Rajendra Kumar Pathik

Others

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Rajendra Kumar Pathik

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मनाली मन में ही रह गयी

मनाली मन में ही रह गयी

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मानव प्रकृति की एक कृति है इसलिए मानव मन का प्राकृतिक सुरम्यता में रमण करना स्वाभाविक है । प्राचीन काल में ऋषियों ने अपनी आध्यात्मिक उन्नति की  सहचरी प्रकृति की गोद का ही सानिध्य प्राप्त कर जीवन के शीर्ष लक्ष्य तक पहुंचने में सफल रहे । इसके लिए उन्होंने पर्वत-कन्दराओं को अपनी साधना का साधन बनाया।

 अब की ग्रीष्मावकाश में मेरा मन हरियाली की चादर ओढ़े, आसमान को छूती सी प्रतीत होतीं पर्वतमालाएं, बर्फ़ की पगड़ी बांधे चमचमाते पर्वत शिखर, पाताल-सी गहरायी लिए घाटियाँ, कलकल-छलछल के मधुर स्वर निनादित करती बहती अल्हड़ नदियां, नाना प्रकार के फूलों से पटी वादियां, अनरवत मधुरतम नाद करते दूध से धवल झरने, नयनाभिरामी वनों के झुरमुट, गगनचुंबी वृक्ष एवं उनकी शाखों पर कलरव करते पक्षीगण ने मोहित कर लिया । ऐसी ही आकर्षण का केंद्र है मनाली। 

 तो बन गई निर्धारित योजना। नयनों से मनाली को निहारने की। निश्चित यात्रा तिथि से 1 दिन पूर्व  पाथेय, उष्ण वस्त्र, कई जोड़ी परिधान व अन्य आवश्यक वस्तुएँ  एक बड़े बैग का भोजन बनने लगी थी। फिर क्या था? चल पड़े अपने गंतव्य की ओर। वाराणसी रेलवे स्टेशन पर 3 जून 2017 को अपराह्न 1:00 बजे से पहले रेलगाड़ी में आरक्षित सीट पर बैठ चुके थे। गाड़ी विलंब होने की वजह से हम प्रातः 9:00 बजे चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन पर उतरे। उतरते ही टूरिज़्म के दलालों ने इस प्रकार घेर लिया जैसे किसी एकल पुष्प को देखकर कई मधुप चारों ओर से गुंजार करने लगते हैं।

" सर कहां का पैकेज लेना पसंद करेंगे? चंडीगढ़, शिमला, कुल्लू, मनाली वगैरह-वगैरह।"

 हाथ में लिए विभिन्न पर्यटक-स्थलों के फोटोग्राफ्स प्रदर्शित करने लगे। जो उनके जीविकोपार्जन का मुख्य साधन है।      चंडीगढ़ 2 दिन रुककर अगले दिन हम लोग ऑटो द्वारा 27 किलोमीटर की दूरी तय करके कालका पहुंचे, तब भगवान अंशुमाली अस्ताचल की ओर गमन कर रहे थे। अगले दिन भोर में टॉय ट्रेन से शिमला चलना है। अतः हम लोगों ने रात्रि विश्राम के लिए एक धर्मशाला लेने की सोची। चूँकि कुछ घंटों का ठहराव था। अतः जेब की गरिमा का ध्यान रखते हुए एक सस्ती धर्मशाला बुक कराई गयी। धर्मशाला में सामानों को छोड़ कालका बाजार में उदरपूर्ति हेतु निकल पड़े। एक भोजनालय में मटर पनीर संग रोटी का ज़ायका लेकर कालका रेलवे स्टेशन की ओर कदम बढ़ने लगे। हो भी न क्यों? क्योंकि टॉय ट्रेन को प्रत्यक्ष देखने की मनोकामना मन में जो हो रही थी। इसलिए कदमों में तीव्र गति होना लाज़मी था। 

