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शिकार

शिकार

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आज माधो बहुत खुश था। बड़े दिनों बाद आज बढ़िया शिकार हाथ लगा था।

काफी देर की जद्दोजहद के बाद वह उस जंगली सूअर पर निशाना साध पाया था। भाला सीधे उसके शरीर के आरपार हो गया था।

कंधे पर उसे लादकर जब वह घर पहुँचा तो बुधिया गुमसुम बैठी थी।

पर जैसे ही उसने हट्टा कट्टा जानवर उसकी पीठ पर देखा, उसकी खुशी का ठिकाना न था।

“ई कहाँ से पाये गए। एतना बड़ा जनावर। बच्चे देखिहें तो खुस हुई जइहें।”

“पाये नहीं, हम खुददई सिकार किए हैं। बहुत सतावा हमका सरउ। पर हम वह खींचके भाला मारीस, ससुर का नाती वहीं ढेर हुई गवा।”

“बच्चन बहुत दिनन से भुकान हैं। बहुत दिनन बाद भर पेट भोजन पाइहें।” बुधिया ने खुश होकर कहा।

“अच्छा सुन बुधिया, ऐके संभार के धर दे, हम अभइन हवेली जाइके आवत हैं। मालिक बुलाये रहे।”

“तनिक ठहरा, हमौ चलब, हमौका चौका बासन निबटाये का है।”

दोनों जमींदार के घर की ओर चल दिये।

काम निबटा ही रहे थे, जब एक दारोगा भौखलाया हुआ जमींदार के घर पहुँचा।

“साहेब आप बाहर मती निकलना। शहर में दंगा फसाद हो गया है।”

“पर कैसे, दोपहर तक तो सब ठीक था।” जमींदार ने चिंतित हो पूछा।

“पता नहीं साहेब मस्जिद में कोई सूअर का मास डाल गया। बस उसीसे दंगा भड़क गया।”

बुधिया और माधो डरते डरते वहाँ से निकले। चारों तरफ मार काट मची हुई थी। जलती मशालें लिए लोग हरेक के घर जा जाकर खोजबीन कर रहे थे वे दोनों किसी तरह बचते बचाते घर पहुँचे।

“ए बुधिया सिकार संभार के रख दी थी न।” माधो ने घबराहट में पूछा।

“बाकी सब तो संभार के रख दिये और थोडका सिकार पकावे खातिर वहीं अंगाई में मूंदकर धर दिये थे।”

“सत्यानाश ..!”

“का हुई गवा” ,बुधिया ने घबराकर पूछा।

“अरे चल जल्दी।” माधो ने बुधिया को लगभग घसीटते हुए कहा।

घर पहुँचे तो देखा गली के कुत्तों ने मुंदा हुआ माँस नोच नोचकर छितरा दिया था। बुधिया और माधो को काटो तो खून नहीं ।

बवालियों के चिल्लाने की आवाज़ें पास आती जा रही थीं।


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