बुढ़ापा और बचपन
बुढ़ापा और बचपन
रात की गहरी नींद के बाद सुबह ऐसे ही लेटा था। तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। खोला तो पाया कि बुढ़ापा दरवाजे पर बेसब्री से खड़ा था। उसने कहा “रतन, अब तुम्हारी उम्र 56 की हो गयी है। कुछ ही सालों में तुम बुढ़ापे में कदम रखोगे। अरे क्या अंदर नहीं बुलाओगे? बुढ़ापे में खड़े खड़े पैर दुख जाते हैं।"
मैंने कहा, “नहीं, नहीं, अभी तुम अंदर नहीं आ सकते। अभी तो मुझे कई काम करने हैं। दोस्तों के संग जीवन की मस्ती क्या होती है उसे सही मायनों में जानना है, घूमना है, नाचना है। परिवार के लिए बहुत कुछ कर लिया, अब खुद के लिए कुछ करना है। पर्यटन पर जाना है। सामाजिक संस्थाओं से अभी अभी जुड़ना शुरू किया है, तुम अभी आ जाओगे तो फिर मेरे बुढ़ापे का क्या होगा? बुढ़ापा तो फिर यूं ही लाचार बेकार कुर्सी पर बैठे बैठे ही गुजर जाएगा, बिलकुल बेमानी सा। नहीं नहीं भाई, अभी तुम अंदर नहीं आ सकते।"
बुढ़ापा मंद मंद मुस्कुराया। उसने अपना हाथ बढ़ाया। उसने कहा, “मेरे पास एक प्रस्ताव है, पर थोड़ी देर के लिए अंदर आने तो दो, मेरे पास बैठना पर मुझसे मत जुड़ना।"
मैंने बुढ़ापे को अंदर बुलाया। उसने कहा, “मैं तुम्हारी बात समझ गया। मेरा यह कहना है कि प्रकृति के सतत नियम कि अवहेलना तो हम नहीं कर सकते। हाँ इसमें कुछ बदलाव कर सकते हैं। मैं कुछ आयोजन करता हूँ कि तुम्हारी उम्र तो बढ़ेगी, हाँ बुढ़ापा जब तक तुम चाहोगे तुम पर हावी नहीं होगा।
मैंने खिड़की की ओर देखते हुए कहा, “यह ठीक है।"
तभी मुझे दरवाजा खुलने और बंद होने का आभास हुआ। मुड़ कर देखा तो बुढ़ापा जा चूका था। मैंने गहरी सांस ली और पार्क जाने के लिए कदम बढ़ाया। तभी फिर दरवाजे की घंटी बजी। मैं घबरा गया। खैर, घबराते हुए आँख बंद कर मैंने दरवाजा हौले से खोला। एक खिलखिलाने की आवाज़ आई। मैंने आँखें खोली तो पाया कि बचपन मेरी ओर टकटकी लगाए दरवाजे पर खड़ा था।
तभी मेरा सपना टूट गया। बहुत तरोताज़ा महसूस हो रहा था एक नई शुरुआत के लिए।