कहानी जो कही ही नहीं गयी
कहानी जो कही ही नहीं गयी
आज वह ऑफिस से घर लौटी, तो बहुत खुश थी। पेड़ों के पत्ते मस्ती में झूम रहे थे। हवा गुनगुना रही थी। बागीचे के फूलों ने मुस्कुरा कर उसका स्वागत किया। उसने जब फूलों को प्रेम से सहलाया, तो वे खिलखिला उठे। उनकी हँसी से मन के साथ-साथ उसके घर का कोना-कोना भी चहक उठा था। ड्राइंंग रूम में बैग टेबल पर रख, अखबार लेकर वह सोफे पर बैठ गयी और उसके पन्ने पलटने लगी। उफ्फ़ ! ये रोज-रोज हिंसा, मार-काट, हत्या, दुर्घटना की मनहूस खबरें ! उसने अखबार टेबल पर रख दिया और उठकर बालकनी में आ गयी। बाहर मंद - मंद हवा चल रही थी। हल्की बारिश के बाद धूप निकल आने से मौसम बड़ा सुहावना हो गया था। बालकनी में वह रेलिंग के सहारे खड़ी हो गयी और खुशी में झूमते पेड़ों, रंग-बिरंगी तितलियों और चहचहाते पक्षियों से बातें करने लगी। आसमान में उन्मुक्त विचरण करते बादलों को देखने लगी.....बादलों के उन टुकड़ों में कुछ आकृतियाँँ उभरने लगी थीं....।
अलग - अलग परिवेश से आने वाले रोहित और अविनाश शायद कभी जिगरी दोस्त नहीं बने होते, अगर अविनाश ने रोहित की मदद न की होती। गणित रोहित के लिए ऐसा विषय था, जिसमें वह अक्सर फेल हो जाया करता था। ऐसा नहीं था कि वह कमजोर या लापरवाह स्टूडेंट था, मगर गणितीय फार्मूले, प्रविधियाँँ, प्रमेय और समीकरणों को सुलझाने में वह खुद ही बुरी तरह उलझकर रह जाता था। पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। पाठ्यक्रम में गणित विषय की कोई उपादेयता उसे नजर ही नहीं आती थी, और हताश, निराश होकर वह उसे जहाँ - का - तहाँ छोड़ देता था। परिणामत: उसकी मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं, और बोर्ड परीक्षाएँ सिर पर थीं। अविनाश ने उसकी परेशानी समझी और क्लास में, और टिफिन में, जब भी उसे मौका मिलता, वह रोहित को सवाल हल करने के तरीके आसान करके बतलाता। जटिल स्टेप्स को समझाता। प्राब्लम्स का लॉजिक बताता और उन्हें खुद साल्व करने की बजाय उससे साल्व करवाता। उससे खूब प्रैक्टिस करवाता। ढेर सारे सवाल बनवाता और अक्सर कहता कि " प्रैक्टिस मेक्स ए मैन परफेक्ट "। तर्कों से रोहित अविनाश को बताने, समझाने और साबित करने की कोशिश करता कि व्यावहारिक जीवन की जटिल समस्याओं, गुत्थियों को ही सुलझाने की मानसिक तैयारी है गणित का पाठ। इन सबका परिणाम ये रहा कि बोर्ड परीक्षा में गणित में अविनाश को भी काफी अच्छे अंक आए और रोहित के साथ वह अपने स्कूल में सेकंड टॉपर बना। समर्पण, सहयोग, विश्वास, प्रेम, अपनत्व का फिर तो ऐसा प्रगाढ़ गठबंधन बना कि दोनों ने एक ही कॉलेज में एडमिशन लिया। एक ही हॉस्टल में, एक ही कमरे में साथ-साथ रहे। अपने जीवन के सुख-दु:ख बाँटे, एक-दूसरे के हमराही बनकर। साथ मिलकर प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी की। कैरियर के बहुविधि संघर्ष मेें हर कदम पर वे साथ रहे। अचानक पिताजी