स्टेशन पहुंचा तो सहसा मेरे मुख से निकला निकल पड़ा- 

" अरे ! वह देखो ट्रेन का बच्चा। " नैरोगेज की पटरी पर रेंगती पांच डिब्बों की एक 'शिशु रेलगाड़ी'। विश्राम पा रही एक ट्रेन के डिब्बे में कौतूहल बस चढ़ा तो पाया कि दो-दो यात्रियों के बैठने के लिए दोनों साइड की दीवारों से लगी लेटी हुई नरम-नरम सीटें नींद में भांति-भांति के यात्रियों की सुधियों के स्वप्न संसार में विचरण कर रही थीं। ऊपर दीवाल से लगा दोनों ओर लंबा रैक जो सामानों को अपनी गोद में लेने को आतुर बाहें फैलाए प्रतीक्षा कर रहा था। ट्रेन के टिकट के बारे में जानकारी ली गई तो पता चला कि इसका आरक्षण बहुत पहले ही कराना चाहिए था। जैसा कि आमतौर पर अन्य रेलगाड़ियों में होता है । अब तो हम लोगों को अगले ही दिन निकलना है । क्या होगा? तो वहां के स्टेशन मास्टर ने बताया कि जनरल डिब्बे भी होते हैं। उसके लिए आपको आधी रात से ही लाइन लगानी होगी। अब तो हम लोगों की हवा गुम।


मन टॉय-ट्रेन की यात्रा-आनंद लेने, ना लेने के हिंडोले में झूलने लगा । अब क्या होगा ? मैंने अपने अग्रज की ओर प्रश्न उछाला तो उन्होंने अपना दाहिना हाथ 120 डिग्री उठाया और मुझे सांत्वना देते बोले-

 "घबराइए नहीं, सब ठीक हो जाएगा। अब हमें धर्मशाला में रात्रि विश्राम नहीं करनी चाहिए।" 

 मैंने कहा- "क्या मतलब!" 

" हां, अब रात से ही हमें लाइन लगा देनी होगी।"

 खैर, हम लोग थोड़ा विश्राम करके रात 11:00 बजे धर्मशाला छोड़े। स्टेशन पर आकर हम दोनों यात्रियों की पंक्ति में बारी-बारी लगते और विश्राम करते। अंत में 2:30 पर किसी तरह से शिशु ट्रेन में स्थान पाने में सफल रहे । 

अंदर का दृश्य सम्पूर्ण हिंदुस्तान का दर्शन करा रहा था। विभिन्न रूप, रंग, वेशभूषा से भूषित नर नारियों का मेला। कुछ तो सीट पर आसन जमाए थे और सानुरोध आग्रह करने पर भी टस-से-मस ना हो रहे थे। सबका मन पर्वतीय पर्यटन-स्थल देखने की लालसा में इस भीड़ को झेल रहा था। 

अंततः 3:30 बजे पैसेंजर ट्रेन अपने पूर्व निर्धारित गंतव्य की ओर अग्रसित होना आरंभ की। कालका स्टेशन से शिमला स्टेशन के बीच 96 किलोमीटर की यात्रा लगभग साढे़ 5 घंटे में पूरी होती है। यह ट्रेन छोटी-बड़ी तीन दर्जन गुफाओं से होती हुई अधिकतम 20 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से हमें अनेकानेक प्राकृतिक सुरम्यता के आनंद से सराबोर करती जाती। कहीं-कहीं पहाड़ों को काटकर रेल की पटरियां बिछाई गई हैं तो कहीं मनमोहक घाटियों के किनारों पर। ऊँचे-ऊँचे चीड़, देवदार के वृक्ष सैलानियों के स्वागत में खड़े दृष्टव्य हो रहे थे। कभी चढ़ाई तो कभी ढलान से पूर्ण सर्पिलाकार  रेलपथ को देख आश्चर्य हुए बिना नहीं रहा जाता। कभी ट्रेन का इंजन इतना मुड़ जाता था कि वह सबसे पीछे बैठे गार्ड से चालक बातें कर सकता है। बीच-बीच में नन्हें-नन्हें स्टेशन शिशु ट्रेन की मानो आगवानी में स्थित होकर प्रतीक्षा कर रहे हो। अपनी रोमांचक इस टॉय ट्रेन का अंतिम पड़ाव 2075 मीटर समुद्र तल से ऊंचाई पर स्थित शिमला में हुआ। यद्यपि कि हमारे साथ ज्यादा सामान नहीं था बस इतना ही था जितना हम लोग आसानी से ले जा सकते थे क्योंकि अधिक सामान होने से यात्रा कष्टप्रद हो जाती है । जैसे ही हम लोग स्टेशन पर उतरे, हमारे इर्द-गिर्द कुलियों का समूह मंडराने लगा जैसे बारिश के मौसम में शमा की रोशनी के इर्द-गिर्द परवाने मंडराने लगते हैं। उनमें से एक अधेड़ बोला- " साब, हम आपका सामान ले चलेंगे।

