बुजी और पाटू अंकल

बुजी और पाटू अंकल

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दोस्तों  आप यकीन करें या न करें। लेकिन जो कहानी मैं आपको सुना रहा हूँ उसका मुख्य पात्र एक ऐसा आदमी है जिसे लोग भिखारी कहते हैं। एक ऐसा भिखारी जो कि लोगों के ताने सुनता है, लोगों से बातें करता है, हर जगह अपनी टाँग अड़ाने की कोशिश करता है। कोई उसे सुने या न सुने, किसी को उसमें दिलचस्पी हो या न हो लेकिन वह हर जगह अपनी उपस्थिति का एहसास कराते हुऐ  लोगों से यह चाहता है कि लोग उसके साथ इज्जत से पेश आएँ।

  लेकिन दोस्तों कभी कोई आदमी किसी भिखारी से सहृदय से पेश आया है? कभी किसी ने किसी भिखारी की इज्जत की है? कभी किसी ने किसी भिखारी के साथ रोटी खाई है, या फिर किसी भिखारी के साथ किसी ने बैठकर चाय पी है?

  नहीं न...? लेकिन उस भिखारी के साथ ऐसा नहीं होता था। लोग उसके साथ हँसते हुऐ , बातें करते हुऐ , खाना खाते हैं। कभी उसे ताने देते हैं, तो कभी उसके ताने सुनते हैं। उससे गुटखा माँग कर खाते हैं। उसके हाथ का बना हुआ खाना खाते हैं। क्यों खाते हैं? क्योंकि वह एक लखपति भिखारी है।

  अब आप मन ही मन में सोच रहे होंगे कि ऐसा भी कोई भिखारी होता है भला…? भिखारी तो वह होता है जो भीख माँगकर अपना गुजारा करता है। जिसे देखते ही लोग थूकने लगते हैं। दरवाजे पर आते ही उसे भगाने लगते हैं। यह तो कोई भिखारी नहीं हुआ। जो भीख न मांगे वह भिखारी कैसा?

  आप सच कह रहे हैं दोस्तों , वह भीख माँगता  है। मगर उसका भीख माँगने का अपना अलग ही तरीका है। आप मेरी बात पर बिश्वास नहीं कर रहे हैं न…? लेकिन मैं सच कह रहा हूँ।…वह एक लखपति भिखारी था। उसका अपना घर था, अपनी बीवी थी, प्यारी सी एक नन्हीं बच्ची थी,शालू…, जो कि सही ढंग से बोल भी नहीं पाती थी।

  लेकिन अब न उसकी बीवी है, और न ही उसकी नन्हीं बच्ची, जो कि घर में भागती रहती थी, छोटी-छोटी चीजों को फेंकते हुऐ  हँसने लगती थी,जिसकी किलकारियाँ घर में गूँजती रहती थी, लेकिन अब सब शांत है। सन्नाटा है...। यादों के अलावा उसके पास कुछ नहीं है। दीवार पर उस बच्ची की तस्वीर पर अब फूलों की माला टँगी रहती है, जो कि हवा के झोंकों के टकराते ही हिलती रहती है। अगर उसकी पत्नी राजी उसे छोड़कर न जाती तो शायद  जिन्दा शालू होती।

  राजी पारथो को छोड़कर क्यों गई? इसका खुलासा भी कहीं न कहीं कहानी में आगे हो ही जाएगा।

  लगता है अब आपको कहानी पढ़ने में मजा आने लगा है। लेकिन एक बात मैं आपको स्पष्ट रूप से बता देना चाहता हूँ, कि कहानी में भी कई टेढ़े-मेढ़े ऊबड़-खाबड़ रास्तों के अलावा गड्ढे भी आते हैं। लेकिन किसी नदी की तरह इन ऊबड़-खाबड़ रास्तों को, गढ्ढों को रौंदते हुऐ  कहानी भी आगे बढ़ती रहे, इसलिए इस कहानी को आगे बढ़ाने के लिए मुझे कहानी के नायक को एक कल्पित नाम देना होगा।…चलिए मैं आपसे ही पूछ लेता हूँ दोस्तों  कि मैं उसका क्या नाम रखूँ ?..”

   आप कुछ कह रहे हैं शायद ?

  अरे हाँ...आप कहानी के नायक का एक कल्पित नाम बता रहे हैं न ? क्या नाम बताया आपने...? अरे वाह! कितना प्यारा व सुन्दर नाम बताया आपने, पारथो…। सचमुच ही बहुत सुन्दर नाम है !

  दोस्तों  पारथो इस कहानी का एक महत्वपूर्ण पात्र है। लेकिन मुझे ऐसा लग रहा है जैसे कि आप कुछ परेशान से नजर आ रहे हैं। शायद आप सोच रहे होंगे कि पारथो के जीवन में दो शब्द एक साथ कैसे आ गऐ , लखपति भी, और भिखारी भी...! आज तक तो कभी ऐसा नहीं हुआ?

  लेकिन यही हुआ है दोस्तों । यही तो कहानी की असली जान है। अगर मैं दोनों शब्दों में से किसी एक शब्द को हटाता हूँ तो कहानी फुस्स...अर्थात कहानी  खत्म हो जाएगी।

  आप मुझे इस तरह से क्यों घूर रहे हैं?

  मैंने कुछ गलत कह दिया है क्या,  लगता है आप मेरी बात को नहीं समझे, चलिए मैं समझाता हूँ। अगर मैं लखपति शब्द हटाता हूँ तो कहानी खत्म, और भिखारी शब्द हटाता हूँ तब भी कहानी खत्म। इसलिए दोनों ही शब्द अति उपयोगी, अति भ्रामक, अति हृदय स्पारक, और अति विवेचनात्मक।

  अति विवेचनात्मक इसलिए कि अगर कोई निष्पक्षक आलोचक इस कहानी को पढ़ेगा तो वह निष्पक्ष होकर इसकी आलोचना करेगा। अति हृदयस्पारक इसलिए कि आपने आज तक कई कहानियाँ पढ़ी होंगी। लेकिन ऐसी कहानी नहीं पढ़ी होगी, जिसमें किसी युवक ने एक मोर से दोस्ती की हो। इसलिए यह कहानी आपके हृदय पटल पर जो छाप छोड़ेगी, वैसी छाप आजतक किसी कहानी ने आपके हृदय पटल पर नहीं छोड़ी होगी। अति भ्रामक इसलिए कि इस कहानी को पढ़कर जो भ्रम आपको होगा, वैसा भ्रम आजतक आपको किसी कहानी को पढ़कर नहीं हुआ होगा। अति उपयोगी इसलिए कि एक बार पढ़ने के बाद भी आप इस कहानी को बार-बार पढ़ना चाहेंगे, यह सोचते हुऐ  कि एक लखपति भिखारी कैसे हो गया? पड़ गऐ  न आप भ्रम में, शायद आपको यह झूठ लग रहा होगा। लेकिन दोस्तों  यह सच है।

