एक लघुकथा "अपशगुन"
एक लघुकथा "अपशगुन"
दादा-दादी जी के पचासवीं वर्षगांठ पर हम सभी गांव गये थे। अगले दिन ही समारोह था। दादा जी ने द्वार पर खड़े आम का पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा, "इसे आज कटवा देते हैं, इसके छाया की वजह से जमीन का बड़ा हिस्सा बेकार है। कुछ उपजता भी नहीं! द्वार भी बड़ा लगेगा।" तभी दादी मां बोली,"ऐसा क्यों कह रहे हैं, मैं जब ब्याह कर आई थी तभी से अपने द्वार पर है।" उन्होंने मुझसे कहा था कि, " कौशल्या मेरे बाद इस आम के पेड़ का ख्याल रखना। ये हर वर्ष असंख्य फल देता है, पथिकों को छांव, अनगिनत पक्षियों के नीड़ हैं इसके शाखाओं पर साथ ही लग्न के समय, रीति- रिवाज निभाने यहां की महिलाएं आती हैं और मेरी भी सभी से मुलाकात हो जाती है। मैं ये पेड़ नहीं कटने दूंगी।" दादा जी कुछ सुनने को तैयार नहीं थे! तभी लकड़हारा आ पहुंचा, दादी जी की आंखें छलक आई, परेशान होकर वो कभी आंगन में जातीं कभी आम के पेड़ पास खड़ी होकर उसे निहारती, उसे सहलाने लगती। ऐसा लग रहा था कि उनके किसी अपने को काटने की बात हो। फिर म
िन्नतें करने लगीं बोली, "इसने आपका क्या बिगाड़ा है, इसे काटकर आप खुशियां कैसे मना सकते हैं? फिर दादा जी गुस्से में बोले "कौशल्या ये पेड़ है तुम्हारा रिश्तेदार नहीं!" दादी जी झल्लाती हुई बोली, "ये अनर्थ हो रहा है, हरा-भरा पेड़ काटना अपशगुन होता है।" दादा जी बोले "अंधविश्वास में जीना छोड़ो।" जैसे ही पेड़ पर पहली कूल्हाड़ी चली, दादी जी रोते हुए आंगन में चली गई, जैसे कूल्हाड़ी उन्हीं पर चल रही हो।" पेड़ कटकर गिरने की आवाज सुनकर दादी जी चुप हो गई और बोली, "बहु मैं भोजन नहीं करूंगी! अपशगुन हो चूका है!ना ही कभी कभी तेरे ससुर जी से बात! और वो सोने चलीं गईं।" सुबह-सुबह हम सभी मिलकर उन्हें पचासवीं वर्षगांठ पर उन्हें बधाई देने कमरे में गए तो देखकर यूं लगा कि "दादी जी की खुली आंखें और रुकी सांसें ये कह रहीं थी कि सचमुच अपशगुन हो गया।" "कल दादी जी रो रही थी आज पूरा घर विलाप कर रहा है।" "मैं सोच रही थी कि ये अपशगुन है या एक संयोग।"