ई तो फेसबुकिया गई हैं।

ई तो फेसबुकिया गई हैं।

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उस दिन हम बड़े शर्मिन्दा हुए जब उन्होंने हमसे पूछा। वो अक्सर हमसे ऐसे प्रश्न पूछते रहते हैं, पूछते क्या-अजीब तरह से डाँटते रहते हैं। उस दिन भी हमें लगा कि ये चुल्लू भर पानी भी हमें मुहैय्या करा देते, तो हम अपने पुरातन पंथी शरीर और आत्मा को उसमें हुबो देते।

वे कई क्षेत्रों के बड़े आदमी माने जाते हैं, इसलि, कि उनको ये मनवाने का गुरू भली भाँति आता है। लोग उनकी बहुत बातें करते हैं।हमें डाँटना अपना अधिकार समझते हैं। कभी पूछते आप काहे नई अवसरवादी लेखन करती। आप काहे नई उन लेखिकाओं के जैसा लेखन करती जो लिखती है `मेरा शरीर मेरा है।' और उनका लेखन में उनका शरीर खुली किताब होता है, जिसको सब पढ़ते हैं और रातों रात वो फेमस हो जाती है। कहते - जी पर, क्या करे हमारी आत्मा बड़ी डोमिनेटिंग है, शरीर पर भारी पड़ जाती ह वो परेशान होकर चले जाते। तो हम बात उस दिन की कर रहे थे, उन्होंने हमसे जो प्रश्न पूछा उससे बचने का कोई रास्ता ढूंढें, उसके पहले उन्होंने रामबाण प्रश्न दाग दिया।

आप फेसबुक पर नई बैठती है...?

जी हम सोफे पर बैठते हैं, दीवान पर या कभी-कभी ज़मीन पर भी बैठ लेते हैं। हमारे यहाँ बैठने हेतु फेसबुक नाम का कोई फर्नीचर नहीं। बिल्कुल बुडबक हैं आप -

वो कई क्षेत्रों के बड़े आदमी हैं, इसलिए हमने मान लिया, अगर वो कह रहे हैं, कि हम बुड़बक हैं, तो हम हैं जी

कहकर हमने सिर झुका लिया।

अब वो थोड़े नम होकर बोले - आजकल सोसल मिडिया का जमाना है। आपको उसके यूझ करना आना चाहिए।

जी, हमें किसी को यूज करना ही तो नहीं आता। बस खुद को यूज करवाने में हम बड़े माहिर हैं। देखिए ना कितने और कितनी लोग हमें सीढ़ी बना कर ऊपर चले गए, हमसे नजरें चुराते हैं। पर हमें उन्हें देखकर आनन्द आता है। क्योंकि हम बहुत सत्संग करते हैं, और सब यही समझाते हैं, परोपकार करो आदमी के काम आओ। हमें मुकेश साब का वो गाना बड़ा पसंद है,

बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ,

आदमी हूँ आदमी के काम आता हूँ।

आप आदमी नहीं, औरत हैं, कौन जमाने में रह रही हैं आप?

जी 21 वीं सदी में -

वो फिर अपने प्रश्न पर आ गए -

बताइए .... फेसबुक पर काहे नई बैठतीं, ट्वीटर, इनसटाग्राम ब्लॉग, ये सबका नाम भी सुनी है कि नहीं...?

जी हां...सुना है...

हमारे निस्तेज चेहरे को देख उन्हें दया आई।

देखिए हम आपके शुभचिंतक हैं। आजकल के लेखक, लेखिका, फेसबुकवा पे लिख लिखके कितना पापुलर हो रहे हैं। उनका दो ठो लाइन को लोग लाइकिया देते हैं। हम आपके प्रशंसक हैं, कितना अच्छा लिखती हैं आप। काहे नई फेसबुक पर एक्टिव्ह होती?