  अब अगर आपकी इजाजत हो तो मैं कहानी सुरू करूँ? चलिऐ ...आपकी इजाजत मिली, और अब हम कहानी सुरू करते हैं। देखते हैं कि आगे क्या होता है।  

  दोस्तों  पारथो एक ऐसा भिखारी था। जो सड़क के किनारे, किसी बस अड्डे पर, चलती हुई बसों में, रेल गाड़ियों में, शहर-शहर, गाँव-गाँव व गली-गली में अन्य भिखारियों की तरह भीख नहीं मांगा करता था। वह सुबह से शाम तक लोगों के झूठे बर्तन धोते हुऐ  मेहनत करता था। अब आप सोच रहे होंगे कि कप-प्लेट धोने वाला तो लखपति हो ही नहीं सकता। हो सकता है कि वह किसी लखपति या करोड़पति के घर में काम करता रहा होगा, और मौका मिलते ही या तो उसने डाका डाला होगा या फिर मालिक की हत्या कर तिजोरी पर हाथ साफ कर लिया होगा।   

  नहीं दोस्तों ...ऐसा नहीं हुआ। आप जो सोच रहे हैं वह गलत है। पारथो न तो किसी के घर में काम करता था, और न ही किसी की कोई नौकरी ही करता था। बल्कि वह एक आफिस की एक छोटी सी कैंन्टीन चलाता था। इसी कैन्टीन को चलाते हुऐ  वह लखपति बन गया था।

  लेकिन अब आपके दिल में यह बात रह-रह कर उबलते हुऐ  पानी के किसी बुलबुले की तरह उठ रही होगी कि पारथो फिर भिखारी कैसे हो गया? फिर लोग उसे भिखारी क्यों कहने लगे? आपका सोचना सही है, और आप को इन तमाम बातों को जानने का भी पूरा अधिकार है। लेकिन दोस्तों  इसका खुलासा भी कहानी में आगे कहीं न कहीं हो ही जाएगा। इसलिए मेरा आपसे निवेदन है कि इन बातों को जानने के लिए आप कहानी को धैर्य पूर्बक पढ़ते रहें। अगर आपने कहानी को बीच में ही छोड़ दिया तो न आपको पारथो के बारे में ही पता चल पाएगा और न ही उस भिखारी के बारे में, जिसने पारथो को श्राप दिया था, और न ही आपको उस मोर के बारे में ही पता चलेगा जो पारथो का दोस्त बन गया था।

  तो दोस्तों  अब आगे चलते हैं।

  क्या आपको नहीं लगता कि किसी भिखारी ने पारथो को श्राप दिया हो…?

  नहीं न...!

  लेकिन दोस्तों  पारथो का कहना था कि उसे किसी भिखारी ने श्राप दिया था। उस भिखारी ने पारथो को कैसा श्राप दिया था, यह आप पारथो के मुँह से ही सुन लीजिए।

  एक बार पारथो कहीं जा रहा था। तभी उसे रास्ते में एक भिखारी दिखाई दिया, जो अपनी आँखों पर काला चश्मा लगाए सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे बोरी बिछाकर भीख माँगने बैठा हुआ था। भीख माँगने के लिए उसने अपने सामने एक बर्तन रखा हुआ था। जिसमें दस-दस रुपये के कुछ नोट पड़े हुऐ  थे।

  पारथो ने उस भिखारी की ओर देखा, तो अचानक ही उसके मन में खयाल आया कि, ‘नेकी कर दरिया में डाल’ और फिर उसने अपनी जेब में से एक रुपये का सिक्का निकाल कर जैसे ही भिखारी के बर्तन मे डाला वैसे ही उस भिखारी ने पारथो का हाथ पकड़ कर उसका एक रुपये का सिक्का उसे पकड़ाते हुऐ  कहा, “स्साले तेरी माँ का रमचौड़ा। बस्स...इतनी ही औकात है तेरी? कँगला है तो मेरे साथ बैठकर भीख क्यों नहीं माँग लेता? भीख माँगेगा तो शाम को ढाबे पर बैठकर रोटी भी खाऐगा, और पौव्वा भी पिऐगा। आज के भिखारी बिना दारू पिऐ  खाना नहीं खाते। तेरी माँ का रमचौड़ा...।”

  भिखारी के शब्दों को सुनकर पारथो सकपका गया था। सड़क पर आने-जाने वाले लोग भिखारी की बातों को सुनकर हँसने लगे थे। पारथो की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, क्या न करे? जब कि भिखारी उसका हाथ पकड़े कहे जा रहा था, “मेरे बर्तन में एक रुपया ऐसे डाल रहा है जैसे कि तू चन्द्रगुप्त बिक्रमादित्य का सिंहासन खरीदकर ला रहा हो। आज के जमाने में एक रुपये में आता ही क्या है? कौन से जमाने में जी रहा है तू, अंग्रजों का वह जमाना लद गया, जब एक रुपये में खाना मिलता था। अकड़ते हुऐ  मेरे बर्तन में एक रुपया ऐसे डाल रहा है जैसे कि कुबेर का खजाना डाल रहा है। दीवार पर लगी लिस्ट को पढ़कर भीख देना सीख। तेरी माँ का अचम्भे में पड़ गया था।...।”               

  पारथो ने दीवार पर अपनी नजरें गड़ाई तो वह अचम्भे में पड़ गया था।  दीवार पर एक लिस्ट लगी थी जिस पर लिखा था।  

  प्याज- 100 रु0 किलो

  आलू- 40 रु0 किलो

  बैंगन- 60 रु0 किलो

  मूली- 30 रु0 किलो

  इन शब्जियों के नीचे लिखा हुआ था। देश के अन्दर बहुत महँगाई हो गई है। इस महँगाई के दौर में अगर आप इतनी महँगी शब्जी खरीद सकते हैं, तो इस भिखारी की भूख एक रुपये में शांत नहीं होगी। इसलिए भीख देने वाले इज्जतदार लोगों से निवेदन है कि वे दस रुपये से नीचे भीख में एक या दो रुपये देने की कृपा न करें। वैसे भी रिर्जब बैंक ने एक व दो रुपये के सिक्कों का छापना बंद कर दिया है। मंहगाई के इस दौर में हर चीज के रेट बढ़ने के साथ-साथ हमारा भीख माँगने का हिस्सा भी बढ़ गया है।

  तभी ‘राम नाम सत है, सत बोलो गत है।’ की आवाज सुनकर पारथो चैंक पड़ा था। उसने आवाज़ की तरफ देखा, किसी बूढ़े की अर्थी जा रही थी। अर्थी के साथ चलने वाले लोगों के बीच में से एक आदमी तेजी से उस भिखारी के पास आया और चुपचाप 50 रुपये का नोट भिखारी के बर्तन में डालकर चला गया।

  उस भिखारी ने 50 रुपये का नोट अपने हाथ में उलट-पुलट कर देखते हुऐ  पारथो से कहा, ‘देखा...इसे कहते हैं दानबीर!...एक दानबीर कर्ण था,और एक दानबीर ये है, जो कि मुझे 50 रुपये का नोट देकर गया है। लेकिन वह 50 रुपये देकर क्यों गया, जानता है तू...?’

