हरियाली बचपन

हरियाली बचपन

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बचपन की यादें जब-जब याद आतीं हैं बहुत अच्छा लगता है | अजीब सी अनुभूति होती है ! आज जब मैंने उस बचपन को देखा तो सहज ही मुझे स्मरण हो आया- हरियाली बचपन ! हरी घास का गट्ठर लादे सुबह-सुबह...बचपन हरियाली, हरियाली और बचपन ! अक्सर ऐसा होता रहता | मैं उस रास्ते से सुबह टहलने या मैदान के बहाने घूमने जाया करता था |

कभी ऐसा न हुआ कि वह मुझे न दिखी हो | उम्र लगभग 14-15 साल, सांवला रंग | घास का गट्ठर लादे पता नहीं क्या सोचती- चली जाती | मेरे भावों का पारावार न था | भारत उदय और हरियाली बचपन- उफ़ ! यह विरोधाभास, शायद बाधक है प्रगति का, अभिशाप है हमारे समाज का |

लगभग 2-3 महीने यही क्रम चलता रहा | अंततः मेरा मन नहीं माना तो पता करने की ठानी | मैंने पूछा तो उसने हलके संकोच से बताया, ‘यहीं पास में रहतीं हूँ | दो बहने और एक छोटा भाई है, वे भी मेरी तरह....| माँ-बाप मजदूरी करते तब जाकर भोजन |’

‘स्कूल ?’ मैंने पूछ ही लिया,

यह यक्ष प्रश्न था | वह मौन रही, मानो कहना चाहती हो यह भी कैसा मूर्ख प्रश्न | पेट की आग बनाम शिक्षा ! मैं समझ गया | बहुत कठिन है राह जीवन की | आश्चर्य अभी से सब समझती है | मैं आगे कुछ पूछ न सका | लौट आया बुझे मन से | हरियाली में छिपा बचपन सिसकता है | क्या करे वह, मजबूर है स्वयं से/भाग्य से !

एक दिन मैंने फिर पूछा- ‘पढने की इच्छा नहीं होती ?’

‘होती है तो भी क्या किया जाए, कल्पना में जी लेती हूँ यथार्थ को ढोती हूँ |’

इस बार बड़ी निर्भीकता से जवाब दिया था उसने |

‘हाँ यह भी सही है’, मैं ठंडी सांस लेकर बोला |

हालांकि वह अकेली नहीं थी | कई बच्चे रहते थे वहां पर मगर हमेशा नियत समय पर हरियाली लादे वही दिखती मुझे | निर्लिप्त भाव से उसके वजूद को समेटे हुए सबसे पहले दिखती वह हरीतिमा, वह हरियाली जिसके नीचे उसका सिर दब रहा होता |

मैले-कुचैले कपड़ों में भी उसका लावण्य मेहनत के पसीने की बूंदों से दमक उठता | वह अपनी उम्र के हिसाब से बहुत कठिन श्रम करती थी जबकि मुझे हर मौसम की सुबह ठण्ड भरी लगती थी | यह नित्य की बात होती | मैं विवश था, बढ़ जाता आगे उसके बारे में/ भविष्य के बारे में सोचते हुए |

आगे एक मैदान पड़ता था जहाँ पर इलाके के लड़के दिन भर क्रिकेट खेला करते थे उसके आगे छोटे-छोटे मिट्टी के टीले पड़ते थे | सुबह-सुबह वहीं दिखते मुझे कुछ बच्चे गोलियां, गिल्ली-डंडा खेलते हुए | उनमें से कुछ तो बहुत ही छोटे थे मगर जब उनके मुंह से देसी गालियों की बौछार निकलती तो आश्चर्य होता मुझे | क्या गर्भ में ही सबकुछ सीख गये | चाहे उनका अर्थ भी न जान पाते हों मगर....|

कैसी ऊर्जा ! यह ऊर्जा का अपव्यय ही तो है, अगर यही ऊर्जा कहीं और खर्च हो | इस बात पर मुझे अपने बचपन की एक बात याद आ गयी कि कैसे हम सब बातों-बातों में ही टी-ली-ली-टी-ली-ली कह एक दूसरे को चिढ़ाते थे | पल में आपस में नाराज़ हो जाते और अलग-अलग गुट बना लेते और आपस में गुस्से से कहते- ‘अट्टी-बट्टी सात जलम की कुट्टी !’

