पतझड़ की वह शाम
पतझड़ की वह शाम
पतझड़ के दिन यूं तो हर वर्ष आते हैं लेकिन पिछले साल कुछ यादगार शाम लेकर आया लगा जैसे जिंदगी बदलने वाली हैं पर ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे शब्दों में कहा जा सकता था बस महसूस हुआ जैसे पेड़ से पत्ते गिरते ही उनका अस्तित्व खत्म हो जाता हैं,उसे कभी भी, कोई भी, कुचल जाता हैं, तो कभी कोई जला जाता हैं वैसा ही कुछ महसूस हुआ था। अक्सर पेड़ से जुड़े पत्ते बहुत ही खूबसूरत और काम के होते हैं फिर वें गिरते ही बदसूरत कैसे हो गए....?हो गए कैसे लावारिस लाश की तरह...!
यह समझना ज्यादा मुश्किल तो नहीं लेकिन इस तरह लावारिस जीना यकीनन किसी तपस्वी के घोर तप से कम भी नहीं कह सकते । क्योंकि किसी फुदकती चिड़िया का किसी आंगन में यकायक खामोश हो जाना चिड़िया की गलती तो न होंगी, हां
! खुद्दारी की कीमत हो सकती हैं पर इसे समझने के लिए उस आंगन में जाना होगा ...; देखना होगा...; समझना होगा..; पर आज इतना समय और समझ किसके पास हैं जो किसी चिड़ियां पर व्यतीत करें...। ऐसे में चिड़ियां पर दोषारोपण करना बेहतर होगा और परिणाम जल्द मिल जाएगा...उसकी खामोशी का ठीक वैसे ही जैसे पतझड़ के पत्तें...लावारिश...नहीं– नहीं खाक होते हुए ।
यकीनन वह शाम भी जिंदगी की कुछ ऐसी ही थी, मेरे माता– पिता का यूं एक साथ छोड़कर स्वर्ग सिधार जाना और मेरा उसी क्षण समझदार हो जाना ... पतझड़ के मौसम से किसी भी तरह कम न था । क्योंकि उसी शाम से मैं बच्ची न होकर ‘शमा' हो गई । और अब पतझड की हर शाम ‘शमा‘ हो गई ।