  वह चुपचाप रहा।

     “अबे जानता है कि नहीं...? तेरी माँ का रमचौड़ा...!

  एक बार तो पारथो के मन में आया कि वह उस भिखारी के चेहरे पर दो लातें जमा दे। लेकिन वह जानता था कि अगर उसने कुछ गलत किया तो आस-पास बैठे अन्य भिखारी मार-मार कर उसके थोबड़े का चबूतरा बना देंगे। इसलिए शांत रहते हुऐ  उसने कहा, ”नहीं...।”

   इसके दो कारण हो सकते हैं।

  पहला कारण यह हो सकता है कि अगर वह उस मरने वाले का अपना हुआ तो वह उसके गुनाहों को कम करने के लिए 50 रुपये दे गया है।

  दूसरा कारण यह हो सकता है कि अगर वह कोई दूसरा ही हुआ तो उस बूढ़े की अर्थी को देखकर वह समझ गया होगा, कि एक दिन उसने भी उस बूढ़े की तरह चार कंधों पर जाना है। इसलिए वह अपने गुनाह कम करने के लिए 50 रुपये भीख में दे गया है, और तू एक रुपया दे रहा है। तेरी माँ का रमचौड़ा (पेटीकोट)।”

  कहते हुऐ  उस भिखारी ने पारथो के हाथ में 10 रुपये का नोट रखते हुऐ  कहा, "ये ले 10 रुपये, तू भी क्या याद करेगा, कि एक भिखारी ने दूसरे भिखारी को भीख दी थी।”

  दूसरे दिन पारथो कैन्टीन में चाय पिलाते हुऐ  जब यह घटना लोगों को सुनाता तो लोग जोर-जोर से हँसने लगते। कुछ मजाकिया किस्म के लोगों ने चाय सुड़कते हुऐ  पारथो से कहा, "अबे...ठीक ही तो कहा उसने। तू हमारी बात मान, और कल से उसी के पास जाकर बैठना सुरू कर दे। हींग लगे न फिटकरी, रंग निकले चोखा।”

  लेकिन आज पारथो उस भिखारी को याद करते हुऐ  कहता है कि उसने जो श्राप उसे दिया था, वह सच हो गया है। न उसकी बीवी ने साथ दिया और न ही उसके घर वालों ने ही...। एक मात्र वह मोर था जो कि जाते हुऐ  अपनी दोस्ती का हक अदा कर गया था। अगर वह मोर न होता तो पारथो शायद आज इस दुनियां में न होता। आज भी पारथो दिन में खाना खाते हुऐ  रोज उसे आवाज लगता है, आ...आ...दोस्त आ...!'

  लेकिन मोर जब एक बार गया तो फिर लौटकर नहीं आया।

  आज पारथो बिल्कुल अकेला है। लोग उसी के मुँह पर कहते हैं कि, 'अबे भिखारी तेरी औक़ात ही क्या है...? अगर तेरे करम सही होते तो तेरी पत्नी तुझे छोड़कर ही क्यों जाती? अच्छा ही हुआ कि वह चली गई। अन्यथा तेरे साथ रहकर जिल्लत की ज़िन्दगी जीते हुऐ  या तो वह आत्महत्या कर लेती या फिर किसी के साथ भाग जाती।

  दोस्तों  मैं जानता हूँ कि आपके दिल में इन सब बातों को जानने के लिए एक अजीब सी हलचल मचने लगी है कि पारथो की पत्नी उसे छोड़कर क्यों गई, मोर ने अपनी दोस्ती का हक कैसे अदा किया, लेकिन इन सब बातों को जानने के लिए हमें पारथो के जीवन में झांकना जरूरी है। उसके लिए हमें कहानी को फ्लैशबैक में ले जाना होगा। लेकिन इसके लिए मुझे पहले हल्का होना पड़ेगा। हल्का इसलिए कि मुझे ज़ोर का पेशाब आ रहा है। कड़ाके की ठंड है, और आप यह अच्छी तरह से जानते हैं कि ठंड में पेशाब बार-बार आता है। अब अगर मैं एक मिनट भी रुका रहा तो मेरी पैंट खराब हो सकती है।

  जब तक मैं वापस आता हूँ, तब तक जो लोग बीड़ी पीते हैं वे बीड़ी के सुट्टे लगा लें, और जो लोग गुटखा खाते हैं, वे गुटखा खा लें। लेकिन दीवार पर थूकने की चेष्टा न करें। वो...सड़क के किनारे लम्बी-लम्बी झाड़ियाँ देख रहे हैं न आप...! मैं खाली होने वहीं जा रहा हूँ। बस्स...मैं यों गया और यों आया।

  कुछ देर बाद

  आप सभी को कुछ देर के लिए मेरा इन्तजार करना पड़ा। इसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। सच कहूँ तो हल्का होने के बाद मुझे चैन मिला। ऐसा लग रहा था कि अगर थोड़ी सी भी देर हुई तो नसें फट जाऐंगी। और पेशाब छरड़...छरड़...करते हुऐ  बाढ़ के पानी की तरह निकल पड़ेगा।

  अब तक बीड़ी पीने वालों ने बीड़ी के सुट्टे लगा लिए होंगे, और गुटखा खाने वाले कई बार थूक चुके होंगे। किसी ने पच...पच, करके थूका होगा,तो किसी ने अपना गला खंखारते हुऐ  आक थू...करके थूक लिया होगा।

  तो चलिए अब मैं आपको पारथो के जीवन में लिए चलता हूँ।

  साथियो अगर परिवार में मुखिया न हो, और औरत अनपढ़ हो तो परिवार की स्थिति चरमर्रा जाती है। यही पारथो के साथ हुआ। पारथो अपने भाइयों व बहिन में तीसरे नम्बर पर था, और उसके बाद उसके दो छोटे भाई थे। उन पाँचों में दो-दो साल का अन्तर था। पारथो का सबसे बड़ा भाई सारथो मात्र 12 साल का था। और सबसे छोटा चार साल का था। पिता के न होने के कारण पारथो की माँ शान्ती देवी नौकरी कर रही थी। शान्ती देवी सुबह अपनी ड्यूटी पर जाती और शाम को वापस लौट आती। यही कारण था कि कोई भी सही ढंग से नहीं पढ़ सका। लेकिन पारथो की बहिन सुनयना ने दसवीं पास करने के बाद अपनी मर्जी से शादी कर ली थी।

