लघुकथा:मुर्गा
लघुकथा:मुर्गा
वे एक बार फिर अपने आदिवासी बहुल क्षेत्र से विधायक चुने गए । मंत्री पद मिला तो गांव छोड़कर दूर राजधानी में सरकारी बंगले में शिफ्ट होना था ।
आवश्यक सामान गाड़ी में रखा जा रहा था । कुछ मुर्गे न ले जाइयेगा.....आप तो रोज मुर्गा की बांग से ही उठते है.. - मंत्रीजी की पत्नी ने कहा ।
"का कह रही हो....बुड़बक हो का ? अब मंत्री हो गए है थोड़ा स्टेटस मेंटेन नहीं न करना होगा.. वहाँ ई सब नहीं चलेगा" पत्नी हठ के आगे किसकी चली । एक हष्ट पुष्ट मुर्गा भी साथ में रख दिया गया ।
मंत्रीजी "सांई इतना दीजिये जामे कुटुंब समाय" की अवधारणा वाला मानस रखते थे । खेती बाड़ी पशुधन आदि होने से वे अपने क्षेत्र में साधन सम्पन्न माने जाते थे फलतः एक मुर्गा उन्हें रात के खाने में अवश्य परोसा जाता था । यही लत शरीर के साथ राजधानी भी चली आयी थी ।
राजधानी पहुंचने के दिन ही मंत्रीजी अपने पीए के कान में फुसफुसाए - "देखो जो भी व्यक्ति काम करवाने आए उनका काम करना है बस्स.. इतना ध्यान रखना की एक मुर्गे का बंदोबस्त हो जाये इससे ज्यादा कुछ नही और गरीब व्यक्ति से तो बिल्कुल नही...समझे ।"
कर्तव्यनिष्ठ पीए काम करवाने आये लोगों में बड़ा आसामी देखता और एक मुर्गे की राशि वसूल लेता ताकि रात के खाने में मंत्री जी को मुर्गा परोसा जा सके ।समय की गति ने इसे दस्तूर बना दिया ।मंत्रीजी गांव से लाये गए मुर्गे की बांग से ही सुबह आँखे खोलते । नित्यकर्म कर उसे दाना पानी देकर अपने मंत्रीय कार्यों में जुट जाते ।
ऐसे ही किसी रोज सबेरे से मूसलाधार अनवरत बारिश हो रही थी । बंगला सुनसान । शाम तक काम करवाने वाला एक व्यक्ति तक नहीं फ़टका ।
इधर जैसे जैसे शाम गहराती जा रही थी वेसे वेसे पीए और खानसामा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी । चिंतातुर दोनों ने एक दूसरे की आँखों में देखा और बिना शब्दों के संवाद हो गया । मंत्री जी के लिए रात का खाना तैयार हो गया । मंत्री महोदय ने डटकर भोजन किया ।
अगले दिन देर सुबह तक मंत्रीजी खर्राटे ले सो रहे थे ।
उस दिन उन्हें अपने मुर्गे की बांग जो नहीं सुनाई पड़ी ।