दुनियादारी से अनभिज्ञ बचपन की तोतली बातें जब हाथ के अंगूठे को दाढ़ी से छुआकर सभी क्रम से यह कहते जाते | लेकिन कभी भी हम और हमारे दोस्तों के बीच होने वाला आपस का झगड़ा स्थायी न रहा | पल भर में ही सब शांत हो जाते और एक दूसरे के गले लग जाते जैसे कोई बात ही न हुई हो | क्या मज़े के दिन थे ! कोई चिंता नहीं, और आज हमारे बचपन इस स्थिति में- उफ़ ! कैसा परिवर्तन !! यह वातावरण का प्रभाव था | पारिवारिक पृष्ठभूमि व परिस्थितियों का असर | इन्हें अनदेखाकर हम कैसे कल्पना करें एक विकसित राष्ट्र की, सम्पूर्ण शिक्षित समाज की ?

मैं उलटे पाँव लौट पड़ा | सहसा बांसों के झुरमुट के नीचे मैंने उसी लड़की को खड़े देखा | वह कुछ परेशान सी लग रही थी | मैंने उससे पूछा, ‘क्या बात है ?’

‘कुछ नहीं’

‘अरे बताओ तो’

‘वो....वो मारता है, परेशान करता है’

‘अरे कौन?’, मैं झुंझला गया |

वह सहमी थी, बोली- ‘वही जिसके घर के सामने हम रहते हैं |’

मुझे सहानुभूति हो आयी | उसकी तरफ से मैं तिवारी जी के घर पहुंचा जिनके घर के ठीक सामने एक झोपड़ी टाइप मकान में उसका परिवार रहा करता था | तिवारी जी से मेरा हल्का-फुल्का परिचय था सो किसी तरह मामला सुलझाने का प्रयास किया | वैसे कोई ख़ास बात भी नहीं थी | तिवारी जी की पत्नी साहिबा गंदगी से परेशान थीं | वह चिल्लाकर मुझसे कहने लगीं- ‘इनके चक्कर में मेरे बच्चे भी बरबाद हो गये | बड़े म्लेच्छ हैं ! उफ़ ! कहाँ फंस गयी मैं |’ आदि-आदि |

मैंने उनके बजाय तिवारी जी को समझाना ज्यादा उचित समझा |

‘कहाँ आप भी, अरे कोई स्थायी निवास तो बना नहीं रहे | अगर हम भी इनकी तरह लड़ने-झगड़ने लगे तो हममे और इनमें क्या फर्क रहा |' मेरा इतना कहना था कि तिवारी जी मेरे ऊपर ही भड़ास निकालने लगे | मुझे उनसे ऐसी आशा न थी | अपने मन का सारा गुबार मुझ पर निकाल तिवारी जी शांत हो गये | मैं चुपचाप सुनता रहा | चुप रहा, केवल उसकी खातिर | एक असहाय परिवार कि रक्षा में मुझे गुरुता महसूस हो रही थी | जाते-जाते मैंने तिवारी से ठन्डे दिमाग से सोचने के लिये कह दिया था |

इसी तरह एक दिन मैं अपने मित्र डॉ. श्रीवास्तव के क्लिनिक पर बैठा था कि तभी वह आई | वह अपनी गोद में 2-3 साल का एक लड़का लिये हुई थी जो कि शायद उसका छोटा भाई था | उसने बताया कि उसके भाई को बहुत तेज बुखार है | डॉ. साहब बातें छोड़ पहले उसे देखने लगे | बच्चे का शरीर बुखार से तप रहा था डॉक्टर साहब ने अपने पास से कुछ दवाइयां दी तथा कुछ दवाइयां बाहर से लिख दीं | उन्होंने उसे एक इंजेक्शन भी लगाया | बच्चा दर्द से कराह उठा | मैं सहानुभूति और शांत भाव से सब देखता रहा, विचार पुनः उमड़ने-घुमड़ने लगे | डॉ. श्रीवास्तव ने उसे दवाइयों की पर्ची थमायी | वह मेरी तरफ देखने लगी, किसी आशा भरी दृष्टि से | मैं समझ गया, फिर भी औपचारिकतावश पूछा- 'क्या पैसे नहीं हैं ?'

उसने न में सिर हिलाया | मैंने फिर पूछा, 'कुछ खाया है तुमने ?'