  बाद में सारथो को एक प्राइवेट स्कूल में चपरासी की नौकरी मिल गई थी, और पारथो को एक सरकारी आफिस में कैन्टीन । जिसका एक दरवाजा अन्दर आफिस के लिए खुलता था, और एक दरवाज बाहर सड़क की तरफ खुलता था। सड़क पर सुबह से लेकर रात दस बजे तक अच्छी चहल-पहल रहती। जिसके कारण पारथो की आमदानी अच्छी हो जाया करती थी।

  कैन्टीन चलाते हुऐ  पारथो को अभी एक साल भी नहीं हुआ था कि एक दिन, एक मोर उसकी कैन्टीन के पास आकर चरने लगा। पारथो ने मट्ठी के  टुकड़े मोर के लिए डाले, तो उस दिन के बाद से मोर रोज ही पारथो की कैन्टीन में आने लगा था। वह जब भी आता, जितनी बार आता, पारथो उसके लिए कुछ न कुछ जरूर डाल देता।

  पहले-पहले तो मोर पारथो के पास आने से डरता था। इसीलिए वह पारथो से एक सामान्य दूरी बनाऐ रखता। लेकिन धीरे-धीरे उनकी ये दूरियाँ सिमटती गई और वे एक दूसरे के करीब आकर एक दूसरे के दोस्त बन गऐ  । मोर को अपने पास बुलाने के लिए पारथो ने उसका नाम, ‘बुजी’ रख लिया था। वह मोर को अपने पास बुलाने के लिए आवाज लगाते हुऐ  कहता, “आ...आ...बुजी आ...। आ...आ...दोस्त आ...।”

  पारथो की आवाज़ सुनकर बुजी उसकी गोद में जाकर बैठ जाता था।

  बुजी ज्यादातर पारथो के साथ ही रहता। वह उसके साथ कैन्टीन में घूमता रहता। लेकिन बुजी की एक ख़ासियत यह थी कि उसने कभी भी कैन्टीन में रखी हुई किसी भी चीज पर अपनी चोंच नहीं मारी। बल्कि अगर कोई पारथो की अनुपस्थति में कैन्टीन में से किसी चीज पर हाथ लगाता, तो बुजी इधर-उधर दौड़ते हुऐ  चक्कर लगाते हुऐ  उसको काटने के लिए आता था। दिन में वह पारथो के आस-पास रहता और रात को वह कहाँ जाता था। यह किसी को पता नहीं था।

  इसी बीच शान्ति देवी ने सारथो की शादी कर ली थी। लेकिन सारथो की घरवाली रूपा तेज निकली। उसे परिवार के साथ रहना पसन्द नहीं आया। पारथो के दोनों छोटे भाई अभी घर में बैठे हुऐ  मुफ्त की रोटी तोड़ रहे थे। इसलिए उसने एक दिन सारथो को समझाते हुऐ  कहा, ‘कि उन्हें इस परिवार के साथ जितना रहना था वे रह लिए। लेकिन अब उनका इस परिवार के साथ रहना ठीक नहीं है। अगर वे इसी घर में रहे तो छोटे भाइयों की शादी का जिम्मा भी उन्हें ही उठाना पड़ेगा। माँ-बाप हमेशा किसी के जिन्दे नहीं रहे। अगर हमें आने वाले भविष्य में अपने बच्चों के लिए कुछ जोड़ना है या उनकी परवरिश अच्छी तरह से करनी है, तो हमें इस घर से अलग रहना पड़ेगा। अन्यथा कमाने के बाद भी हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगेगा, और न ही हम कुछ बचा ही पाएँगे। बल्कि हमेशा हमें दूसरों का ही मुँह ताकना पड़ेगा। अगर हम अलग रहे तो इन्हें भी तो जीने का एहसास मालूम हो जएगा।’

  सारथो को रूपा की बातें जँच गई। इसलिए वह रूपा को लेकर किराए के मकान में जाकर रहने लगा। लेकिन एक दिन सुबह-सुबह सारथो ने कैन्टीन में आकर पारथो को बताया कि 200 गज का एक प्लाट 300 रू. गज के हिसाब से बिकाऊ है। छः महीने में डीलर को पूरे पैसे देने हैं,मौका अच्छा है। क्यों न हम दोनों ही उस प्लाट को साझे में ले लें, जमीन की बात है, अगर अभी ले लेंगे तो भविष्य में फायदा ही होगा। अभी तो वहाँ बसाकत नहीं है, लेकिन जब वहाँ लोग रहने लगेंगे तो किराए से बचने के लिए हम भी कच्चा-पक्का जैसा भी होगा बनाकर रह लेंगे। हम दोनों का काम ऐसा है कि आज है कल नहीं। अगर तू नहीं लेना चाहता है तो मैं किसी को अपने साथ ले लेता हूँ। परन्तु एक बात का ध्यान रखना पारथो कि घर में किसी को पता न चले कि हमने प्लाट ले लिया है।

  पारथो को सारथो की बातें जंच गई थी। और फिर उन दोंनों ने मिलकर 200 गज का प्लाट ले लिया था।

  प्लाट लेकर उसकी सारी रकम चुकाने के बाद पारथो को लगने लगा कि उसे अब शादी कर लेनी चाहिए। कब तक वह अकेला जीवन जीता रहेगा।   जबकि  उसके दोनों छोटे भाइयों ने भी अपनी-अपनी मर्जी से शादी कर ली थी। लेकिन सबसे छोटे भाई कीरथ लड़की के माँ-बाप की इच्छानुसार बारात लेकर अपने ससुराल चला गया था। शादी का जो भी खर्चा हुआ वह शान्ती देवी ने ही किया। पारथो व सारथो ने खर्चे के मामले में अपने हाथ बांध लिए थे।

  दोनों की शादी हो जाने के बाद पारथो को लगा कि उसकी शादी अब कभी नहीं होगी। क्योंकि उसकी चिन्ता न उसकी माँ को है, और न ही उसके भाइयों को…। वह ज्यादातर इसी बात को लेकर चिन्तित रहने लगा कि तीस की उम्र पार करते ही वह पचास का लगने लगा है। उस वक़्त  वह अपने आस-पास घूमते हुऐ  मोर के पंखों पर हाथ फेरने लगता तो मोर अपनी जगह पर चुपचाप इस तरह से खड़ा रहता जैसे कि पारथो की हथेलियों से उसे जन्म-जन्म का सुख मिल रहा हो।

  लेकिन दोस्तों  होनी को कभी कोई टाल सका है क्या? जो होना होता है वह होकर ही रहता है। एक दिन पारथो के जीवन में दो घटनाएँ एक साथ घटी। दोनों ही घटनाओं का अलग-अलग महत्व था। पहली घटना ने जहाँ पारथो को सिर से लेकर पैरों तक हिलाकर रख दिया। वहीं दूसरी घटना ने उसके शरीर की एक-एक बूँद खून में नया उत्साह भर चुका था।      

  लेकिन दोस्तों  पारथो के जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमें उन दोनों घटनाओं के बारे में जानना अति आवश्यक है। चलिए देखते हैं कि वे दोनों घटनाएँ क्या थी?