के अस्वस्थ हो जाने के कारण रोहित को अपना पुश्तैनी बिजनेस सँभालना पड़ा। इसलिए वह यहीं रह गया। गाँव से आने वाले अविनाश का सेलेक्शन जब लेक्चरशिप में हुआ, तो अविनाश से ज्यादा खुशी तो रोहित को ही हुई थी। जमकर पार्टी की थी उस दिन दोनों ने। एक-दूसरे पर जान निछावर करने वाले दो दोस्त न चाहते हुए भी तब जुदा हुए, जब अविनाश की पोस्टिंग दूर दूसरे शहर में हो गयी। चार वर्ष बाद जब अविनाश का तबादला इसी शहर में हुआ, तो रोहित की खुशी का पारावार न रहा। रोहित ने अपने ही मोहल्ले में उसे फ्लैट दिलवाया। बचपन के दोस्त जब मिले, तो पुरानी यादें एक बार फिर से ताजा हो आईं। फिर शुरू हो गया रोज सुबह-शाम का मिलना, बैठकी, यादों की वो गलियाँ, हँसी-ठहाके, होली-दिवाली और जीवन की उमंग और मस्ती। जीवन में खुशियों के न जाने कितने-कितने इंद्रधनुष उग आए हों जैसे। एक-दूसरे से मिले बिना तो दोनों दोस्तों का दिन ही नहीं गुजरता था। सुरभि इन दोनों का अटूट प्रेम देखकर अघाती नहीं थी। हर पल वह अपने इष्ट से प्रार्थना करती कि इनकी दोस्ती को किसी की नजर न लगे। एक दिन सुरभि ने बातों-ही-बातों में रोहित से कहा था कि कोई अच्छी-सी लड़की पसंद कर उसे भी अब शादी कर लेनी चाहिए। मगर, यह कहकर कि " कर लूँगा न भाभी। " रोहित ने बात को हँसकर टाल दिया था। बात आई - गयी हो गयी थी। उसे याद है जब नीलू पैदा हुई थी, तो बहुत खुश हुए थे दोनों और बड़े धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया गया था उन्होंने। खूब नाचे - गाए थे दोनों उस पार्टी में। जीवन मानो पंख लगातार उड़ रहा था।
उस दिन कॉलेज के दोस्तों के साथ बरगी डैम पर पिकनिक का प्रोग्राम था। दोनों साथ ही तो निकले थे। मगर शाम को लौटते वक्त उनकी कार हाइवे पर....!बदहवास-सी जब वह हास्पिटल पहुँची, तो खून से लथपथ रोहित को एक स्ट्रेचर उतारते देखा, जिस पर अविनाश थे....बुरी तरह घायल व अचेत ! उसका मन चीत्कार कर उठा। मगर चीख गले में ही घुटकर रह गयी। अविनाश को जल्दी से आईसीयू में ले जाया गया। मगर अनहोनी होकर रही और अविनाश....! वह जड़ हो गयी.. निर्जीव, संवेदनाशून्य ! एक ही पल में जैसे सब कुछ खत्म हो गया था। सामने था धुप्प अँधेरा और उस अँधेरे में विलीन होता उसका जीवन....! इस हृदयविदारक दुःख के समय और कोई था भी तो नहीं उसके आस-पास, रोहित और उसके मम्मी-पापा के सिवा, जिन्होंने उसे ढाढस बँधाया। अपनी नीलू के लिए उसे जीने का साहस और हौसला दिया। अब नीलू ही उसका वर्तमान और भविष्य सब कुछ थी। अविनाश के कॉलेज में ही उसे नौकरी मिल गयी, तो जिंदगी अपनी गति से चल पड़ी। वह दिन भर खुद को व्यस्त रखकर सबकुछ भूलने की कोशिश करती। मगर शाम को जब वह घर लौटती, तो शाम के साये में अतीत की स्याह परछाइयाँ आ-आकर बार-बार उसके पाँवों से लिपट जातीं। अविनाश की फोटो के पास खड़ी होकर वो देर तक रोती। रोहित सुरभि को उदास देखता, तो अक्सर उसके अंदर कुछ दरक