रावण की सीख
रावण की सीख
"मै रावण हूं मुझसे सीखो", ये सीमा लाँघता सा वाक्य हमारे समाज में पूर्णत: अस्वीकृत है। परन्तु मै अपनी जिज्ञासा के विवश हूं, समझ नही पाती हूं क्यूं ज्ञानी शिव भक्त शक्तिशाली रावण ने सीता का अपहरण किया, बहन का बदला तो सीता के नाक कान काट कर भी लिया जा सकता था।
सर्वप्रथम मामा को स्वर्ण हिरन बना कर पृभु राम द्वारा मुक्ति का मार्ग दिखाया। फिर सीता की सेवा में मन से कोमल स्त्री प्रहरियों को लगाया।
लंका को पवन पुत्र ने अपनी भक्ति और माया से स्वाहा किया तब शिव भक्त मायावी रावण सिर्फ देखता क्यूं रहा।
एक लाख पुत्र और सवा लाख नाती, मैं विज्ञान काल में अवश्य हू परन्तु आध्यात्मिकता से परे नहीं अत: सम्भव - असम्भव के मध्य का भेद करने की आदत से बाज़ नहीं आ सकती। राजा राम अपनी प्रजा को पुत्र सा स्नेह करते थे, तो क्या रावण के वो सवा लाख की गिनती वाले पुत्र और नाती यही प्रजा थी। फिर तो मेरा मन और विचलित हो जाता है क्यूँकि यहां राजा ने अपने पुत्र,नाती, पोते, भाई बन्धु बड़े छोटे सभी की बली देने के पश्चात स्वयं युध्द स्थल की और प्रस्थान किया था।
फिर कहते हैं रावण अपने वचन का पक्का था तो क्या उसने अपने सगे सम्बन्धियो अपनी प्रजा किसी को रक्षा का वचन नहीं दिया था।
क्यूं उसने हरि भक्त पत्नी को कारावास में नहीं डाला, क्यूं विभिषण एवं उसकी पत्नी का वध नहीं किया। सम्पूर्ण राक्षस जाति का विनाश किया या मुक्ति का मार्ग दिया और सबसे अन्त में स्वंय को।
शायद वह यह जानता था कि अब उसके कुल का उद्धार स्वयं प्रभु राम ही कर सकते हैं। वाह! जी नहीं रावण की सोच पर नहीं अपितु अपने तर्क पर वाह, अब जाके जिज्ञासा को एक मार्ग मिला है और शायद समझ पा रही हूं कि पिता के रक्त कणों ने उसे एतिहासिक अन्त का मार्ग दिखाया होगा।
और यदि यह सत्य है तो इस वाक्य में अत्यंत गहराई है और इसे समाज से डरते हुये कुछ संशयों के साथ ही सही परन्तु मेरी 'हां' है।
