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महत्वाकांक्षा

महत्वाकांक्षा

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कालेज से लौट रही थी बस यही उधेड़बुन में थी की बी.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षा करीब है, पता नहीं सुवर्णा कहां लापता हो गयी, उसने कहा था मैं रोज़ तेरे घर पर पढ़ने आऊंगी। लेकिन न उसका फोन आया और न ही वो खुद आई।

इतने में जोर से आवाज आई- “शालू-ओ-शालू रिक्शा रोको”।

जैसे ही पलटकर देखा तो सामने तो सुवर्णा खड़ी थी।

अरे! वाह सुवर्णा मैं तो बस तुम्हारे बारे में ही सोच रही थी। आज ईश्वर से और भी कुछ मांग लेती तो वो भी मिल जाता। कितना सुखद संयोग है जो तुम मिल गई।

अरे! मौसीजी प्रणाम! मैंने आपको देखा नहीं था।

मौसी ने कहा- “तुम दोनों सहेलियाँ आपस में मिल रही थी। देखकर बहुत खुशी हुई। बेटा खुश रहो। बहुत आशीर्वाद मेरा।”

मौसी ने जरा ठहर कर कहा- “शालू, अगले महीने 28 तारीख को सुवर्णा की शादी है, हम घर पर निमन्त्रण देने आयेंगे।”

यह सुनकर मैं आवाक रह गई। ख़ुशी दिखाऊँ या गम कुछ समझ नहीं आया।

मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला “जी मौसी”।

मैंने कहा- “सुवर्णा परिक्षाएं नजदीक है पेपर देना है की नहीं।”

सुवर्णा ने त्वरित उत्तर दिया- “क्यों नहीं? मैं कल घर आ रही हूँ, ढेर सारी बातें करनी हैं।

मन में हलचल सी मच गई इतनी जल्दी शादी  अभी पढ़ने कि उम्र में बेचारी के साथ क्या गज़ब हो रहा है? चलो कोई बात नहीं कल तक तो इंतजार करना ही पड़ेगा। सुवर्णा के मुँह से ही उसकी राम कहानी सुनेंगे।

अगले दिन सुवर्णा आते ही गले लग गई, उसे देख ऐसा लग रहा था जैसे जबरदस्ती समझौता कर रही है। चेहरे पर खुशी का कोई भाव नहीं था।

मैंने कहा- “सुवर्णा इतनी भी क्या जल्दी थी शादी की?”

वो बोली- “शालू क्या करूँ? बाबूजी की तबियत ठीक नहीं रहती इस कारण परिवार वाले जल्दी कर रहे है।”

मैंने कहा– “कौन है वह खुशनसीब जो हमारी सुन्दरी को ब्याह कर ले जाने वाला है?

सुवर्णा ने बड़े ही दबे स्वर में कहा- “बस शादी है इतना जानती हूँ बाकी मुझे नहीं मालूम।”

मैंने कहा- “तुम अब भी मना कर दो, बोलो मुझे अभी पढ़ना है।

सुवर्णा बोली- “नहीं यार, मैं बगावत नहीं कर सकती जो मेरी किस्मत में लिखा होगा वो होगा।”

मैंने कहा- “सुवर्णा क्या तुम रवीन्द्र को भूल गई। घर पर उसके बारे में बात करो, ये रिश्ता अच्छा और मजबूत रहेगा। शादी जल्दी ही करनी है उससे न सही इससे करो, क्या फर्क पड़ता है।”

सुवर्णा बोली– “न बाबा न जिसका ओर न छोर उस बारे में क्या बात करना।”

मैंने कहा– “क्या हुआ?”

