, मम्मा के साथ छत पर बैठे हुए – करस्तिल्योव घर पर नहीं था – अंकल पेत्या ने सिर्योझा को अपने पास बुलाया और एक चॉकलेट दी – बड़ी और मुश्किल से मिलने वाली ‘मीश्का कोसोलापी’. सिर्योझा ने शराफ़त से कहा: ‘धन्यवाद’, रैपर खोला, मगर उसमें कुछ भी नहीं था – वह एकदम ख़ाली था. सिर्योझा को बड़ी शर्म आई – अपने आप पर कि उसने विश्वास किया, और अंकल पेत्या पर कि उसने धोखा दिया. सिर्योझा ने देखा कि मम्मा को भी शर्म आ रही थी, उसने भी विश्वास कर लिया था....
“ही-ही-ही-ही!” अंकल पेत्या हँसने लगा.
सिर्योझा ने बिना गुस्सा हुए, अफ़सोस से कहा:
“अंकल पेत्या, तू बेवकूफ़ है?”
उसे पूरा यक़ीन था कि मम्मा भी उससे सहमत थी. मगर वह विस्मय से चिल्लाई, “ये क्या है! चल, फ़ौरन माफ़ी मांग!”
सिर्योझा ने अचरज से उसकी ओर देखा.
“तूने सुना, मैंने क्या कहा?” मम्मा ने पूछा.
वह ख़ामोश रहा. उसने उसका हाथ पकड़ा और घर के भीतर ले गई.
“मेरे पास आने की हिम्मत भी न करना,” उसने कहा. “अगर तू इतना फ़ूहड़ है, तो मुझे तुझसे बात भी नहीं करनी है.”
वह कुछ देर खड़ी रही, इस उम्मीद में कि वह पछताएगा और माफ़ी मांगेगा. मगर उसने अपने होंठ भींच लिए और आँखें फेर लीं, जिनमें दुख और खिन्नता थी. वह अपने आप को दोषी नहीं मान रहा था; फिर वह माफ़ी किस बात की मांगे? उसने वही कहा जो वह सोच रहा था.
वह चली गई. वह अपने कमरे में आया और खिलौनों से दिल बहलाने लगा, जिससे इस बात से ध्यान हटा सके. उसकी पतली-पतली उँगलियाँ थरथरा रही थीं; पुराने ताशों से काटी गई तस्वीरें देखते हुए उसने अनजाने में काली औरत का सिर फ़ाड़ दिया...मम्मा बेवकूफ़ अंकल पेत्या की तरफ़दारी क्यों कर रही है? देखो, कैसे वह उसके साथ बातें कर रही है और हँस रही है, जैसे कुछ हुआ ही न हो; और सिर्योझा से तो उसे बात भी नहीं करनी है...
शाम को उसने सुना कि कैसे वह करस्तिल्योव को इस बारे में बता रही थी.
“तो ठीक ही किया,” करस्तिल्योव ने कहा. “इसे कहते हैं निष्पक्ष आलोचना.”
“क्या इस बात की इजाज़त दी जा सकती है,” मम्मा ने प्रतिरोध करते हुए कहा, “कि बच्चा बड़ों की आलोचना करे? अगर बच्चे हमारी आलोचना करने लगें – तो हम उन पर संस्कार कैसे डालेंगे? बच्चे को बड़ों का आदर करना ही चाहिए.”
“किसलिए, माफ़ कीजिए, उसे इस ठस दिमाग का आदर करना चाहिए!” करस्तिल्योव ने कहा.
“करना ही होगा आदर. उसके दिमाग़ में ये ख़याल भी पैदा नहीं होना चाहिए कि बड़ा आदमी ठस दिमाग़ हो सकता है. पहले बड़ा हो जाए, इसी प्योत्र इलिच के जितना, तब भले ही वह उसकी आलोचना कर ले.”
“मेरे ख़याल से,” करस्तिल्योव ने कहा, “दिमाग़ी तौर पर वह कब का प्योत्र इलिच से बड़ा हो गया है. और शिक्षा शास्त्र के किसी भी नियम के अनुसार बच्चे को इस बात के लिए सज़ा नहीं दी जानी चाहिए कि उसने बेवकूफ़ को बेवकूफ़ कहा.”
आलोचना और शिक्षा शास्त्र वाली बात तो सिर्योझा समझ नहीं सका, मगर बेवकूफ़ के बारे में समझ गया, और इन शब्दों के लिए उसने करस्तिल्योव के प्रति कृतज्ञता का अनुभव किया.
अच्छा आदमी है करस्तिल्योव , अजीब सा लगता है सोचने में, कि पहले वह सिर्योझा से दूर, नास्त्या दादी और परदादी के साथ रहता था, और कभी कभार उसके घर आया करता था.