  पहली घटना-साँप और बुजी-पारथो अपने निश्चित समय पर कैन्टीन में आते ही सबसे पहले झाड़ू लगाकर चूल्हा जलाने के बाद एक तरफ दूध उबालने रख देता था और दूसरी तरफ वह प्रेशर कुकर में उबालने के लिए आलू रखकर नहाने लगता था। जब तक दूध उबलता पारथो नहाकर तैयार हो जाता था। नहाने के बाद वह दीवार पर टंगी हुई सांई बाबा की तस्वीर के सामने धूप जलाकर चाय बनाता और फिर वह आराम से आलू छीलने लगता था। ताकि वह आफिस में लोंगों के लिए ब्रेड पकोड़े बना सके।

  पारथो का यह रोज का नियम था। उस दिन भी ऐसा ही हुआ था। नहाने के बाद धूप जलाकर चाय पीते हुऐ  वह जब आलू छीलने लगा तो अचानक ही दो-तीन चूहे उसके सामने चुचियाते हुऐ  बाहर की तरफ भागे थे। लेकिन उसने उन चूहों की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया। क्योंकि चूहों का यह रोज का ही नियम था। उसने कई बार उन चूहों को भगाया भी लेकिन कैन्टीन के बाहर झाड़ियाँ व गन्दा नाला होने के कारण वे फिर कैन्टीन में आ जाते थे।

  वह चुपचाप आलू छीलते हुऐ  चाय सुड़क रहा था। उसे इस बात का ध्यान ही नहीं था कि उसके पैरों के पास एक जहरीला साँप अपना फैलाए खड़ा है। अगर उस वक़्त  पारथो थोड़ा सा भी अपने पैरों को इधर-उधर सरकाता तो साँप उसे अवश्य ही डस लेता।

  इससे पहले साँप कोई हरकत कर बैठता। बुजी उस पर झपट पड़ा था। अचानक हुऐ  आक्रमण के कारण साँप बुजी की ओर पलटते हुऐ  फुँफकारने लगा था। एकाएक बुजी के पंखों की फड़फड़ाने की आवाज सुनकर पारथो ने जब अपने पैरों की ओर देखा तो साँप को देखकर वह चीखते हुऐ  बाहर भागा। डर के मारे उसका बुरा हाल था। उसकी साँसें इस तरह से चलने लगी थी जैसे कि किसी अस्थमा के रोगी की साँसें शर्दियों के मौसम में चलने लगती हैं। सिर से लेकर पैरों तक वह इस तरह से काँप रहा था जैसे कि अनजाने में उसके हाथों से किसी का खून हो गया हो। वह डर के मारे काँपता हुआ साँप व बुजी को लड़ते हुऐ  देखता रहा। कुछ ही देर में बुजी न साँप को मार डाला था। अगर बुजी न होता तो साँप पारथो को डस लेता और उसकी मृत्यु हो जाती।

  पारथो कैन्टीन में चाय पीने वाले लोंगो से जब इस बात का जिक्र करता तो लोग यही कहते कि तूने आज तक उसे जो खिलाया उसने अपनी दोस्ती निभाते हुऐ  उसका हक अदा कर दिया है। सचमुच वह मोर तो नमक हलाल निकला, नमक हराम नहीं। इन्सानों में नमक हलाली तो अब कहीं नजर नहीं आती। लेकिन जानवरों व पक्षियों में अब भी यह बची हुई है। यही तो सत है, जिसके कारण यह दुनिया टिकी हुई है।

  दूसरी घटना-पाटू अंकल और शाक्या- इस घटना को बीते मात्र  2 घंटे ही हुऐ  थे कि एक युवक पारथो की कैन्टीन में आया। जैसे ही उन दोनों ने एक दूसरे को देखा, वे एक दूसरे के गले से लिपट पड़े।

  पारथो ने उसे पानी पिलाया, और फिर वे दोनों बड़ी देर तक बातें करते रहे। एक-दूसरे को अपने बचपन की यादों को सुनाते हुऐ  पारथो ने कहा, ‘‘तुझे वह दिन याद है सुकुमार, क्रिकेट खेलते हुऐ  जब तूने चौका मारा तो बाल सीधे मेरी मां के माथे पर लगी थी। आज भी शर्दियों में मेरी माँ के माथे पर उस जगह दर्द होने लगता है।’’

   “याद है यार, बचपन के दिन भी वे क्या दिन थे…? क्रिकेट खेलते हुऐ  चौके व छक्के लगाने की होड़ लगी रहती थी। अगर मैं उस समय बैट छोड़कर भाग न गया होता तो आंटी मेरा सिर फोड़ देती। अच्छा ये बता कि भाभी कैसी है! कभी भाभी को मेरे बारे में भी बताया कि नहीं?”

   “अबे...शादी ही नहीं हुई तो भाभी आएगी कहाँ से...? तू खुद सोच यार, मुझे कौन लड़की देगा…? बाल रीछ जैसे, चेहरा लंगूर जैसा,  आवाज गधे जैसी, शरीर गेण्डे जैसा, कद बन्दर जितना है। किस्मत इतनी खराब है कि बचपन में ही बाल सफेद हो गऐ । अपने रूखे और बुझे हुऐ  चेहरे पर रगंत लाने के लिए मुझे बाल काले करवाने पड़ते हैं।…ऐसा लगता है कि, मुझे अब सारी जिन्दगी किसी बाँस  के डंडे की तरह रहना पड़ेगा। भगवान ने अवश्य ही मेरी किस्मत लिखते समय सोचा होगा कि, बाँस  के डंडे की किस्मत बाँस  के डंडे से ही लिखना ठीक रहेगा, और भगवान ने मेरी किस्मत बाँस  के डंडे से लिख दी।”

   “हमारे रिश्ते में एक लड़की है। तू कहे तो मैं बात चलाऊँ…?”