सुवर्णा बोली– “वह मुझे बहुत अच्छा लगता है लेकिन कभी उसने अपनी तरफ से इज़हार नहीं किया। शालू मैंने तो निश्चय किया है, माता-पिता जो कहेंगे वही करूँगी, मैं तो इतना ही कहूँगी– “हुई है वही जो रामरचि राखा”।

समय बीता और वह समय आ गया। सुवर्णा की शादी का दिन। हम सब परिवार सहित पहुंचे।

सुवर्णा सुंदर तो है ही और दुल्हन का वेश धारण कर उसमें चार-चाँद और लग गये थे। उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी पर वह मुस्कराहट ऐसी थी जैसे जबरदस्ती ओढ़ ली गयी हो। जयमाला की घड़ी भी आ गयी। जैसे ही दुल्हे राजा पर नज़र पड़ी, हाय राम! ये क्या हो गया?

संगमरमरी रूप पर कालिख पोत दी गयी हो जैसे। रात और दिन का अंतर में क्या देखा इन सबने?  मैं तो मन ही मन बुदबुदा ही रही थी लेकिन पास खड़े लोगों में भी काफी चर्चा थी।

जैसे तैसे विदा कर हम सब अपने घर आ गये। खुशी की बजाय मन भारी  हो गया। बस यही दुआ कर रहे थे “वो खुशहाल रहे”।

मैं अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गई। करीब 15 दिनों बाद उसका फोन आया, “उसने कहा– “शालू, मैं कल ही यहाँ पहुँची। मैं कल दोपहर को घर आ रही हूँ। तुझसे ढेर सारी बातें करनी है।

मैं अपलक दरवाजे को निहार रही थी। जैसे ही वह आई और आते ही वह गले लगकर खूब रोई।

मैंने कहा- “अरे वाह जी आते ही जीजाजी की याद आने लगी; क्या जादू चलाया है उन्होंने हमारी सुवर्णा पर हम भी तो जाने।”

सुवर्णा बोली- “फालतू बातें मत करो, मेरी सुनो।”

मैंने कहा- “सुनाओ तो सही”।

सुवर्णा ने कहा- “ये देखो! ये पैर, ये हाथ!

मैंने जैसे ही उसके गोरे बदन पर काले काले निशान देखे मेरी तो चीख ही निकल गई।

मैंने कहा- “ये सब क्या है? अब यदि तुम्हें अक्ल आ जाये तो मत जाना वापस और अपनी माँ को सब बता देना।”

सुवर्णा  ने धीरे से कहा- “कोशिश करूँगी”।

एक बात और बताना चाहती हूँ, यहाँ आते वक़्त रवीन्द्र मिला था रास्ते में ! उसने सिर्फ इतना कहा- “तुमने एक बार तो मुझे बात की होती, इंतजार किया होता?

सुवर्णा बोली- “मैंने उससे कहा, तुमने इज़हार भी तो नहीं किया था?”

वो बोला- “तुमसे मिलना, बातें करना, तुम्हारे घर आना, घंटों बैठना बातें करना ये सब तो मुझे अच्छा लगता था। मैंने सोचा तुम समझ गई होगी मेरे दिल का हाल।”

सुवर्णा बोली- “मैंने कहा, अब इन बातों का कोई अर्थ नहीं हैं, वक़्त जरूरत पर तुमने हमारे परिवार की मदद की इसके लिये धन्यवाद।”

“हम, हमसफ़र न सही एक अच्छे दोस्त हैं और रहेंगे।”

सुवर्णा बोली- “शालू ये सब सोचकर मन व्यथित होता है, काश मैंने उसके मन की बात जानी होती?”

मैंने कहा- “कोई बात नहीं, अब पहले घर पर जाकर यह सब बातें मम्मी जी से करो फिर फैसला करो की क्या करना है। और फ़िलहाल अभी पढ़ाई कर परीक्षा दो, जिसके लिये आई हो तुम!