जाता। निराशा के घनेरे बादलों को उससे परे रखने, उसे खुश रखने, व्यस्त रखने की पूरी कोशिश करता वह। अक्सर समझाता उसे कि जीवन की सार्थकता दर्द बाँटकर खुशी देने और पाने में है, सब कुछ खो देने में नहीं। रोहित के इसी भावनात्मक मनोबल ने सुरभि को आत्मविश्वास की जमीन दी और उम्मीदों का विशाल आसमान दिया, जहाँ वह पर फैलाकर उड़ सके....। जब वह कॉलेज जाती, तो नीलू को रोहित के घर पर छोड़ जाती। कभी या तो रोहित नीलू को लेने आ जाते, कभी उनकी मम्मी। नीलू रोहित के घर जाती, तो उनके मम्मी-पापा का दिल भी बहल जाता। मम्मी जी नीलू का पूरा ख्याल रखती थीं। वे उसे खिलाती-पिलातीं-बहलातीं। पापा जी घोड़ा बनकर नीलू को सारा घर घुमा आते। नीलू भी दादा-दादी का प्यार पाकर चहकती, खिलखिलाती, खुश रहती। पूरा दिन बीत जाता। नन्हीं नीलू की हँसी से रोहित के सूने घर का कोना-कोना बिहँस उठता। नीलू जब ढुमक-ढुमककर चलती, तो उसकी पायल की छन-छन से घर-आँगन में सुर-लहरियाँ बज उठतीं। जब वह मुस्कुराती, तो चारों ओर रोशनी-ही-रोशनी फैल जाती। नीलू जब स्कूल जाने लायक हुई, तो उसके एडमिशन के लिए बर्थ सर्टिफिकेट बनवाना एक दुरूह कार्य था। पहले काउंसिलर से लिखवाओ, फिर म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में आवेदन देना, उसके बाद एसडीएम ऑफिस के कई-कई चक्कर...। रोहित अपना बिजनेस छोड़कर कई-कई दिनों तक दोनों दफ्तरों के चक्कर लगाते रहे। तब जाकर एक महीने बाद नीलू का बर्थ सर्टिफिकेट मिला। फिर नीलू का एडमिशन, किताबें, यूनिफॉर्म और ढेर सारी औपचारिकताएँ । रोहित सामने न होते, तो न जाने कैसे कर पाती वह... ! इंजीनियरिंग के लिए जब नीलू का सेलेक्शन हुआ, तो उसे दूसरी जगह भेजने को तैयार नहीं थी वह। अपने कलेजे के टुकड़े को, अपने जीवन को खुद से वह कैसे अलग कर सकती थी भला ? पर उसके भविष्य की खातिर, बड़ी मुश्किल से उसने अपने हृदय को कड़ा किया था और दूसरे शहर भेजने को तैयार हुई थी। मास्टर्स के लिए स्कालरशिप पर नीलू अमेरिका गयी। मास्टर्स के बाद उसे वहीं जॉब ऑफर मिल गया, तो नीलू वहीं रम गयी। अपनी नौकरी में व्यस्त हो गयी। फोन पर, वीडियो कांफ्रेंसिंग से रोज माँ-बेटी की बातें होतीं। नीलू माँ को अपनी कंपनी, अपने प्रोजेक्ट के बारे में, अमेरिका के बारे में, वहाँ के लोगों, उनके रहन-सहन, वहाँ की खूबसूरती के बारे में डिटेल में बताती, उसे अमेरिका घुमाने की बातें करती। मगर नीलू को देखे बिना, भला बातों से कहाँ जी भरता था एक माँ का ? ऐसे ही विडियो कांफ्रेंसिंग में एक बार नीलू ने उसे अभि से मिलवाया था और शादी की अनुमति माँगी थी। वह तो ममतामयी माँ थी, जो अपनी जान से प्यारी बेटी की खुशी के लिए अपनी सारी खुशियों का त्याग करने को तैयार बैठी थी ! और आज....वर्षोंं बाद उसकी लाड़ली नीलू इंडिया वापस आ रही थी, अपने पति के साथ...।