उसका सिर फिर हिला | उसके चेहरे पर मुर्दगी छाई थी | मैं हिल गया | डॉ. साहब भी द्रवित हो गये | मैंने सौ का नोट निकाल उसे दे दिया | वह कृतज्ञता भरी कातर दृष्टि से मुझे टुकुर-टुकुर ताकती रही | डॉ. श्रीवास्तव ने भी उससे फीस न ली | उसके चले जाने पर मैंने उन्हें पूरी बात बताई |

इस तरह की अनेकों घटनाएं मेरे साथ अक्सर हुआ करतीं |

यह सब होते हुए जब मैं भविष्य के भारत की कल्पना करता तो सिहर उठता | क्रूर मज़ाक ही तो है यह, एक छलावा नकारात्मक के प्रति सकारात्मक का...दीन-दुनिया से बेखबर मैं कुछ ज्यादा ही सोच डालता | शायद अपनी अंतर्मुखी प्रवृत्ति के कारण ही | फिर मैं इन सब बातों की चर्चा करता भी तो किससे, क्या फायदा मिलता ? कोरी गप्प समझते सब, हँसते मुझ पर और मेरी बातों पर कि बड़ा आया समाजसुधारक बनने | इसके आगे कुछ होता तो भी सोचता | सामाजिक विषमता कि यही कड़ी भारत के विकास और अखंडता के लिये घातक है | यहाँ व्यक्ति अपने सुख को सुख तो समझता है परन्तु दूसरे के दुःख को दुःख नहीं | हम मनुष्यों का दिशाबोध ही गलत है ऐसे जाने कैसे-कैसे विचार मेरे मन-मस्तिष्क को झकझोर रहे थे, जैसे किसी को इनकी परवाह ही नहीं !

एक दिन मैंने उससे पुनः बात की, कोशिश की उसके अंतर्मन में झाँकने की लेकिन आज वह कुछ न बोली | हरियाली के नीचे छिपी दिखी मुझे उसकी मुरझाई काया, कहीं तबियत.....कड़ी मेहनत, कुपोषण....सबकुछ संभव है..या कोई और बात | मैं ठहर गया | कहीं ऐसा न हो कि बचपन हरियाली के नीचे सदा के लिये दब जाए | वह धीरे-धीरे चली गयी | मुझे उस दिन बड़ा कष्ट हुआ | मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि मुझे कुछ करना है इन सबकी दशा सुधारने के लिये | चाहे जो भी हो जाए, मैं करूंगा प्रयास दूंगा एक नयी दिशा | इनके बचपन में भी बचपन की खुशियाँ होगीं | वास्तविक ख़ुशी, सच्ची ख़ुशी !

इसके बाद कुछ दिनों तक वह मुझे नज़र न आयी | मैं बेचैन हो गया | आखिर क्या हुआ उसे ? पता लगा कि वे लोग मजदूरी करने कहीं बाहर चले गये | मेरी आँखों के सामने उसका वही चित्र आ गया | उसी मेहनती छोटी लड़की का जो चुपचाप अपने काम में मग्न रहती | सोचती कुछ-करती कुछ थमती घास, बढ़ती उम्र | अब वह न जाने कहाँ और कैसी हो | क्या होगा उसका भविष्य ? ईश्वर सब ठीक करे !

आज जब भी उस रास्ते से निकलता हूँ तो सहज ही उसकी याद आ जाती है | मैंने उसका नाम तो आज तक नहीं पूछा मगर.....न जाने कैसा लगाव था यह !

मुझे महसूस होता- असहाय, उत्पीड़ित बचपन में जीना कितना दुष्कर है | निकटता से सब देखा था मैंने | वह अभावों में पली थी | कभी-कभी दिखती मुझे उसकी धुंधली आकृति, धुंधला आभास मानो छिपाए हो अपने आंचल में कोई रहस्य और फिर वह अचानक हरियाली बचपन के साए में कहीं खो जाती | मैं ढूंढता रहता उसको इधर-उधर, निरुद्देश्य सोचता रहता हरियाली बचपन के बारे में | निरंतर ऐसे प्रश्नों की बौछार मेरे मानस अभिमन्यु को प्रताड़ित करती रहती | इतने विशाल महाभारत का अंतिम परिणाम क्या रहा ?


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