जैसे ही सुवर्णा की परीक्षा समाप्त हुई उसी दिन जीजाजी उसे लेकर चले गये।

इसका मतलब अब सारी जिन्दगी उन्हीं को होम कर दी, नहीं बोल पाई अपने साथ हुए अत्याचार को। अपनी महत्वाकांक्षा को अपने मन में दबाये चली गई किसी कैदी की भांति।

समय बीतता गया और बहुत वर्षों तक हमारा मिलना–मिलाना नहीं हुआ। हम भी बहुत दूर चले गये। सोचा सब अपनी अपनी दुनिया में मस्त हैं। सुवर्णा भी अच्छी ही होगी।

“एक दिन अचानक फोन आया। मैं बहुत खुश थी। लम्बे अरसे के बाद बहुत बातें हुई पता चला बच्चे तो बड़े हो गये है, सब अलग अलग शहर में है। उसकी आवाज में आज भी परेशानी की झलक साफ़ समझ में आ रही थी।

मैंने कहा- “सुवर्णा, कभी मिलेंगे तो खुलकर बातें करेंगे।”

सुवर्णा ने कहा- “मैंने फोन इसीलिये तो किया है, मैं जल्दी ही तुम्हारे शहर आने वाली हूँ, मेरा इलाज चल रहा है।”

मैंने कहा- “अरे! क्या हुआ सब ठीक तो है, किसका इलाज चल रहा है?”

सुवर्णा ने कहा-  “पता नहीं क्यों सिरदर्द होता है। ये यहाँ के डॉक्टर को बताना है।”

मैंने कहा- “अच्छा ठीक है, तुम अपनी जांच करवाकर जब समय मिले तो जरूर आना हम मिलकर ढेर सारी बातें करेंगे।”

कुछ समय पश्चात सुवर्णा के आने का प्रोग्राम बना। दिन निश्चित हुआ और वह सपरिवार हमारे घर आयी। बरसों बाद सबसे मिल बहुत अच्छा लगा।

सुवर्णा आज भी वैसी ही सुंदर है पर कुछ मोटी हो गई और चेहरे पर थोड़ी सी झाइयाँ नजर आ रही थी। जिससे साफ झलक रहा था कि वो आज भी परेशान है। सिर्फ संबंधों को ढोये जा रही है। समाज की, परिवार की खातिर।

मैंने कहा सुवर्णा आओ अन्दर चलते है, यहाँ ये लोग अपनी बातें करते हैं। हम लोग अन्दर अपनी बातें करते हैं।

अन्दर आकर मैंने कहा- “अब अपनी आप बीती कहो देवी, नहीं तो पतिदेव भी तुम्हारे यहीं आ गये तो हो चुकी बातें।”

सुवर्णा बोली- “क्या सुनाऊँ? 25 साल जिन्दगी के इन्हें होम कर दिए लेकिन आज तक इन्होंने हमें नहीं समझा। पहले से थोड़ा सुधार है। जैसे मार-पीट नहीं करते। मैंने सारी जिन्दगी घुट घुट कर जी है... इतना कहते-कहते वह सुबकने लगी।

मेरी सारी महत्वाकांक्षाएं अधूरी रह गई... मेरे सारे सपने हवा हो गये... काश मैंने तुम्हारी बात मानी होती तो आज ये दिन न देखना होता।

मैं अगर इनसे बिना पूछे कुछ कर लेती हूँ, ये चार-पांच दिन तक बात नहीं करते। भगवान का लाख लाख शुक्र है कि मेरे दोनों बेटे बहुत समझदार और मेरा ध्यान रखने वाले हैं। कुछ समय बाद बहू आ जायेगी मैं सोचती हूँ, अब तो सुधर जायें, लेकिन नहीं। ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ बच्चे अब सैटल हो गये हैं, ईश्वर मुझे उठा ले।”

मैंने कहा- “अरे! सुवर्णा ऐसा नहीं कहते। तुम्हारे पास भाव है, भाषा है। तुम पहले अच्छा लिखती थी, छपती भी थी अखबारों में। अपना मन बेकार की चीजों की बजाय लेखन में क्यों नहीं लगाती। चिन्तन करो अच्छे विचार आएंगे मन भी लगा रहेगा।”