"अरे भाई! हम स्वयं अपने सामान को ले जाने में सक्षम हैं ।"

 फिर वह हमें ऊपर ऊंचाई पर स्थित होटल को दिखाते हुए बोला-

 "साब इतने ऊपर चढ़ना है। आप इतने सामान लेकर ऊपर चढ़ेंगे तो थक जाएंगे। "केवल ₹ 20 दे दीजिएगा।" 

अबकी बार वह बड़ी आत्मीयता से बोला। अंततः विवश होकर हम अपने कुछ सामान ले जाने के लिए उसके हवाले कर दिए। आगे-आगे कुली पीछे-पीछे भाई साहब, मैं, भाभी और भार्या। एक लघु मार्ग से चढ़ाइयों को पार कराता वह हम लोगों को एक होटल में ले गया।  होटल वाले ने बताया कि 2 रात, 3 दिन का होटल व गाड़ी-भाड़ा, मनाली तक जाने एवं वापस आने का पूरा व्यय ₹ 23000 होंगे। हमारी जेब से परे यह खर्च था। अतः अन्य होटल में भी बात की गयी। पर सभी ने इसी के आसपास अपना रेट बताया । काफी परेशान होने के बाद हम इस निर्णय पर पहुंचे कि किसी ट्रैवल एजेंसी से बात की जाए। परन्तु अभी ठहरने के लिए कमरा तो चाहिए ही।  फिर एक होटल में कमरा बुक कराकर हम भ्राता-द्वय ट्रैवल एजेंसी से बात करने निकल पड़े। एक ने ₹ 11000 में अल्टो गाड़ी देने पर राजी हुआ । जिसमें शिमला का साइट सीन, कुल्लू, मनाली एवं मार्ग में पड़ने वाले अन्य पर्यटन स्थल शामिल थे। जिसका ₹ 1000 अग्रिम भुगतान करना पड़ा।

  अगले दिन प्रातः 6:00 बजे अल्टो गाड़ी पर सवार हुए। रात से ही शिमला का मौसम ठीक नहीं था। रात में अंधेरे का लिबास ओढ़े, हाथ में तेज प्रकाश उत्सर्जित करने वाले टॉर्च द्वारा यत्र तत्र पहाड़ों, घाटियों को देखते हुए बादलों की आवाजाही लगी रही। साथ में थे गर्जना के भयंकर नाद। ताकि मार्ग में कोई अवरोध न बन सके। वहां का मौसम भी गैर-पहाड़ी क्षेत्रों जैसी शरद ऋतु का अहसास करा रहा था। वर्षा होने से सुबह के वातावरण में ठंड थी। सभी ने अपने आपको गर्म वस्त्रों के आवरण से ढका और तन को उष्णता पहुंचायी।