" पीं...पींं...। " कार के हॉर्न की आवाज सुनकर वह पीछे मुड़ी, तो सामने रोहित खड़े थे। बोले - " प्लेन का समय हो रहा है। एयरपोर्ट चलें ? "नीलू के बचपन की यादों में डूबी वह कब एयरपोर्ट पहुँच गई, पता ही नहीं चला। प्लेन लैंड कर चुका था। वे जब लाउंज में पहुँचे, तो सामने अपने फेवरिट नीले सलवार-शूट में नीलू दिख गयी। " मम्मी...मम्मी " चिल्लाती हुई नीलू वहीं से दौड़ पड़ी और आकर माँ की छाती से लिपट गयी। बरसों बाद बेटी को देख माँ का कलेजा जुड़ा गया जैसे, और मन का पोर-पोर भींग गया। सुरभि ने नीलू के गालों को छुआ, तो हथेली गीली हो गयी। नीलू की आँखों से बहते आँसुओं को सुरभि ने अपने आँचल में समेट उसके ललाट को स्नेह से चूम लिया। भरे नयनों से उसे निहारने लगी। ममता का सागर आज वह उड़ेल देना चाहती थी अपनी लाड़ली नीलू पर। तभी उसकी नजर बगल में खड़े अभि की ओर गयी। वह पास आया और उसके पैरों पर झुक गया। माँ ने दामाद के सिर पर ममता भरा हाथ रख, उसे जी भरकर आशीष दिया। अभि की गोद में दुबकी गुड़िया न जाने कब से अपनी मम्मी को देखे जा रही थी। नीलू ने उसे अभि की गोद से लेकर माँ की गोद में थमा दिया - " लो सँभालो अपनी नातिन को। " नानी ने बिल्कुल नीलू की प्रतिरूप अपनी नतिनी को देखा और उसे बेतहाशा चूमने लगी। पास में ही काले कोट में, चश्मा लगाये रोहित अंकल खड़े थे। अभि के साथ नीलू रोहित अंकल की ओर बढ़ गयी। दोनों ने उनके पाँव छुए, तो रोहित ने उन्हें सीने से लगा लिया। उनकी आँखें भी गीली हो गई थीं और गला भर आया था। नतिनी को गोद में लिए हुए सुरभि ने नीलू और अभि की ओर देखा और रोहित की ओर इशारा करते हुए गुड़िया से कहा - " देखो, तुम्हारे नानाजी..। " रोहित ने बाहें फैलाईं, तो नन्ही गुड़िया उनकी गोद में समा गयी। उनकी गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बाहें लपेट लीं। उधर नीलू भी रोहित अंकल को अपने से अलग करने को तैयार ही नहीं थी। " ये मेले नानू हैं.." गुड़िया ने कहा, तो नीलू भी बोल पड़ी - " ये मेरे पापा..."। " पापा " ....नीलू के मुँह से अनायास निकला यह शब्द रोहित के कानों से होकर उनके हृदय में उतर गया, और सुरभि की रूह में समा गया...। भावनाओं के प्रबल प्रवाह में, वर्षों बाद.... अनकहा, आज अभिव्यक्त हो गया था। मन के स्निग्ध उजाले के समक्ष आज चाँद की चाँदनी भी फीकी पड़ रही थी। आज इसी एक पल में संसार का सारा सुख सिमट आया था। सबकी आँखों में खुशियों के मोती चमक रहे थे। जिन रोहित अंकल की गोद में खेलकर उसका बचपन गुजरा था, उनमें नीलू को अपने पापा का ही तो प्यार और अक्स नजर आया था ! सच ही कहते हैं....सृष्टि और नियति कभी भी इतनी बेरहम नहीं होती कि इंसान को उसकी खुशी तक न दे सके !सूखी हुई शाखों पर बरसों बाद हरी कोंपलें फूट आई थीं। फिजाँ के सारे फूल मुस्कुरा उठे थे और हवाओं ने संगीत-राग शुरू कर दिया था। कुदरत की भरपूर नियामत बरसी थी आज उस घर - आँगन पर...वर्षों बाद। उसकी दहलीज पर खुशियाँ एक बार फिर से लौट आई थीं...वर्षों बाद !