   “क्यों मजाक कर रहा है यार, जिस दिन जब कोई मेरी शादी की बात करता है, तो मुझे उस दिन नींद नहीं आती है।”

   “मैं मज़ाक नहीं कर रहा पाटू अंकल।”

  सुकुमार के मुँह से पाटू अंकल सुनकर पारथो जोर-जोर से हँसने लगा। जब उसकी हँसी रुकी, तो उसने कहा, “तू बिल्कुल नहीं बदला शाक्या। तुझे याद है न…इस शब्द को सुनकर मैं स्कूल में मरने व मारने के लिए तैयार हो जाता था। मेरे सफेद बालों को देखकर स्कूल के सभी लड़के व लड़कियाँ मुझे पाटू अंकल कहकर चिढ़ाते थे। लेकिन सच कहूँ शाक्या तो बाद-बाद में मुझे पाटू अंकल अच्छा लगने लगा। तुझे याद है न शाक्या...हमारे साथ एक लड़की पढ़ती थी कमली…! हम उसे किसी दूसरे नाम से बुलाते थे न…?”

   “कड़की...! कड़की...छोटू की लड़की, बाँस  जैसी तड़की।” कहते हुऐ  शाक्या हँसते हुऐ  बोला, “यार बहुत गोरी थी वो…!”

   “तुझे याद है, उसका नाम कड़की कैसे पड़ा था…?”

   “हाँ...। एक दिन शीला ने कमली से कहा कि कल मैंने तुझे आइसक्रीम खिलाई थी आज तू खिला तो कमली ने कहा कि, ‘आजकल कड़की चल रही है। जेब खाली है। जेब खर्च मिलने दे फिर खिलाऊँगी।‘ बस्स...उसी दिन से हमने उसका नाम कड़की रख दिया था।”

   “बचपन की बहुत याद आती है शाक्या। वास्तव में जो दिन चला जाता है। वह कभी लौटकर नहीं आता। अरे हाँ शाक्या, तू किसी लड़की के बारे में कह रहा था न !”

   “हाँ पाटू अंकल। मेरी मौसी की ननद की लड़की है। उसका बाप शराबी है। रोज ही स्साले को पीने को दारू चाहिए। घर की जो भी चीज उसके हाथ लग जाती है उसे बेच देता है। उसके कारण घर में रोज ही क्लेश होता है। दारू पीकर माँ-बेटी दोनों को मारता है। वह लड़की बहुत दुःखी है पाटू। अगर तू उससे शादी कर लेगा तो तू फिर बाँस  का डंडा नहीं रहेगा।”

  पारथो कुछ देर तक सोचता रहा, और फिर उसने सुकुमार को अपनी स्वीकृति दे दी थी। जिस बात की पारथो को कभी उम्मीद ही नहीं थी। वही बात हो गई थी। अर्थात चट मँगनी और पट ब्याह। और फिर शादी के एक साल के अन्दर ही घर में एक नन्हीं बच्ची भी आ गई थी। उन्होंने उसका नाम शीला रखा। लेकिन वे प्यार से उसे शालू कहने लगे थे।

  घर में नन्हीं बच्ची के आने के बाद भी पारथो का कैन्टीन में आने-जाने का समय नहीं बदला। वह सुबह चार बजे घर से चलता और शाम को रात को दस बजे कैंटीन बंद करके घर लौटता।

  जब तक वह घर पहुँचता तब तक बच्ची सो चुकी होती। परन्तु राजी उसके इन्तजार में आँखें बिछाए बैठी रहती। कई बार जब वह थक जाती तो बच्ची को सुलाते हुऐ  उसे भी नींद आ जाती। उसकी नींद तभी खुलती जब पारथो जोर-जोर से घर आकर दरवाजा पीटने लगता। दरवाजा पीटते समय उसकी अपने भाइयों से कई बार तू-तू, मैं-मैं. होते हुऐ  हाथापाई की नौबत तक आ चुकी थी।

  इसी बात को लेकर राजी ने जब पारथो को समझाया कि उसे समय से घर आना चाहिए तो पारथो ने कहा, “पता नहीं कैन्टीन कब उसके हाथ से निकल जाऐ ? कल सुबह या शाम का क्या भरोसा, वैसे भी घर में आकर मैं क्या करूँगा? दो पैंसे कमाऊँगा, तो वक़्त -वे वक़्त  काम ही आएँगे। कैन्टीन हाथ से निकल जाने के बाद मैंने तेरे साथ सारे दिन घर में ही तो रहना है। वैसे भी  रात को मैं तेरे ही साथ तो होता हूँ।”

     “तुम्हारे एक मात्र रात को मेरे साथ रहने से मेरी आवश्यकताएँ पूरी तो नहीं होती न…? ये तुम्हारी बच्ची है, कभी इसके बारे में भी सोचा है तुमने कि, एक बाप अपनी बेटी को अपनी गोद में बिठाकर कैसे प्यार करता है? सुबह जब तुम कैन्टीन के लिए निकलते हो, तो वह सोई ही रहती है। रात को तुम्हारे घर आने से पहले ही वह सो जाती है। लोग इतवार को अपनी पत्नी व अपने बच्चों के साथ चिड़िया घर जाते हैं, पिक्चर देखने जाते हैं, रिश्तेदारी में जाते हैं, लेकिन तुम इतवार व छुट्टी के दिन भी कैन्टीन को नहीं छोड़ सकते। कैन्टीन नहीं हुई जैसे राजमहल हो गया। किसी ने ठीक ही कहा है कि कुऐं का मेंढक कुऐं में ही रहा।”

   लेकिन पारथो पर राजी के कहने का कोई असर नहीं हुआ। उसे इस बात की शंका थी कि कही कैन्टीन उसके हाथ से न निकल जाए। इसीलिए वह कैन्टीन में रहते हुऐ  कैन्टीन को किसी भी तरह से खोना नहीं चाहता था। वह जानता था कि अगर उसने कैन्टीन सुबह दो घंटे भी देर से खोली तो उसे काफी नुकसान उठाना पड़ेगा। सुबह-सुबह कैन्टीन खोलने से जो दो-चार सौ रुपये वह कमा लेता है वे रुपये उसके हाथ से निकल जाऐंगे। यही कारण था कि राजी के बार-बार कहने पर भी उसने कैन्टीन जाने व आने का समय नहीं बदला।

   पारथो ने जब अपना समय नहीं बदला, तो थकहार कर राजी भी चुप हो गई थी। पहले वह पारथो का इन्तजार करते हुऐ  बैठी रहती, और अब वह खाना खाकर सो जाती थी। हालात ऐसे हो गऐ  थे कि पारथो सुबह कैन्टीन के लिए निकल जाता और वह सोई रहती।

   इसी बीच एक दिन सारथो ने कैन्टीन में आकर पारथो को जब यह बताया कि वह लखपति हो गया है, उसके पॅलाट की कीमत 20 लाख रुपये हो चुकी है तो, पारथो की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। वह अन्दर ही अन्दर हवा में उड़ने लगा। घर आकर जब उसने राजी को बताया कि वे लखपति बन चुके हैं तो, राजी को जैसे कोई खुशी  नहीं हुई। लेकिन उसने सिर्फ इतना ही कहा कि, ‘तुम तो ऐसे खुश हो रहे हो, जैसे कि तुमने अमेरिका के बिलगेट्स को भी पीछे छोड़ दिया हो।’

