एक टुकड़ा सुख

एक टुकड़ा सुख

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‘पापा ! आज फिर कोई इंतजाम नहीं हुआ...!’

6 साल की नन्हीं गुड़िया ने लालचंद से पूछा |

पापा शांत रहे | उन्हें गुड़िया के मलिन चेहरे को देखने तक की हिम्मत न थी | धिक्कारने लगे स्वयं को | थोड़ी देर बाद घर से बाहर निकलकर इधर-उधर टहलने लगे |

सेठ गोविन्द प्रसाद इलाके के बड़े भारी आदमियों में से थे | अच्छी-खासी इज्ज़त | दो बेटे हुए, एक बचपन में ही कालकवलित हो गया और दूजे लालचंद आज इस दयनीय स्थिति में कि खाने को भोजन तक नसीब नहीं | परिवार स्वच्छंद, सात्विक विचारों वाला रहा | सब इधर-उधर मस्त रहते | कई बीघे ज़मीन थी | कोई कमी नहीं, खाते-पीते, पड़े रहते | इलाके के बड़े भारी लोग उनके मेहमान बनते थे | धीरे-धीरे समय का चक्का घूमा और आज सबकुछ बदल गया |

गोविन्द प्रसाद के दूसरे लड़के लालचंद का पांच जनों का परिवार था उसमे भी दो बच्चे रोगों की चपेट में आकर स्वर्ग सिधार गये | लालचंद, पत्नी और बेटी गुड़िया 3 प्राणी शेष रहे | जब तक पुरखों की जायदात रही लालचंद खूब मज़े से बैठकर खाते रहे मगर ऐसा कब तक चलता | धीरे-धीरे सारा पैसा चुक गया | सारी ज़मीन-जायदात तक बिक गयी | जो कुछ बची-बचायी भी थी उस पर दबंगों ने कब्ज़ा कर लिया | लालचंद शिक्षित तो थे ही जब ठोकर लगी तो अध्यापन करने लगे | सौभाग्यवश अच्छी आमदनी होने लगी और गाड़ी फिर से पटरी पर आ गयी | लालचंद बचपन से ही स्वाभिमानी प्रवृत्ति के थे सो कहीं भी रहे ज्यादा न टिक सके | परिणाम वही ढाक के तीन पात | मजबूरन उन्होंने बैंक से क़र्ज़ लेकर दुकान खोली | एक नौकर भी रखा लेकिन आराम करने/आलस्य का पैतृक गुण न छूटा | घाटा लगना ही था, नौकर ने भी अच्छी-खासी चपत लगायी | लाखों रुपये डूब गये | उधार वालों की तो गिनती ही नहीं और यह धंधा भी बंद करना पड़ा |

धीरे-धीरे जब सबकुछ ख़त्म हो गया तो लालचंद ने बड़े भारी घर के एक भाग को ही बेच दिया | कुछ दिन और गुज़ारा चला लेकिन धीरे-धीरे सबकुछ समाप्त होता चला गया और बेचारे लालचंद आर्थिक रूप से कंगाल बन गए |

अब तो कई-कई दिनों तक फांके करना पड़ता | गुड़िया 6 साल से ऊपर की हो रही थी | 2 बच्चों की मृत्यु के बाद पत्नी की हालत भी बहुत ठीक न रहती थी | बेचारे लालचंद किसी तरह ज़िंदगी काट रहे थे | यह उनकी अदूरदर्शिता ही थी | भविष्य के प्रति उदासीनता आज वर्तमान रूप में परिणत होकर उन्हें परेशान कर रही थी | मासूम गुड़िया ने जब से जन्म लिया तब से कई साल पहले ही इस तरह के हालात बन चुके थे | कभी पैसे लुटाने वाले आज एक-एक पैसे के मोहताज थे |

लालचंद अपने सिवा किसी की बात भी नहीं मानते थे | धीरे-धीरे लोगों का आना-जाना भी कम हो गया | रिश्तेदारियां टूट गयीं | मित्रता में दरारें पड़ गयीं | धीरे-धीरे वे समाज से कटते चले गये और उनके मन का आक्रोश कुंठा के रूप में पनपने लगा | जीवटता तो थी ही कोशिश करते कि परिवार को कभी भूखा न सोना पड़े | इधर-उधर से कोई न कोई जुगाड़ कर ही लाते थे, पुरानी साख तो थी ही |

कभी-कभी जब कुछ नहीं मिलता तो खाली हाथ ही घर लौट आते जहाँ दरवाज़े पर उनकी बिटिया गुड़िया उनकी राह देख रही होती जो विकास की इस उम्र में सूख कर कांटा हो रही थी |

