हाथी और रेडियो

हाथी और रेडियो

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दुनिया में ऐसे छोटे-छोटे रेडियो होते हैं, वे सचमुच के रेडियो से छोटे होते हैं, सिगरेट के डिब्बे जितने बड़े और उनका अन्टेना घूमता है। ओह, क्या ज़ोर से बजते हैं, पूरी कॉलोनी में सुनाई देता है ! ग़ज़ब की चीज़ है ! ये चीज़ मेरे पापा को उनके दोस्त ने प्रेज़ेंट की थी। इस रेडियो का नाम है ट्रान्सिस्टर। उस शाम, जब हमें वह दिया गया था, हम पूरे समय प्रोग्राम सुनते रहे। मैंने उसे अच्छी तरह से चलाना सीख लिया और अन्टेना को मैं कभी निकाल देता, कभी बाहर कर लेता, और सारे बटन घुमाता, और म्यूज़िक लगातार और ज़ोर से बजता रहता, क्योंकि मैं तो इस काम में इतना एक्सपर्ट हूँ कि पूछिए मत।

इतवार को सुबह मौसम एकदम साफ़ था, सूरज पूरे जोश से चमक रहा था, और पापा ने सुबह-सुबह कहा:

 “चल, जल्दी से तैयार हो जा, और फिर हम दोनों ज़ू-पार्क जाएँगे। काफ़ी दिनों से गए नहीं हैं, एकदम ‘बोर’ हो गए हैं।”

ये सुनकर मैं भी बहुत ख़ुश हो गया, और मैं जल्दी से तैयार हो गया। आह, मुझे ज़ू-पार्क में घूमना अच्छा लगता है, छोटी सी लामोच्का (दक्षिण अमेरिका में पाया जाने वाला ऊँट की जाति का जीव, जो बोझा ढ़ोने के काम आता है - अनु) को देखना और यह कल्पना करना अच्छा लगता है कि उसे हाथों में लेकर सहलाया जा सकता है ! और उसका दिल पागल की तरह धड़क रहा है, और वह अपने सुंदर, फुर्तीले पैरों से चढ़ रही है। और ऐसा लगता है कि अभी ज़ोर से टकरा जाएगी। मगर, कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाता है।              

या फिर छोटा सा टाइगर। उसे भी हाथों में लेना कितना अच्छा होता ! और वो तुम्हारी ओर डरी-डरी आँखों से देख रहा है। रूह एकदम पंजों में समा गई है। डरता है, बेवकूफ़, शायद सोचता है : शायद, मेरी मौत की घड़ी आ गई।

जंगली भैंसे की चारदीवारी के सामने खड़े होना और उसके बारे में सोचना भी अच्छा लगता है कि ये ज़िंदा पहाड़, जिस पर मानो सोच में डूबे बूढ़े का चेहरा लगा है, और तुम इस पहाड़ के सामने खड़े हो और तुम्हारा वज़न है सिर्फ पच्चीस किलो, और ऊँचाई 97 से।मी। जब तक हम चल रहे थे, मैं पूरे रास्ते ज़ू-पार्क की अलग अलग विभिन्नताओं के बारे में सोचता रहा और मैं बड़े सुकून से चल रहा था, उछल-कूद नहीं कर रहा था, क्योंकि मेरे हाथों में ट्रान्सिस्टर था, जिसमें म्यूज़िक गुनगुना रहा था। मैं उसमें एक स्टेशन से दूसरा स्टेशन बदल रहा था, और मेरा मूड बेहद अच्छा था। और जब हम पहुँच गए, तो पापा ने कहा : “ हाथी के पास,” क्योंकि ज़ू-पार्क में पापा को सबसे ज़्यादा हाथी पसन्द था। पापा सबसे पहले उसीके पास जाते, जैसे किसी बादशाह के पास जाते हैं। वो हाथी का हालचाल पूछते हैं, और बाद में जहाँ सींग समाए, वहीं चल पड़ते हैं। इस बार भी हमने ऐसा ही किया। हाथी, जैसे ही घुसते हो, सीधे हाथ पे खड़ा है, एक अलग कोने में, छोटे से टीले पे; दूर से ही उसका विशालकाय शरीर दिखाई देता है, जो चार खम्भों पर खड़े किसी अफ्रीकन झोंपड़ें जैसा होता है।

उसकी फेन्सिंग के पास लोगों का एक बहुत बड़ा झुण्ड खड़ा था, जो उसे देखकर ख़ुश हो रहा था। उसका प्यारा-सा, मुस्कुराता-सा चेहरा दिखाई दे रहा था, वह तिकोने होंठ से कुछ बुदबुदा रहा था। मैं फ़ौरन भीड़ में से रास्ता बनाता हुआ हमारे शैंगो के पास पहुँचा (उसका नाम शैंगो था, वो इण्डियन हाथी महमूद का बेटा था – ऐसा उसकी फेन्सिंग के पास लगे ख़ास बोर्ड पर लिखा था।)

पापा भीड़ में से रास्ता बनाते हुए आगे आए और चिल्लाए:

 “गुड मॉर्निंग, शैंगो महमूदविच !”