हमनें सिर उठाया और तुलसी दास के दोहे सबको याद कर लिया दोहों, को सम कौन मूढ़ और शण्ड विवेक एक नहीं मोरे

इक ने हमें हिम्मत दी। और हमने कह ही दिया।

जी हमें सोशल मीडिया की एबीसीडी भी मालूम नहीं। आप एम रियली वेरी सॉरी। `बट आय एम बिहाइन्ड द एन्सायक्लोपीडिया ऑफ ऑल दिस सोशल मीडिया चार्ल्स डिबेन्स का ये जुमला फेक पर हममें साहस भर गया कि अब वे हारकर चले जाएंगे।

पर नहीं जी, आज उनने भी कमर कस ली थी कि हमें बड़ी लेखिका ``पॉपुलर लेखिका बनाकर छोड़ेंगे फेसबुक पर बैठाकर ही छोड़ेंगे। स्मार्ट फोन है न आपके पास -

जी है,

व्हॉटसएपवा भी है,

जी

पर आप सारे ग्रुप से काहे लेफ्टिया गई हैं।

जी वो समय बहुत चला जाता था, तो हमने नैट बंद ही कर दिया।

वाई फाही और कम्प्यूटर हैं न आपके घर में। काहे के लिए है - ?

जी वो कभी मेल भेज दिया, कुछ टाइप कर लिया, पतिदेव के काम के लिए, बच्चों के प्रोजेक्ट....।

बीच में रोक ते हुए बोले

बस आज हम आपको सिखाएंगे, फेस बुक पर बैठना...

जी पर घर का काम

पतिदेव भी आ गए थे, हमारे इन शुभचिंतक के आगे वो भी कुछ नहीं कहते। बोले -

घर का काम होता रहेगा, ये चाहते हैं, तुम आगे बढ़ो वो सीखो। फेस पर बैठाना चाहते है, तो बैठो, घर के काम का एक्सक्यूज मत लो। अब हमारे लिए बचने का कोई रास्ता नहीं था। हमें फेसबुक पर बैठाने का महान कार्य उन्होंने शुरू किया। हमें लगा, इन्हें अंग्रेजी नहीं आती। कैसे सिखाएंगे ये?

पर सबसे पहले उन्होंने पी.सी. पर लैंग्वेज बदलकर हिन्दी की। आनन फानन हमारा अकांउय बना डाला। हमारी ओर से न जाने कितनो को मित्र अनुरोध भी भेज दिया गया। कुछ नाम हमने बनाए कुछ उनने जोड़े। आज उनका सुबड़ सुबड़ कर चाय पीना भी हमें नागवार नहीं गुजरा। वाकई वो हमारे शुभचिंतक हैं।

कितने सारे लोगों के मैसेज आ गए। जैसे पलक पोवड़े बिछाकर कब हमारे फेसबुक पर बैठने का इंतजार कर रहे थे। हमें लगा था कि वो सब अपने अपने घरों में ऑफिसों में बैठे होंगे, पर सबके अपना स्वागत तुरंत करते समझ आया, सब फेसबुक पर बैठे हुए थे। वे हमें फेसबुक ज्ञान देते गए, हम त्रेतायुगी शिष्य की भाँति गुरुदेव जी सीख मानते गए। आज फेसबुक चेहरे की किताब (फेस बुक) की महिमा समझ आई, उन्होंने हमारे होस्टल टाइम के कुछ चेहरे भी ढूँढ दिए थे। हमें मजा आने लगा। लगने लगा, ज्यों ज्यो बढ़े फेसबुक रंग, त्यों-त्यों ज्ञानी होए।

गुरूदेव तो चले गए, पर हमें फेसबुक नाम चमत्कारी और आकर्षक लोक में छोड़ गए। जैसे ही समय मिलता, बल्कि यूँ कहें, कि औरों को देने वाला समय भी चुराकर हम फेसबुक पर विराजित होने लगे। गुरूदेव ने कहा था कि अपने दोस्तों का साम्राज्य विशाल करिएगा। हम उनकी आज्ञा शिरोधार्थ कर, ज्यादा से ज्यादा फ्रैंड रिक्वेस्य एक्सेप्ट करते गए, फ्रैंड रिक्वेस्ट भेजते गए।

एक मित्र बने, बनते ही उनकी पोस्ट आई।

आय एम सो प्लीज्ड यू एक्सेप्टेड माय फ्रैंड रिक्वेस्ट।

हमने अपनी कॉलर ऊंची की। ये अलग बात हैं, बिना कॉलर की टी-शर्य पहनी थी।

अब उनकी पोस्ट पर पोस्ट अाने लगी, शुरू में तो हम खुश थे, आखिर ``प्रभु मोहे दी्हीि आहारा' पर नित्यकर्म हेतु प्रस्थान की फोटो वश करने की ऑफिस जाते वक्त अपनी पत्नी को गुडबाय किसी की फोटो, फिर हमारे मैसेज बॉक्स में उन जनाब का मैसेज, आप बहुत सुंदर है, आप अपना फोन नंबर देंगी। हमने टाइपियाया -

