"कुर्सी बोल रही हैं..."
"कुर्सी बोल रही हैं..."
काम निपटाकर रामा काका अपने घर लौट आए। लेकिन वे आज भी उतने हंसमुख नहीं थे जितना हर रोज हुआ करते थे । वह अपने कमरे में आए, मेज पर पड़ी किताब को देखा, लेकिन उन्होंने आज उसे पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और अपनी आँखें बंद करके अपनी कुर्सी पर बैठ गए। अब उनकी उम्र भी जवाब देने लगी थी,लेकिन उसके सिर पर जो जिम्मेदारी थी, वह पूरी नहीं हो रही थी।
अचानक खिड़की हवा के झोंके से खुल गई ,कमरा प्रकाशित हो गया। अचानक रामा काका के पास तेजपुंज फैल गया ,किताब के पन्ने हवा के साथ बहने लगे, कमरे की खिड़कियां बिखरने लगीं और फिर अचानक सन्नाटा पसर गया। माहौल की खामोशी ने जैसे रामा काका की कुर्सी में प्राण डाल के पूरी तरह से हिला गई थी। कुर्सी की निर्जीवता छलक गई, "परिवार की सुबह कैसी होगी ?"