और हाथी ने देखा और ख़ुशी से सिर हिलाया। जैसे कि कह रहा हो, “ओह, नमस्ते, नमस्ते, आप कहाँ थे इतने दिन ?”

और आसपास के लोगों ने मुस्कुराकर और कुछ ईर्ष्या से पापा की ओर देखा। और मुझे भी, सच कहूँ तो, बड़ी जलन हुई, कि हाथी ने पापा की बात का जवाब दिया। और मेरा भी दिल करने लगा कि शैंगो मेरी तरफ़ भी ध्यान दे, और मैं ज़ोर से चिल्लाया:

 “शैंगो महमूदविच, नमस्ते ! देखिए, मेरे पास क्या है।”

और मैंने पापा का ट्रान्सिस्टर अपने सिर के ऊपर उठा लिया। ट्रान्सिस्टर से म्यूज़िक आ रहा था, वह कई सारे सोवियत गाने बजा रहा था। शैंगो महमूदविच मुड़ा और म्यूज़िक सुनने लगा। अचानक उसने अपनी सूँड ऊपर उठाई, उसे मेरी ओर बढ़ाया और अचानक हौले से मेरे हाथों से इस नासपीटे ट्रान्सिस्टर को छीन लिया।

मैं तो एकदम बुत बन गया, हाँ, और पापा भी। और पूरी भीड़ भी बुत बन गई। शायद, सब सोच रहे थे कि अब आगे क्या होता है : वापस दे देगा ? ज़मीन पर पटक देगा ? पैरों से कुचल देगा ? मगर शैंगो महमूदविच, शायद सिर्फ म्यूज़िक सुनना चाहता था। उसने न तो ट्रान्सिस्टर को तोड़ा, ना ही उसे वापस दिया। वह ट्रान्सिस्टर पकड़े था – और बस ! वह म्यूज़िक सुन रहा था। और तभी, बदकिस्मती से, म्यूज़िक रुक गया, शायद, उनके पास कोई ‘ब्रेक’ था, मालूम नहीं। मगर शैंगो महमूदविच सुनता रहा। उसके भाव ऐसे थे कि वो इंतज़ार कर रहा है कि कब ट्रान्सिस्टर बजना शुरू होगा। मगर, शायद लम्बा इंतज़ार करना था, क्योंकि ट्रान्सिस्टर ख़ामोश था। और तब, शायद, शैंगो महमूदविच ने सोचा : ये बेकार की चीज़ मैं क्यों अपनी सूँड में उठाए हूँ ? ये बज क्यों नहीं रहा है ? देखूँ तो, इसका स्वाद कैसा है ?

और, ज़्यादा सोच-विचार किए बिना, इस बिन्दास हाथी ने सीधे अपनी सूँड के नीचे, अपने नमदे जैसे बड़े मुँह में मेरे शानदार ट्रान्सिस्टर को घुसा दिया, हाँ, उसने उसे चबाया नहीं, बस, सिर्फ़ ऐसे रख लिया जैसे किसी सन्दूक में रख रहा हो, और, मुलाहिज़ा फ़रमाईये, गटक लिया।     

भीड़ दोस्ताना अंदाज़ में ‘आह ! आह !’ कर उठी और सकते में आ गई। और हाथी ने एक धृष्ठ मुस्कान से इस अचंभित भीड़ की ओर देखा और दबी-दबी आवाज़ में कहा:

“अब हम सामूहिक एक्सरसाईज़ शुरू करते हैं ! और !”

