हमारी दीदु के साथ बीते पल
हमारी दीदु के साथ बीते पल
हम जो ये पल लिख रहे हैं न वो बहुत अनमोल हैं.. हम कभी न भुला सकते। हम पहली बार उनसे मिले जिसे सदा सपने में देखते रहे हैं। हमारी जे एम दीदु यानी जीजी मां दीदु.. जान लगाते हैं हम उनके आगे प्यार से.. दीदु जान
तो पढ़िए, हम उनसे कैसे मिले और किस तरह मिले...
सन 2017 सितम्बर का अंत और हमारे किसी दोस्त ने हमारी वाल पर रोज रोज की शायरी कविता से तंग आकर हमें फेसबुक के समूह में जोड़ दिया। वहीं हमारी मुलाकात अक्तूबर अंत में पाखी दीदी से हुई। हमें पूरा नाम भी नहीं पता था उस वक़्त। फिर कुछ वजहें ऐसी बनी की हमारी रोज बात होने लगी।
उन दिनों पाखी दी स्कूल में पढ़ाती थीं। हमसे रोज बात करती थीं। स्कूल के लंच टाइम में भी और वापस आती तो चाय पीते पीते भी बात करती थी। हमारे मन में इन्हीं दिनों इनकी अलग छवि बन रही थी। औरों से अलग लगती थी, एकदम अलग सी, हमारी तरह थी बस उम्र का अंतर था। धीरे धीरे कब हमारे लिए बहुत कुछ बन गई पता न चला। उस वक़्त मेरी दीदी कहती थीं कि लता तुम किस्मत वाली हो कि तुमको पाखी जैसी दोस्त और दीदी मिली है। फिर इन्होंने रानी दी से मिलवाया, हम किस्मत वाले तो थे डबल किस्मत वाले हो गए। फिर एक की जगह छोटी बहनें मिल गई। पूरा पूरा दिन बस पाखी की बातें करते गुजरता था और अब सोचते गुजरता है।
खैर दीदु जान से असल में मिलने के 3 मौके आये। दो बार बहुत कहा इन्होंने तब भी नहीं जा पाए। मगर तीसरी बार 2019 में 7 सितम्बर को लखनऊ में मिलना ही लिखा था शायद। हमने हमारी एक फेसबूक वाली दीदी से कहा कि उनके प्रोग्राम में हमारी और पाखी दीदी का रजिस्ट्रेशन करवा दे, और पैसे हम आकर दे देंगे।
मगर हाय री किस्मत दीदु जान के टिकट कैंसिल हो गए। और उन्होंने मना कर दिया, "बोली नहीं आ रही हूँ।"
रजिस्ट्रेशन को मना करने गए तो दीदी बोली, "पाखी नहीं आ रही, तो नहीं आ रही हो न तुम?" उस वक़्त हम रो रहे थे, हाँ कहकर मोबाइल ही बन्द कर दिया। बहुत मुश्किल से बहुत से झूठ(अब कौन कौन से गिनाए) घर वालों से बोलने के बाद तो वो लोग राजी हुए थे। हमारी बड़ी दी भी अपना एक हफ्ते का प्रोग्राम कैंसल कर बहुत मुश्किल से राजी हुई थी। तो उनको मना किया तो वो गुस्सा हो गई। और उन्होंने अपने प्रोग्राम वालों से कहा और वापस वहीं जाने की तैयारी करने लगी।
दो दिन बाद फिर से पाखी दीदी ने कहा, " टिकट मिल गए वो जा रही हैं और हम भी आ जाएं" कान्हा जी की कसम ये सुनकर हम अंदर तक तड़प गए। हम सबको मना कर चुके थे। और कह चुके थे कि प्रोग्राम पोस्टपोन हो गया। उस दिन कसम से हम पूरी रात रोये, क्योंकि हमें अच्छे से पता था ये आखिरी मौका था। खैर हमने खुद को संभाल लिया।