लालचंद का स्वभाव भी विरला था | अपने-आप में मग्न रहते, विचार करते, चिंता करते हाँ मगर किसी के आगे स्वाभिमान खोकर हाथ नहीं फैलाते | मानव ही थे वे, कई गुण तो कई कमियां भी थीं | नैतिक संबल उनके परिवार की पहचान मानी जाती थी |

ऐसे परिवारों का इक्कीसवीं सदी में कोई इलाज भी तो नहीं | कमरतोड़ महंगाई, सर्वत्र आपाधापी के इस युग में कहीं शांति नहीं, किसी को किसी की फ़िक्र नहीं |

फटेहाल लालचंद करना तो बहुत कुछ चाहते थे मगर इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में लगकर कुछ कर न सके | सभी आगे बढ़ते रहे और वे पीछे ही रह गए | जिंदगीभर वे आत्मशोधन ही करते रहे | परिवार उन्हें बंधन लगता था, लेकिन जो सत्य सम्मुख था उसे कैसे नकारें | वह अपने कर्तव्यों से विमुख न थे लेकिन कोई न कोई अवलंबन तो चाहिए ही कर्म करने के लिए/जीवन जीने के लिए | उनके ऊपर क़र्ज़ भी बहुत बढ़ गया था | कहाँ से चुकाते ? कई बार घर के बाहर फजीहत भी हुई | बेचारे खून का घूँट पीकर रह जाते | कभी-कभी उद्दिग्न हो उठते | उन्हें अपने से ज्यादा बची हुई अपनी एकमात्र पुत्री की चिंता थी | जो मिलता तीनों प्राणी खा लेते न मिलता तो ऐसे ही पानी पीकर सो जाते, अगले दिन की आस में | हालांकि मुहल्ले में उनकी इतनी ज्यादा गिरी हालत थी ऐसा लोगों को गुमान न था | घर की आंतरिक स्थिति क्या थी वे तीन प्राणी ही जानते थे | लालचंद का परिवार ऐसे ही अभावों में जीता रहा | गुड़िया मूक हो सब देख रही थी | उसका बचपन गरीबी का दंश झेलता संघर्षरत था | सब भाग्य का खेल है |   

कभी अच्छा खाने को मिल जाता तो वह चहक उठती और गले तक भरकर खा लेती क्या पता अगले दिन नसीब हो न हो फिर चाहे अगला दिन टट्टी में ही क्यों न बिताना पड़े तो कभी भूख से बिलबिला उठती और अपने माँ-बाप को झिंझोड़ने लगती और कहती, ‘पापा कुछ खाने को दो न ! बड़ी भूख लगी है, मेरा सिर घूम रहा है पापा...|’

पापा बेचारे उसको भूख से बिलबिलाता देख सहन न कर पाते और इधर-उधर से कुछ न कुछ इंतजाम करने के लिए निकल जाते घर से और जब कोई इंतजाम न हो पाता तो देर रात में लौटते जब तक दोनों प्राणी सो न जाते | बड़ी दयनीयता में जी रहा परिवार आज के भारत उदय का आईना था जहाँ बचपन सिसक रहा, राष्ट्रनागरिक बेरोजगार, और जननी ज्वर पीड़ित मरणासन्न पड़ी रहती | कोई आवाज़ ही नहीं होती | दिन यूँ ही गुज़र जाता, रात यूँ ही बीत जाती |

लालचंद बेटी को बातों से बहलाते लेकिन बात घूम-फिर कर फिर वहीं आ जाती | पेट की आग बड़ी भयंकर होती है ! क्या होगा आगे ? यह सोचकर माँ-बाप घुलते जा रहे थे !

उस रोज़ पूरा दिन बीत गया कुछ खाने को नसीब न हुआ | बच्ची भूख से बिलबिला उठी | माँ ने एक नज़र लालचंद पर डाली | थके क़दमों से वे शाम के वक़्त निकल पड़े इस आशा में की शायद कहीं से कुछ मिल जाए !