   राजी की बातों को सुनकर परथो के मन में कुछ ही देर पहले लखपति होने की जो खुशी  हिलोरें मार रही थी वह पलभर में ही रफ्फूचक्कर हो चुकी थी। उसे रात भर नींद नहीं आई। वह सारी रात सोचता रहा कि उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वह एक दिन लखपति बनेगा। लेकिन भगवान ने उसे लखपति बना दिया। अगर उसे वह कैन्टीन न मिलती तो पता नहीं आज वह कहाँ होता, न वह प्लाट ले पाता और न ही वह लखपति बन पाता।

   तभी रात को उसका फोन बज उठा था। उसने फोन उठाकर जैसे ही हैलो कहा वैसे ही उसे दूसरी ओर से रूपा की आवाज सुनाई दी। वह रोते हुऐ  कह रही थी कि सारथो का एक्सीडेंट हो गया है। वे लोग उसे सफदरजंग के ट्रामा सेन्टर में ले जा रहे हैं। इसलिए आप लोग जल्दी से जल्दी ट्रामा सेन्टर में  पहुँचने की  कोशिश करें।

   सारथो के एक्सीडेंट के बारे में सुनकर पारथो ने उसी वक़्त  अपने दोनों भाइयों के साथ ट्रामा सेन्टर के लिए चल पड़ा। लेकिन उनके पहुँचने से पहले ही सारथो की मौत हो चुकी थी।

   लेकिन दोस्तों  कभी-कभी इंसान की जिन्दगी में ऐसा भी समय आता है कि जो होना चाहिए था वह नहीं होता, और जो नहीं होना चाहिए वह हो जाता है। यही पारथो और रूपा के साथ भी हुआ। सारथो के मरने के एक महीने बाद ही पारथो और रूपा के बीच पति-पत्नी जैसे सम्बध स्थापित हो गऐ  थे।

   यही  कारण था कि सारथो के मरने के बाद पारथो अब ज्यादातर रात को सारथो के घर चला जाता था। कैन्टीन बंद करते हुऐ  वह राजी को फोन पर कहता कि वह आज कैन्टीन में ही रहेगा। इसलिए वह उसका इन्तजार न करे, और खाना खाकर सो जाए।

   पारथो के शब्दों को सुनकर राजी चुपचाप अपनी बच्ची के साथ सो जाती थी। उसे इस बात का कभी कोई एहसास ही नहीं था कि पारथो रात कैन्टीन में नहीं बल्कि अपनी भाभी के घर जाकर सोता है लंकिन जब एक दिन इस बात का खुलासा हुआ तो उसके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक गई थी।

  पारथो का फोन और ताला बंद-उस दिन भी पारथो ने राजी को कैन्टीन से फोन किया था कि वह घर नहीं आ सकेगा और कैन्टीन में रुकेगा। लेकिन उस रात को अचानक ही बच्ची की तबियत खराब हो गई थी। वह रात को दो-तीन बार चीखी और फिर वह बेहोश हो गई थी।

   बच्ची को बेहोश होते देखकर राजी की चीख निकल गई थी। उसकी चीख सुनकर उसका सबसे छोटा देवर जाग गया था। उसने राजी के पास आकर जब बच्ची को देखा तो उसके हाथ-पैर फूल गऐ  थे। उसने देर करना उचित नहीं समझा और वह राजी के साथ बच्ची को लेकर घर से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर एक नर्सिंग होम में ले गया। जहाँ उसकी नाज़ुक हालात देखकर डा0 ने उसे वैन्टीलेटर पर रख दिया था।

   लगातार फोन करने के बाद भी जब पारथो का न0 नहीं मिला तो कीरथ पारथो की कैन्टीन के लिए चल पड़ा था। लेकिन कैन्टीन के दरवाजे पर ताला लगा हुआ देखकर कीरथ चौंक पड़ा। उसने एक-दो बार ताले को हिलाते हुऐ  पारथो को आवाज लगाई, उसकी आवाज सुनकर आफिस में काम कर रहे चौकीदार ने उसके चेहरे पर टार्च की रोशनी फेंकते हुऐ  कहा, “कौन है...? क्या क्या चाहिए?”

    “पारथो कहाँ है?... कुछ पता है आपको...?”

    “तुम कौन है ब्रादर?..,”

      “मैं कीरथ...पारथो का छोटा भाई। पारथो की लड़की शालू बहुत बीमार है। इसलिए मैं पारथो को ढूँढ रहा हूँ। उसने तो कैन्टीन में रुकने के लिए कहा था। लेकिन यहाँ तो....?”

   “ताला लगा है। तुम यही कहना चाहता है न ब्रादर…”

  कहते हुऐ  चौकीदार जोर-जोर से बनावटी हँसी हँसने लगा। रात के सन्नाटे में गूँजती उसकी हँसी को सुनकर गेट के पास पीपल पर सो रही चिड़ियाएँ अपने-अपने पंख फड़फड़ाती हुई उड़ गई थी। उनके पंखों की फड़फड़ाहट व चौकीदार की कठोर हँसी सुनकर कीरथ के शरीर में कंपकंपी दौड़ गई थी। वह मन ही मन में सोचने लगा कि कहीं वह चैकीदार पागल तो नहीं है।

  कुछ पल तक कीरथ चौकीदार की कलेजा फाड़ने वाली हँसी को सुनता रहा और फिर जब वह चौकीदार के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वापस लौटने लगा तो चौकीदार के शब्दों को सुनकर वह चौंक पड़ा।

   “तुम हमको पागल समझ रहा होगा ब्रादर। लेकिन सच्चाई बहुत कडुवी होती है । पारथो आज तक कभी कैन्टीन में नहीं रुका ब्रादर। पारथो को ढूँढना है तो सारथो के घर जाओ । कैन्टीन तो एक बहाना है ब्रादर। सारथो के घर जाने का…। पारथो उधर ही सोने का….।”

  तभी कीरथ के फोन की घंटी बज उठी थी। जैसे ही उसने स्विच आन किया वैसे ही उसे राजी के रोने की आवाजें सुनाई दी। नर्सिंगहोम पहुँचते ही जब उसने शालू को देखा तो उसकी आँखें बहने लगी। शालू मर चुकी थी। उसके बाद भी कीरथ पारथो को लगातार फोन लगाता रहा। लेकिन उसका फोन नहीं लगना था तो नहीं लगा।

  लेकिन दूसरे दिन सुबह होते ही कीरथ ने जब पारथो का फोन लगाया तो उसका फोन लग गया। जैसे ही पारथो ने फोन उठाया कीरथ ने उसे शालू  के मरने की सूचना सुना दी। करीब आधे घंटे बाद जब पारथो घर आया तो उसके साथ रुपा को देखकर राजी का माथा ठनक गया था।