दीदु जान जा रही थीं तो हमें चिंता हुई। एक तो वो संकोची उस पर से उनके पर्युषण। तो हमने हमारी सीतापुर में रहने वाली छोटी बहन शैल से कहा। वो हमसे मिलने को लखनऊ आ रही थी वो भी अकेले। हमने जब कहा "हम नहीं आ रहे" तो उबल पड़ी। फिर हमने किसी तरह मनाया, और कहा" वो मेरी खातिर चली जाए और दीदु जान का ख्याल रखे। उनके खाने पीने का थोड़ा सा बंदोबस्त कर ले, और साथ ही प्रोग्राम बड़ा है इसलिए उनके मेकअप के लिए भी सामान ले आये। वो अगले दिन ही बाजार गई और पूरी सैलरी खर्च कर सिर्फ मेकअप नहीं खाने पीने का सामान भी ले आई। न जाने कैसे पर वो जानती थी हमें कितना बुरा लग रहा। वो जिद करने लगी। मगर हमने कह दिया, हम नहीं आ सकते।"
वो रुआंसी हो गई। फिर हमारी दी से बात की। और उनको फिर से प्रोग्राम कैंसल करने को राजी कर लिया। और हमसे बोली, "अगर अबकी बार कैंसल किया तो वहीं आकर पिटाई लगा देगी।" वो मान गई, अब घर वाले। उफ्फ्फ माँ तो ये जानकर कि प्रोग्राम हो रहा है आग बबूला हो गई। किसी बात पे राजी न हुई। फिर बड़ी मुश्किल से आज के बाद कहीं नहीं जाएंगे, ये वादा किया तब वो राजी हुई। आखिर हम जा रहे थे।
जिस दिन निकलना था उस दिन हमने पूरी बाजार छानकर और पूरी सैलरी उड़ाकर दो गिफ्ट बड़ी मुश्किल से पसन्द किये। जी तो चाहता था दीदु को कुछ ऐसा देकर आएं जो हमेशा उनके पास रहे। मगर न मिला हम बहुत दुखी हुए। मगर क्या करते। रात की ट्रेन थी, रिजर्वेशन न हुआ था, पहले जो रिजर्वेशन कराया था वो कैंसल करना पड़ा था। और उसके पैसे भी वापस न मिले थे। और फिर से रिजर्वेशन न हुआ। उसपर हम दो बहनें, जिन्होंने जिंदगी में कभी अकेले सफर दिन में भी न किया और रात को करने चल पड़े। बहुत मुश्किल से टिकट मिला। मगर सीट न मिली। लगा रात भर खड़े होकर जाना पड़ेगा। मगर किस्मत साथ थी। तो भाभी के पिताजी ने किसी तरह दो कैंसल किये गए रिजेवेशन की सीट हमको दिला दी और हम चल पड़े। रास्ते भर दूरी कितनी रह गई ये जानने को गूगल मैप में देखते रहे। उधर हमारी दोस्त और बहन शैल दीदु जान और हमारे लिए पूरी रात जगकर खाना बना रही थी, ऐसे में नींद कैसे आती। एक तो यकीन न हो रहा था कि हम जा रहे हैं दीदु से मिलने उस पर वो पगली। और इन सब में जयपुर में बैठी रानी दी हमारी खातिर पूरी रात जगती रही। हम शैल और रानी दी सारी रात जगे। तीनों बात करते रहे , हमें नींद न आ रही थी, शैल को नींद न आ जाये इसलिये, और हम अकेले सफर कर रहे हैं इसलिए हमारी फिक्र में रानी दी जगी थी।
7 सितम्बर की सुबह 5:30 हम लखनऊ में थे। स्टेशन पर 6 बजे शैल आई, और यूँ ग़ले से लगी जैसे सालों के बिछड़ें मिले। हम भी रोक नहीं पाए, आंख नम हो गई। उसे इतनी जोर से बांहों में भरा कि हमारी दी बोली, "ऐसे भी मिलते हैं।" तो वो बोली, "आप नहीं समझेंगे दी, आज आभासी रिश्ता हकीकत में बदल गया है।" जी तो किया रो लें, मगर धड़कन सम्भले तब तो, वो मजाक में बोली हमसे, बस थोड़ी देर में अपनी जान से मिल लोगी लत्तु, इतना न बेकरार हो। हमको शर्म सी आ गई। हमने उसे कहा, "चुप.. "