हम सब भी उन्हीं लोगों में से थे। जिनके मन तो पखेरू की भांति दुर्गम सुदूर पहाड़ों के उच्च शिखर पर जा बैठता है पर तन साथ न देने से सड़क पर स्थूल हुआ केवल उन्हें निहारता रहता है। नि:संदेह पहाड़ी क्षेत्रों का भ्रमण अपने आप में एक रोमांचक एवं अविस्मरणीय आनंद देने वाली होती है। जिस प्रकार किसी गौरांगना के कपोलों पर श्याम तिल, धनुषाकार भृकुटि, कोमल अरुणाभि अधरोष्ठ उसके सौंदर्य में चार चांद लगा देते हैं। उसी प्रकार इस पर्वतीय क्षेत्र की बलखाती कटि रूपी सड़क, प्रसूनों से ओष्ठादि उसके सौंदर्य में वृद्धि कर रहे थे। शिमला की सर्पिलाकार चिकनी गर्तरहित सड़कें जिसकी छाती पर सफेद रेखा गाड़ियों के बाएं-दाएं मार्ग का निर्धारण कर रहे थे। कहीं-कहीं ऐसी सड़कें जिसके किनारे गहरी घाटियां। जहां विराट् वृक्ष भी सूक्ष्मता का बोध करा रहे थे। वहां पर भी जल का स्रोत फेनयुक्त झरना प्रवाहमान हो रहा था।

   ढाल, चढ़ाई और वक्रता के साम्राज्य में हम लोगों का दिमाग भी वक्र होने लगा। फलत: 20 किलोमीटर की वक्राकार यात्रा पूर्ण हुई  ही होगी कि भाई साहब वमन के शिकार हो गये। कतिपय कारणों से जो लोग वमन, चक्कर, मिचली आदि के अधीन रह कर विवशता का दामन नहीं त्यागते। वे लोग ऐसी यात्राओं से मनोवांछित लुफ्त उठाने से महरूम रह जाते हैं। उन्हीं में से हम लोग भी थे। खैर, गाड़ी रोकी गयी। उन्हें जब आराम हुआ तो पुनः यात्रा आरंभ हुई। बारिश और यातायात जाम होने के कारण शिमला की वादियों का जो दृश्य पुस्तकों में लिपिबद्ध और लोगों द्वारा मनोहारी वर्णन सुना गया था उसको देखने में हम लोग असमर्थ हो गए थे। अतः शिमला का वह लुफ्त ना उठा सके जो हमें उठाना चाहिए था। थोड़ी देर में मुझे एवं मेरी भार्या को भी वमन का ग्रास  बनना पड़ा। पग-पग पर मोड़ एवं ऊंची-नीची सड़कों के कारण हम सभी की हालत नाजुक होती चली गयी। चालक से जब गाड़ी धीमी चलाने का आग्रह किया जाता तो उसका एक ही उत्तर होता- " हमें ड्राइव करते समय टोका-टोकी मत कीजिए। अपने हिसाब से गाड़ी चलाने दीजिए।" 

    बात करने पर मालूम हुआ कि आज ही रात-भर गाड़ी चला कर मनाली से लौटा है। अतः हम लोगों को भय भी लग रहा था कि कहीं इसकी आंख झपकी  तो…….। 

अंततः वह झुंझला कर बोला-

 "एजेंसी मालिक से दूसरी गाड़ी ले लीजिए। मैं आपको वापस वहीं छोड़ दूँगा।" 

  लगभग 50 - 60 किलोमीटर की यात्रा कर बारिश में शिमला का कष्टकारी-लुफ्त लेते हुए हम लोगों को वापस वही उतार दिया गया। जहां से हम लोग सवार हुए थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मनाली जाते-जाते हम  लोगों को चिकित्सालय में भर्ती होने की अवस्था हो जाएगी। 


अतः यह निर्णय लिया गया कि अब  वापस घर की ओर रुख किया जाए। वहीं से 2 किलोमीटर की दूरी पर रेलवे स्टेशन था। बारिश में एक कार पर सवार होकर हम सभी स्टेशन पहुंचे तो कालका जाने के लिए टॉय-ट्रेन लगी थी।  टिकट लिया और  सवार होकर शाम को कालका आ गये। 

   शरीर और मन का सामंजस्य न होने से मनाली मन में ही रह गयी। अब देखे भविष्य में कब मनाली को निहारने का सुवसर प्राप्त होता है।



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