और उसके भीतर से कोई जोश भरा संगीत गूंजने लगा। अब तो सब लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए, उनके पेट, बस फटने ही वाले थे, वे हँसी के मारे कराह रहे थे : इस जंगली शोर में और कोई आवाज़ें सुनाई नहीं दे रही थीं। हाथी एकदम शांति से खड़ा था। सिर्फ आँखों से बदमाशी झाँक रही थी।

और जब सब धीरे-धीरे शांत होने लगे, तो हाथी के मुँह से कुछ दबी-दबी मगर स्पष्ट आवाज़ सुनाई दी:

 “अपनी जगह पर तेज़ कूद, एक-दो, तीन-चार।”

और भीड़ में, संयोग से, बहुत सारे लड़के और लड़कियाँ थे, और जब उन्होंने ‘तेज़-कूद’ के बारे में सुना, तो ख़ुशी के किलकारियाँ मारने लगे। और फ़ौरन इस काम में शामिल हो गए:

 एक-दो-तीन-चार। वे मज़े से कूद रहे थे। और किलकारियाँ मार रहे थे, और दहाड़ रहे थे, और अलग-अलग करतब कर रहे थे। क्या बात है ! हाथी की कमाण्ड में कूदना किसे अच्छा नहीं लगता ? ऐसे में तो हर कोई कूदने लगेगा। मैं भी फ़ौरन कूदने लगा। जबकि मैं अच्छी तरह समझ रहा था कि चाहे और लोग कूदें या न कूदें, मुझे तो सबसे कम कूदना और ख़ुश होना चाहिए। असल में तो मुझे रोना चाहिए था। मगर इसके बदले, जानते हैं, मैं गेंद की तरह उछल रहा था : एक-दो-तीन-चार ! और ऐसा लग रहा था कि मेरा ट्रान्सिस्टर छीन लिया गया है और इससे मुझे खुशी हो रही है। इस बीच एक्सरसाईज़ चलती रही। अब हाथी अगली एक्सरसाईज़ की ओर बढ़ा।

 “हाथों की मुट्ठियाँ बांधो, मुक्के हिलाने की और धक्का देने की एक्सरसाईज़। एक-दो-तीन !”

बेशक, अब तो हंगामा होने लगा। बस, समझ लीजिए कि यूरोपियन बॉक्सिंग चैम्पियनशिप हो रही है। कुछ लड़के और लड़कियाँ तो पूरी संजीदगी से यह एक्सरसाईज़ कर रहे थे और एक दूसरे को ऐसे धुनक रहे थे, कि अंजर-पंजर ढीले हो गए। वहाँ से गुज़रती हुई एक दादी-माँ ने किसी बूढ़े आदमी से पूछा:

 “यहाँ ये क्या हो रहा है ? कैसी मारपीट है ?”

और उसने उसे मज़ाक में जवाब दिया:

 “आम बात है। हाथी पब्लिक से फिज़िकल एक्सरसाईज़ करवा रहा है।”

दादी माँ का मुँह खुला रह गया।

मगर शैंगो महमूदविच अचानक चुप हो गया, और मैं समझ गया कि मेरा रेडिओ उसके पेट में टूट ही गया है। बेशक किसी आँत-वाँत में घुस गया होगा और – हमेशा के लिए खो गया। इसी समय हाथी ने मेरी ओर देखा और, दुख से सिर हिलाते हुए, मगर काफ़ी उलाहने के साथ गा उठा:  “क्या तुझे अभी भी याद है, कैसे सुख की घड़ी थी वो ?”

मैं दुख के मारे रोने-रोने को हो गया।क्या मुझे याद है ? ये भी क्या बात हुई ! अगर एक पल और बीतता तो मैं मुक्कों से उस पर पिल पड़ता। मगर तभी उसके पास नीले एप्रन में एक आदमी आया। उसके हाथों में हरी-हरी टह्नियाँ थीं, क़रीब पचास या शायद और भी ज़्यादा, और उसने हाथी से कहा:

 “ठीक है, ठीक है, दिखा, दिखा, तेरे भीतर ये क्या बज रहा है ? मगर हौले से, हौले से, देख मैं तेरे लिये टहनियाँ लाया हूँ, अच्छा, अच्छा, खा ले।”

और उसने टहनियाँ हाथी के सामने रख दीं।

 शैंगो महमूदविच ने बेहद सावधानी से उस आदमी के पैरों के पास मेरा ट्रान्सिस्टर रख दिया।

मैं चिल्लाया:

 “हुर्रे !”

 बाकी के लोग भी चिल्लाए:

 “वन्स मोर !”

और, हाथी मुड़ गया और टहनियाँ चबाने लगा। उस कर्मचारी ने चुपचाप मुझे मेरा ट्रान्सिस्टर दे दिया, - वह गरम था और उस पर लार चिपकी थी।

मैंने और पापा ने घर आकर उसे शेल्फ पर रखा और अब हम हर शाम उसे चलाते हैं। क्या बजता है ! बिल्कुल अफ़लातून ! सुनने के लिए आइये !


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