Manoj Kumar Jha

Others

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Manoj Kumar Jha

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जागृति

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“देख, बेटा! यहीं छाँव में बैठना। इधर-उधर मत जाना।“ रमरतिया ने अपने आठ-वर्षीय बेटे रोहित को हिदायत देते हुए कहा और फिर गेहूँ की फसल काटने में अन्य मजदूरों के साथ तल्लीन हो गई।

रमरतिया का पति कोलकाता के तेल-मिल में काम करता था। चार-छ: महीने में कुछ दिनों की छुट्टियों पर घर आया करता।थोड़ी देर पश्चात् ही पास के खलिहान में शोरगुल सुनाई दिया।

"अरे, मेरा रोहित कहाँ चला गया? यहीं तो मैंने छाँव में बिठाया था।" जबतक रमरतिया कुछ समझ पाती, धूल में सने कुछ बच्चे रोहित को पकड़ते हुए उसके पास ले आए। साथ में, मालिक राघव का घरेलू सेवक रामा भी था जो खलिहान में कटे हुए फसलों की देख-रेख कर रहा था।

"देखो, रमरतिया! रोहित ने अमीष को पटककर मारा है। उसके शरीर में जगह-जगह खरोंचें आई हैं जिनसे खून रिस रहा है और बेचारा दर्द से कराह रहा है।" साथ आए बच्चों ने रामा की हाँ में हाँ मिलाईं।

रमरतिया सन्न रह गई। "क्या कहा? अमीष को मारा!" छोटे मालिक राघव जी के बेटे को!! रमरतिया ने बिना कुछ सोचे रोहित के गाल पर दो तमाचे जड़ दिए। फिर खुद भी रोने लगी।

मालिक और मलकाईन भी हंगामा सुनकर पहुँच गए। मलकाईन कुछ बोलना चाह रही थीं किंतु मालिक राघव ने इशारे से उन्हें मना कर दिया। अमीष को साथ लेकर वे वापस चले गए। जाते-जाते घंटेभर-बाद रमरतिया को रोहित के साथ घर पर मिलने का आदेश जारी कर गए।

वस्तुत: आज छुट्टी का दिन था। स्कूल बंद होने के कारण मौका पाकर आसपास के बच्चों ने कबड्डी खेलने का मन बना लिया था। चुपके-से अमीष भी इसमें शामिल हो गया। राघव की छान-बीन में पता चला कि अमीष की यह चोट उसी खेल का स्वाभाविक प्रतिफल थी।

धड़कते हृदय से रोहित का हाथ थामे रमरतिया छोटे मालिक के समक्ष अपराधी की भाँति नतमस्तक खड़ी थी। उसे लग रहा था कि अब तो मालिक के खेत में मजदूरी से भी गई और रोहित के साथ पता नहीं गाँव के स्कूल में क्या सलूक हो! आखिर मालिक का गाँव में ही नहीं, पूरे इलाके में रुतबा था।

"रमरतिया! मुझे बहुत दु:ख है…….कि तूने अकारण ही अपने बेटे को तमाचे जड़ दिए।

और, रामा! तू अमीष को हमारे पास लाने के बजाय रमरतिया से शिकायत करने चला गया? बेबकूफ कहीं के!"

पलभर को सन्नाटा पसर गया।

“नहीं, मालिक! कहाँ आप, कहाँ हम। सारी गलती मेरी…..।” रमरतिया वाक्य पूरा करती कि राघव ने तनिक क्रोधित लहजे में उसे डाँटा, “बस, चुप कर। एकदम चुप।“ फिर नरम होकर बोला—

"सुन, रमरतिया! आदमी छोटा या बड़ा पैसों से नहीं, अपने विचारों से होता है। सबको अपने हिस्से का कर्म करना पड़ता है। तू अपने हिस्से का कर रही है और मैं अपने हिस्से का। बस इतना याद रखना कि हमसब जैसे भी हों, हमें बेहतर बनने-बनाने के प्रयास करते रहने चाहिए। क्या पता, कल को तेरा बेटा पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बन जाय! हाँ, हम जानते हैं कि तू रोहित की पढ़ाई को लेकर काफी संज़ीदा है जो फख़्र की बात है। ख़ुद मजदूरी करके भी रोहित को लेकर तेरे सपने बड़े हैं। हमें सब पता है। लेकिन........कल से तू रोहित को मेरे यहाँ एक विशेष काम पर भेज दिया करना।"

"मालिक, यह क्या कह रहे हैं? मैं भले आ जाऊँ लेकिन रोहित कैसे…..?

मैं तो रोहित की पढ़ाई के लिए ही मजदूरी करती हूँ। घर का अन्य खर्च तो इसका बाप उठा ही लेता है।"

सुनते ही मालिक-मलकाईन खिलखिलाकर हँस पड़े।

"अरे, पगली! अमीष के साथ बैठाकर रोहित को भी तेरी मलकाईन पढ़ाएगी। कुछ और मदद की जरूरत हो तो बेझिझक बताना। और भी, मालिक-मलकाईन बोलना छोड़। भैया-भाभी बोल।"

रमरतिया नि:शब्द थी। अब आँखों में उमड़े सैलाब को रोकना भी उसके वश में नहीं रहा।



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