घूमते-घूमते लालचंद कई जगहों पर गए पर सब व्यर्थ | बड़ी खिन्नता हो रही थी उन्हें स्वयं पर | कापुरुष ! तू कैसा पिता है ? कैसा पति ?? कैसा व्यक्ति ! लालचंद का अंतर्मन कचोट रहा था | भीतर ही भीतर उद्वेलन की लहरें संभाव्य की तलाश में चलती जाती थीं |

चलते-चलते सहसा उनके कदम एक होटल टाइप ढाबे के बाहर ठहर गये | रात्रि के लगभग दस बज चुके थे | होटल बंद होने को था | लालचंद ने एक उड़ती हुई दृष्टि काउंटर पर रखे हुए थाल में बची हुई कुछ रोटियों पर डालीं | होटल मालिक बड़ी देर से यह सब देख रहा था | वह समझ गया | बड़े प्रेम से उसने कहा, ‘आओ ! खा लो, अन्दर आ जाओ, बैठो !’ लालचंद को यह गवारा न हुआ लेकिन फिर भी अनमने ढंग से अपना चेहरा छुपाने की कोशिश करते हुए चुपचाप ढाबे के अन्दर चले आये | चार रोटियां, कुछ सब्ज़ी की खुरचन, नमक, अचार उनको एक पत्तल में रख होटल मालिक ने आवाज़ लगायी, ‘छोटू !’

छोटू शायद उसके ढाबे में काम करने वाला कोई लड़का होगा लालचंद ने सोचा कि तभी 12-13 साल का एक लड़का जो एक गन्दी नेकर व फटी सी बनियान पहने हुए था एक बुरा सा मुंह बनाते हुए पत्तल उन्हें दे गया और फिर वह अपने काम में व्यस्त हो गया | वह छोटू था | लालचंद थोड़ी देर तक छोटू की ओर देखते रहे | छोटू जमीन पर बैठा हुआ जूठे बर्तन मांज रहा था और बीच-बीच में लालचंद को घूरता जा रहा था |

लालचंद ने खाने पर नज़र डाली, कुछ देर यूँ ही बैठे रहे फिर एकाएक पत्तल को समेटा, मोड़कर कांख में दबाया, पास रखा गिलासभर पानी पिया और बिना कुछ कहे, बिना कुछ खाए घर की ओर चल पड़े |

घर आकर लालचंद ने धीरे पर दरवाज़े पर दस्तक दी | पत्नी ने किसी तरह उठकर दरवाज़ा खोला, ‘इतनी रात में कहाँ चले गये थे आप ? जब भगवान् को ही मंजूर नहीं तो कोई क्या कर सकता है !’ पत्नी ने कहा |

लालचंद ने कोई जवाब न दिया | अन्दर आकर बच्ची को देखा- वह मुरझाई हुई कली के समान अन्दर लेटी हुई थी | लालचंद ने पत्तल खोलकर रख दिया, चार रोटियां और नमक था, अचार और सब्जी पता नहीं कहाँ गिर गयी | चलो गनीमत रही कि रोटियां बच गयीं, पत्नी वही पास में बैठ गयी | उन्हें इतनी कड़ी भूख लगी थी कि जी किया एक ही बार में सब खा जायें मगर जी कड़ा कर दोनों जन बच्ची की सोचने लगे, ‘उठो बेटा ! खाना खा लो |’ लालचंद उसे जगाने लगे | भूख तो उसे थी ही, खाने का नाम सुनकर वह तुरंत ही उठ बैठी, ताकने लगी अपने जन्मदाता और माँ को | ‘लो बेटा खाना खा लो ! आज यही मिल पाया | कल फिर अच्छा भोजन होगा, तुम चिंता न करो हम हैं ही |’ लालचंद किसी तरह बोले |

गुड़िया इतनी नासमझ भी नहीं थी, वह सब समझ रही थी | समय की मार सहते-सहते वह बहुत कुछ जान चुकी थी | ‘पहले आप दोनों खाइए !’ वह बोली | यह सुन दोनों प्राणी भाव विह्वल हो उठे | उनकी आँखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली | गुड़िया गले लग गयी दोनों के और फिर पता नहीं तीनों प्राणी किस लोक में खो गए | रोटियां रखी ही रह गयीं और तीनों निद्रामग्न हो गए |

मगर भूखे पेट भला नींद ही कहाँ आती है | गुड़िया तड़के ही जग गयी, उसने देखा कि पापा भी जग रहें हैं | बालमन भूख की पीड़ा नहीं सह सकता, धीरे-धीरे चलती वह पापा के पास जा खड़ी हुई |

‘पापा कल की रोटी रक्खी है, ले आऊं !’

‘नहीं, तुम ही खा लो !’

गुड़िया निर्लिप्त भाव से लालचंद को देखती रही | शायद यही नियति की विडंबना है | वह लौट पड़ी और रात की बासी रोटी को नमक से चुपड़ कर खाने लगी | माँ हड्डियों का ढेर बनी एक तरफ अभी भी सो रही थी | गुड़िया ने दो घूँट पानी मुंह में उड़ेला, तृप्ति मिली और फिर वह मुंह पोंछकर, माँ से चिपटकर पुनः सोने का प्रयत्न करने लगी |

 


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