सुवर्णा बोली- “शालू, तुम्हारी बात में दम तो है, मैं कोशिश करूँगी।”

एक माह बाद सुवर्णा की एक कहानी मेरे पास आयी, उसे पढ़कर बहुत अच्छा लगा। उसे मैंने एक पत्रिका में छपने को दी। मेरे मन ने कहा- चलो कम से कम उसने लिखना तो शुरू किया।

धीरे धीरे ये सिलसिला चलता रहा और बढ़ता ही गया। उसकी कहानियां, आलेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। उसका नाम आज की लेखिकाओं में प्रकाश में आने लगा। उससे बातचीत से मालूम हुआ आगामी समय में उसका उपन्यास आने वाला है। नाम है “महत्वाकांक्षा”।

कुछ समय पश्चात उसका फोन आया। हैलो शालू- ”कैसी हो? शालू तुम्हें यह बताना है मेरे उपन्यास का लोकार्पण होने वाला है और तुम जीजाजी के साथ जरूर आओगी।”

मैंने कहा- “ठीक है हम जरूर आयेंगे।”

वह बोली- “प्रोग्राम लखनऊ में है। तुम्हारे आने पर ही लोकार्पण होगा।“

मैंने कहा– “ठीक है! तुम चिन्ता मत करो हम जरूर आयेंगे।”

मैंने अपने पतिदेव को सारी बातें बताई और निश्चित तारीख को हम लोग लखनऊ पहुँच गये।

प्रोग्राम में पहुँचकर क्या देखती हूँ। हमारे जीजाजी सबकी आवभगत कर रहे हैं। पत्नी के आगे पीछे घूम रहे हैं। जो आदमी अपनी पत्नी से सीधे मुँह बात नहीं करता था, आज दुम हिला रहा है। मैंने इनसे कहा– “देखो जी, ये क्या चमत्कार है। आज जो रूप है जीजाजी का ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा।”

हम लोग सुवर्णा से मिले। उसे बधाई दी।

कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। उपन्यास का लोकार्पण हुआ। जब सुवर्णा के वक्तव्य की बारी आई तो उसने अपने वक्तव्य में कहा– “आज मैं इस मुकाम तक पहुँची हूँ तो सिर्फ शालू की ही वजह से, वह मेरी प्रेरणा है। मैं तो रास्ता भटक गई थी, मुझे सही राह इसी ने दिखाई। लगता है अब मेरी “महत्वाकांक्षा”। पूरी हो गई है। शालू कृपा करके मंच पर आओ- मैं तुम्हारा अभिनंदन करना चाहती हूँ।”

जैसे ही मैं मंच पर पहुँची उसने मुझे गले से लगा लिया और शाल श्रीफल से मेरा अभिनंदन किया।

सुवर्णा ने कहा- शालू! तुमसे अनुरोध है दो शब्द तुम भी कहो।

मैंने कहा– “मैं तो सिर्फ एक माध्यम थी रास्ता बताया। लेकिन मेहनत तो सुवर्णा ने की है, मैं अक्सर उसे परेशान हताश देखती थी तो मन मायूस हो जाता है। सोचती थी इतनी बुद्धिमान लड़की की ये क्या दशा हो गयी है। ये मेरा छोटा सा प्रयास है। सुवर्णा के पास अच्छे वर्ण है। शब्द भंडार है। उसका सपना साकार हो गया। जीवन में व्यक्ति जो कुछ चाहता है वो सब उसे नहीं मिलता, सारी “महत्वाकांक्षाएं” पूरी नहीं होती। लेकिन ईश्वर ने प्रसाद स्वरूप जो कुछ भी सुवर्णा को दिया है। वह अक्षुण्ण है। उसे लगता है उसकी “महत्वाकांक्षा”। पूरी हो गयी है।

 


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