स्टेशन से दीदु के होटल के रास्ते भर हम अंदर ही अंदर कांपते रहे और बाहर जिस्म ठंडा पड़ा था। वो बोली, "लत्तु बस मिलने वाले हैं, सम्भाल अपने आपको।" हमसे मिलकर वो भी यूँ ही हो रही थी जबकि। उसकी आंख बार बार हम हो रही थी, तो हमने उससे कहा भी, की तुम पिटोगी अब, सामने आ तो गई मैं। फिर क्यों रोती है। थोड़ा सा रास्ता भटके और फिर होटल के सामने रिक्शा रुका। धक से दिल बैठ गया, एक पल को हम उतर ही न पाए। उसी ने उतारा। और बोली, "तुम अकेले जाओ, मैं पीछे आती हूँ।"
हमसे हम नहीं सम्भल रहे थे और वो थी हमें अकेले भेज रही थी, हमने कहा नहीं हम अकेले नहीं मिलेंगे। हमसे नहीं होगा। और फिर साथ उसका हाथ कसके पकड़ा हम दीदु के रूम की तरफ बड़े। हमने उसका हाथ रास्ते भर और होटल तक बहुत टाइट से पकड़ा था और उसने भी उतनी ही टाइट से पकड़ा था। जैसे जैसे कमरा आ रहा था, मन का डर और बढ़ रहा था, जो शुरू से उत्पन्न हुआ था, कि हम दीदु से जुदा होकर वापस कैसे आएंगे। आखिर हम रूम के बाहर पहुंचे कि...
एक छोटी सी औरत हमारे सामने दिखी। जैसा हमने हमारी दीदु को सपने में देखा था वो हूबहू वैसी ही थी। यहां तक कि हाइट और चेहरा मोहरा सब वैसा ही, मगर नाइट सूट में वो बिल्कुल छोटी बच्ची लग रही थी। उन्हें देखते ही दिल और जुबान दोनों से निकला "दीदु जान" और आंख भर गई। आँसू पलकों से न गिरे ये सोच पल भर को नजर उनसे हटाई और जब उठाई तो वो बाहें फैलाये दिखी। बस सिमट गए हम उन बांहों में, या न जाने उन्हें हमने समेट लिया था। बस दो मिनट लगे कि उन्होंने अलग कर दिया, उफ्फ शर्मीली..
हम और शैल दोनों बोले, थोड़ी देर लगा रहने दीजिए न दीदु जान, उन्होंने बात मान ली, और फिर 2 ही मिनट मिले। उसके बाद हम बस उन्हें देखते रहे पूरा दिन, उनका हाथ थामे रहे। उस दिन हम असली "मनोरमा जैन पाखी" (जिनका पूरा नाम हमने उस समूह में मिलने के 4 माह बाद जाना था) उर्फ़ अपनी दीदु जान से मिले। और जब आने की बारी आई तो किस्मत ने और मुश्किल कर दिया। वो रो रहे थे, और हम उन्हें रोता छोड़कर चले आये। उन्होंने हमें bye कहा। और हम उन्हें देखते देखते ही वापस आने को निकल गए।
स्टेशन पहुंचे तो ट्रैन का कोई पता न, किसी ने कहा ट्रेन सुबह आएगी। हम दो बहनें अकेले पूरी रात स्टेशन पर काटनी थी। मन ने कहा काश होटल में होते, अपनी जीजी माँ की गोद में सर रख या उनके सीने से लग सो जाते। आखिर हम 3 दिन से एक पल भी नहीं सोये थे खुशी के मारे। इंतजार करते करते आखिर ट्रेन रात को 2 बजे आई और हम चढ़े, सीट फिर से नहीं मिली। टिकट भी किस्मत से मिला। खड़े खड़े ही थोड़ी दूर चले, फिर एक लड़के ने हमें अपनी सीट दी और हम उसी में बैठे आधा सफर तय किया, और फिर बर्थ मिली और जागते हुए एक सपना जो काफी समय से आंखों में पल रहा था जीकर अपनी दुनिया में आ गए। कुछ खट्टी और कुछ मीठी बहुत मीठी यादें, आधी बातें कहकर, आधी मन के अंदर दबाकर आ गए। बस जो तूफान था दिल में वो रास्ते भर निकलता रहा।