फोटो पर मत जाइए, हम ऐसे नहीं दिखते। फिर जनाब का मैसेज एक फनी इमोजी के साथ ``चल झूठी'' तुम्हारा तो तन मन दोनों सुंदर है। चल झठी कहकर तो कल अपनी पत्नी को प्यार कर रहे थे। शायद ये उनका तकिया कलाम होगा।

हम बार-बार उन्हें बंद करें, पर टंग टंग की आवाज के साथ महाशय बार-बार खुल जाएं।

अब हमें फेसबुक गुरूदेव पर गुस्सा आने लगा, आखिर कहा, फंसा गए हमें कैसे पीछे छुड़ाया जाए, इस सोकोल्ड मजनू से।

गुरूदेव को फोनियाया उनने समझाया -

परेशान क्यों होती है, तुरंत उसको अनफ्रैंड कर दें। हमने तुरंत सीख पर अमल किया। तो फिर टन करके दूसरा बॉक्स खुल गया,

तुम क्या कर रही हो? खाना खा लिया, खाने में क्या। मुझे किसी सुंदर लड़की के साथ बारिश में भीगते हुए भजिए और गोलगप्पे खाना अच्छा लगता है।

हमारा तीसरा नेत्र खुला, हमने लिखा -

पहली बात तो हम कोई लड़की नहीं, दूसरी बात मि. गोलगप्पे लगता है, आपको दिमाग खाना भी अच्छा लगता है।

वो महाशय भी अनफ्रैंड सूची में भेज दिए गए। अब रिजोल्यूशन लिया गया, कि जान पहचान के लोगों को ही फ्रैंड बनाया जाएगा। फ्रैंड रिक्वेस्ट की सूची में सर्वोपरि स्थान पर फ्रैंड की चाची का फ्रैंड रिक्वेस्ट था हमने हुलसते हुए स्वीकारा,

शुरू में तो सब ठीक था, कैसी हो, क्या लिख रही हो, पर फिर अपने घर गृहस्थी की तमाम फोटो की बम्ब़ारडिंग करती गई वो, हद तो तब हो गई, जब उन्होंने शादीशुदा बेटी के बचपन की नंगू पंगू फोटो कहीं से उठाई एक कविता के साथ चस्पा कर दी।

बेटी ने लिखा वो भी पब्लिकली -

व्हॉट इज दिस मम्मा ?

चाची जी का जवाब -

तेरी यादें, जो हर पल मेरे साथ हैं।

उनके इस इमोशनल अत्याचार पर हमारा मन भीग गया। हमारे इन आंसुओं को पोंछ एक आंटी जी की फोटोज छलांग लगाकर आ गईं। पैसे वाली मीडिल एज औरतें, कुछ तो सीनियर सिटिजन भी बन गई हैं। पर घर में काम करने के लिए नौकरों, दाइयों की फौज है, बच्चे अपनी अपनी दुनिया में मसरूफ हैं - इन्होंने कई क्लब और किटी पार्टीज ज्वांइन की हुई हैं। कुछ सालों पहले तक बाकायदा नौ गज की साड़ी में ठकी ठुमी होती थीं, अब ऐसे ऐसे वन पीस थीम पार्टी के हिसाब से - खुद की सजावट के साथ ढेरों सेल्फीज, पाउट पोश्चर की फोटोज वगैरह वगैरह की बारिश फेसबुक पर -

इनके प्रियजनों के कमेंटस

वाऊ सो सैक्सी

वाऊ माइन्ड ब्लोइंग

वाऊ, लुकिंग लाइक ए दिवा

वाऊ मेण्टेंड सो वैल, कौन कहेगा कि आप दादी बन चुकी हैं।

जितने वाऊ कमेंट आते, उतनी उत्तेजित होकर वो दिवा मैडम और फनी और रिवीलिंग फोटोज पोस्ट करने लगतीं। दूसरे दिन एक फंक्शन में उनमें से उनकी फोटो लाइकियाने और उनको वाऊ वाऊ करने वाले कुछ कंमटेटर मिल गए। और मजे ले लेकर उनकी Absence उनका मजाक बना रहे थे। एक सत्य उजागर हुआ, फेसबुक की महिमा के कारण अब लोगों के पास विषयों का टोंटा नहीं रहा, और खासकर उन लोगों के लिए जो पर निंदा सम धरम नहीं भाई फलसफे को सफलता का मंत्र मानते हैं।

