मन्दिर का प्रसाद

मन्दिर का प्रसाद

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प्रतिदिन मन्दिर जाना शान्ति जी के स्वभाव में नहीं है। जीवन भर उन्होंने दर्शनशास्त्र का अध्यापक और अध्यापन किया। अतः किसी राधा स्वामी, साँई बाबा, रामशरणम्, निरंकार जैसे गुरुओं या किसी गुरु माँ से दीक्षा लेने में उनका विश्वास नहीं रहा। हाँ, यात्रा करते समय या यूँ ही राह में आने वाले मन्दिर, मस्ज़िद, गिरजाघर या गुरुद्वारे के सामने अनायास उनका शीश झुक जाता है। वे प्रायः शाम के समय टहलने के लिऐ पार्क में चली जाती हैं। संयोग से उस दिन मंगलवार था।

 

अचानक समीपस्थ मन्दिर की घंटियों की कर्णप्रिय ध्वनि ने उन्हें आकर्षित किया तो उनके पाँव बरबस ही मन्दिर की ओर खिंचे चले गये। मन्दिर में चढ़ाये प्रसाद को पुजारी के हाथ से लेकर वापस लौटी, तो ‍‍अँधेरा हो चुका था, पर पार्क में तब भी बच्चे खेल रहे थे। उन्होंने सोचा क्यों न यह प्रसाद बच्चों को बाँट दें। जैसे ही वे पार्क के गेट पर पहुँची, वहाँ दो किशोर मोटरबाईक लिए खड़े थे। शान्ति जी ने उन दोनों को प्रसाद दिया। कुछ और लोग बाहर की ओर निकल रहे थे। उन्हें भी लिफ़ाफे से प्रसाद निकाल कर देने लगी। जैसे ही वे एक लड़के की ओर बढ़ी, उसने उनके गले से चेन खींच ली। छीना-झपटी में उनके हाथ से प्रसाद गिर गया और लड़का भाग निकला।

 

सिवा चीखने के अलावा वे और कुछ नहीं कर सकीं। जैसे-तैसे उनके मुँह से ये बोल फूटें, "क्या यही अहमियत है प्रसाद और आशीर्वाद की।" "तभी बाईक वाले लड़कोंं ने कहा आण्टी आप ठहरो, हम उसे नहीं छोड़ेगें।" कहकर बाईक को किक लगाया और फुर्र हो गऐ।

 

शान्ति जी को यक़ीन हो गया था कि वे लड़के भी उसी के साथी होंगे। क्योंकि उन्होंने सुना भी था और पेपर में पढ़ा भी था कि अक्सर चेन छीनने वाले का साथी स्कूटर या बाईक पर होता है जो लोगों की आँखों में धूल झोंककर उसे फर्राटे से कहीं दूर ले जाते हैं। पर कुछ ही क्षणों बाद वे दोनों लड़के वापस आ गऐ। उनमें से एक ने उनके हाथ पर चेन रख दी और दूसरे ने धीरे से कहा, "आण्टी आपका प्रसाद और आशीर्वाद व्यर्थ नहीं जाऐगा।" शान्ति जी निःशब्द हो गईं और उन्होंने अपने दोनों हाथ उन लड़कों के सिरों पर रख दिऐ।

 


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