लगान
लगान
साहिब
रोमा और उसकी आठ साल की बच्ची सारा दिन इधर -उधर सड़क -गलियों से कबाड़ ढूंढ- ढूंढ के बेचा करती थी और अपना गुजारा करती थी। कबाड़ ढूंढना ....यही उनकी दिनचर्या का हिस्सा थी। रोमा दसवीं पास थी। हालात ने उसे दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया था ।काम की तलाश में गांव से वह शहर आ गई थी अपने पति के साथ लेकिन कोरोना काल में कुछ भी काम मुश्किल से मिल रहा था। इसलिए अब कचरा बीन कर घर का गुजारा चला रहे थे।
दो वक्त का खाना भी नसीब नहीं हो रहा था ऊपर से काम पर निकलो तो कोरोना की वजह से पुलिस वाले डंडे मार कर भगा रहे थे। अक्सर वह खुली आंखों से सपना देखती थी, चाहती थी कि उसकी बेटी भी पढ़ -लिखकर एक बड़ा अफसर लगे। क्योंकि गरीब की कोई इज्जत नहीं होती वह जानती थी। कोरोना काल मे बेटी अब स्कूल भी नहीं जा पा रही थी। शाम को घर आकर वह उसे पढ़ाती।
एक दिन कबाड़ ढूंढते और इकट्ठा करते हुए कचरे के ढेर से उसे पुलिस इंस्पेक्टर की पुरानी फेंकी हुई टोपी मिली। उसने टोपी को थैले में डालाऔर मन ही मन सोचते हुए खुशी-खुशी घर की ओर चल पड़ी उसके मन में अपनी बेटी को कुछ देने का चाव था।
वह सोच रही थी जब उसे दिखाऊंगी तो वह कितनी खुश होगी शाम को बेटी को पढ़ाते हुए उसे सुबह की अपने थैले में रखी हुई टोपी याद आई वह उठी और टोपी लेकर आई और उसे बेटी के सिर पर रख दिया दोनों हंसने लगी दोनों एक दूसरे की आंखों में तैरते सपने को देख रही थी।दोनों बहुत खुश थी।
"हुकम साहब "जी कहकर अपनी बेटी को सैल्यूट किया। दोनों फिर से हंसने लगी। मानो सपने को सच होता देख रही हो।