एक जगह उनके पति भी मिले, जो अपनी पत्नी के इस नए दिवा रूप पर प्रसन्न थे। हमें लगा, हम जैसे पिछड़े लेखक नाहक ही स्त्री-विमर्श, स्त्री विमर्श चिलाते हैं, स्त्ीि अब स्वछंद हैं....।

अब हमने अपना रूझान फेसबुकी साहित्य की ओर बढ़ाया। कुछ तो वाकई लाजवाब पोस्ट होती है। कुछ देखकर लगता है, जाने दें इस पर चर्चा अगली बार। पर हाँ, कविता की वो पोस्ट देख हमें अपना लेखकीय पिछड़ापन सलने लगा। काश वो कवियत्री सामने होती, ऑलिव ऑइल के दिए से उनकी आरती उतारते। इतना खुलापन - तो लेखन इसको कहते हैं।

क्या नाम थे, कुछ के द्रौपदी सिंघाड़, तोतावाला ठाकुर और पेटीकोट का नाड़ा और....।

फेसबुक से होम बुक पर आएं, पहले पति कहते थे, थोड़ी सोशल हो, अब तो हम सोशल मीडिया पर ज्याद ही सोशल हो गए। घर में महाभारत मच गई। महाभारत से याद आया, आप सबसे ये रहस्य साझा कर लें कि दरअसल महाभारत के संजय के पास दिव्य दृष्टि नहीं, बल्कि, प्राचीन जुकरबर्ग जैसा कोई अद्भुत चिराग था। जिसको घिसने से पूरी दुनिया सामने दिखने लगती थी। बाद में अस्वस्थामा, उसे लेकर हिमालय भाग गए थे। वो वहां से बचकर युगों बाद आ गया, और फेसबुक नाम का चिराग सबके लि, आम कर दिया, और पैसे कमाने लगा।

महाभारत खैर तो हम बात कर रहे थे घर की, सोचा चलो नहीं बैठेंगे। अब फेसबुक पर। हमारे फेसबुक गुरू आए, उन्होंने सिखाया पी. सी. (प्रियंका चोपड़ा नहीं) पर बैठने की बजाए आप मोबइल हो जाए। हमें आप समझ आया, कुछ लेखक कवि वक्ता हों, श्रोता हों, चीफ गेस्ट हों, कार्यक्रम के बीच से उनका लाइव प्रसारर मोबाइल फेसबुक की महिमा है।

हमने घरवालों की आपात्काल बैठक बुलाई उन्हें समझाया कि वाल्मिक, वेदव्यास, तुलसीदास जैसे संतों के पास जो बस एक ही महापुरुष की एक ही तरह की कथा थी, जबकि हमारे पास फेसबुक की अनगनित कथाएं और चरित्र हैं। हम उसकी सहायता से कितनी उपन्यास, व्यंग्य संग्रह, महाकाव्य लिख सकते हैं। गुरूदेव ने अपनी स्वीकृति का ठप्पा लगाया।

हां और इनको ज्ञानपीठ, नोबेल, पद्मश्री जैसे नेसनल, इंटरनेसनल अवॉर्ड न मिलें तो हमारा नाम बदल दीजिएगा।

उनकी इस भविष्यवाणी पतिदेव भी हस्बैंड भी हंसकर बैंड हो गए। अवहम फेसबुक पर बैठे होते हैं, वो हमारे लिए कॉफी बना देते हैं और हम बड़ी शान से कॉफी विथ फेसबुक करते। बच्चे भी खुश हैं, क्योंकि अब उन्हें अवसर अपने बचपन के खेलों का उदाहरण देकर तंग नहीं करते। जो दौड़-दौड़ कर हम खेलते ते। दूसरे के छोटी-छोटी सी चीजों के लिए जिद भी नहीं करते जानते हैं, ममा अगर इसी तरह फेसबुक पर बैठी रही तो इन्टरनेशनल अवार्ड लाएगी। फिर वो कितने प्राइड चिल्ड्रन बन जाएंगे। कथा लिखते-लिखतअंत में चलते चलते एक बार और बता ही दें, फेसबुक पर बैठते-बैठते अब हम खुद कईयों के फेसबुक गुरू बन गए और हमारे फेसबुक गुरू का फोन उठाने का भी वइसलिए, वही जो हमें कभी फेसबुक पर बैठा कर गए थे, अब कहते फिरते हैं -

`ई तो फेसबुकिया गई हैं।''


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