  शालू के मरने के बाद पारथो रोज ही घर आने लगा। लेकिन उस दिन के बाद से राजी गुमशुम रहने लगी थी। एक महीने बाद ही पारथो के फिर से राजी के लिए फोन आने लगे थे कि कैन्टीन में काम ज्यादा है, इसलिए वह कैन्टीन में ही रुकेगा।

  पारथो के फोन आते ही राजी कसमसा कर रह जाती। लेकिन एक दिन सत्यता जानने के लिए जब उसने कीरथ से यह पूछा कि जिस दिन शालू मरी थी उस दिन पारथो कहाँ था तो कीरथ ने उसे बिना हिचक वही सबकुछ बता दिया था जो कि उस रात चौकीदार ने उसे बताया था।

  कीरथ के शब्दों को सुनकर राजी का शक और गहरा गया। जिस दिन पारथो के फोन आते वह बेचैन हो जाया करती। उसका मन घृणा से भर जाता। वह न तो सो पाती, और न ही खा पाती। वह कभी बैठती, कभी लेटती, तो कभी रात के सन्नाटे में छत में टहलने लगती। उस वक़्त  उसके माथे पर पसीने की बूँदे चुहचुहाने लगती। तरह-तरह के बुरे खयाल उसके मन में पनपने लगते।

  एक दिन जब पारथो का फोन आया, तो वह आटोरिक्शा लेकर पारथो की कैन्टीन पहुँची।  कैन्टीन के दरवाजे पर ताला देखकर जब उसने चौकीदार से पारथो के बारे में पूछा तो उसने कहा, “हमको काहे को पूछता है मैम। पारथो हम पारथो चौकीदार नहीं।…पर आप उसके बारे में काहे को पूछता मैम?”

   “मैं उसकी पत्नी हूँ।”

   “वो रात में अपनी भाभी के घर में होता मैम। उधर जाने का । वहीं उधर तलाश करने का। वो वहीं मिलने का…। आप उसके साथ कैसे जीवन व्यतीत करता मैम?”

  साथ ही वह बिना हिचक की बातें सुनकर, राजी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया था। अब उसे पूरा यकीन हो गया था कि जरूर दाल में काला है। उसने देर करना उचित नहीं समझा। गुस्से में भनभनाती हुई रुपा के घर जाकर जब उसने दरवाजा खटखटाया, तो दरवाजा खोलते हुऐ  एकाएक राजी को अपने सामने देखकर रूपा के मुँह से एक घुटी-घुटी सी चीख निकल गई।

   “पारथो कहाँ है?”

  इससे पहले कि रूपा उसे कोई उत्तर दे पाती, राजी ने उसे धक्का देकर कमरे में जाकर देखा तो पारथो को देखकर वह सन्न रह गई। पारथो अपना पजामा पहनने की कोशिश कर रहा था। राजी को अचानक ही अपने सामने देखकर उसका चेहरा स्याह पड़ गया था। हृदय की धड़कने बढ़ने के कारण माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आई थी।

   “थू...!” राजी ने गुस्से में आकर पारथो के मुँह पर थूकते हुऐ  कहा, “मैं तेरी ब्यहता पत्नी हूँ। लेकिन तूने आज तक मुझे कभी भी पत्नी का दरजा नहीं दिया। तूने हमेशा मुझे एक रखैल की तरह समझा और रखा। कभी मेरी भावनाओं व मेरी इच्छाओं का न कभी खयाल ही रखा और न कभी पूरा करने की ही कोशिश की। अगर तूने मुझे एक पत्नी की तरह समझा होता, तो आज हमारी बेटी जिन्दा होती। तू अपनी बेटी का न हुआ तो मेरा भी नहीं हो सकता। आज के बाद तेरा और मेरा रिश्ता खतम। तू मेरा नहीं हुआ तो इसका भी नहीं होगा। मेरे लिए तेरे पास कभी समय नहीं निकला, और इसके पास रहते हुऐ  तेरे लिए समय ही समय है। आज के बाद मेरी खोज मत करना। तू अपना जीवन जीने के लिए स्वतन्त्र है,और मैं अपने जीवन जीने के लिए।”

  कहते हुऐ  उसने रूपा को धक्का दिया और फिर वह गुस्से में बड़बड़ाती हुई घर लौट आई थी।

  घर आने के बाद भी उसका बड़बड़ाना बंद नहीं हुआ। अपने शरीर में उफनते गुस्से को शांत करने के लिए वह अपने बालों को नोचते हुऐ  दीवार पर अपना सिर पटकने लगी थी। दीवार पर सिर पटकते हुऐ  उत्पन्न होने वाली ढप-ढप की आवाज से दूसरे कमरे में सो रहे कीरथ व उसकी पत्नी को कोई फर्क नहीं पड़ा। वे गहरी नींद में सो रहे थे।

  दीवार में अपना सिर पटकने व बालों को नोचने के बाद भी जब उसका गुस्सा उसके लिए असहाय हो गया तो वह अपने कपड़े उतार कर गुशलखाने में जाकर तब तक नहाती रही, जब तक उसके शरीर का ख़ून ठंडा नहीं हो गया था।

  उसने एक बार गौर से उस कमरे को देखा, जिसमें कभी उसकी बेटी की किलकारियाँ गूँजा करती थी।…और फिर वह रात के सन्नाटे में घर से बाहर निकल गई।

  उसके बाद राजी फिर दुबारा कभी लौटकर उस घर में वापस नहीं आई। लेकिन राजी के जाने के बाद पारथो ने घर आना छोड़ दिया था। वह ज्यादातर रूपा के पास ही रहने लगा था और अब उससे शादी करना चाहता था।

  लेकिन दोस्तों  उसका रूपा के शादी का सपना पूरा नहीं हो सका। जब पारथो को रूपा की हकीकत का पता चला तो उसे दिन में भी तारे नजर आने लगे। रूपा के शरीर का आनन्द लेने की जो कीमत उसे चुकानी पड़ी, उसके बारे में उसने सपने मे भी नहीं सोचा था।

 लखपति से खकपति- समय कभी भी एक जैसा नहीं रहता दोस्तों । यह तो हमें मानकर चलना ही पड़ेगा। आज समय किसी के साथ है तो कल किसी के साथ। कब अच्छे दिन बुरे दिनों में बदल जाएं, और कब बुरे दिन अच्छे दिनों में बदल जाएं कोई नहीं जानता। पारथो लखपति था लेकिन रूपा के शरीर ने उसे खकपति बना दिया था।

  दोस्तों  एक दिन जब पारथो अपने प्लाट पर गया तो अपनी तथा सारथो की जमीन पर बने मकान देखकर वह झनझना गया था। कौन हो सकता है…? जिसने उनकी जमीन पर कब्जा किया, और उन्हें पता ही नहीं चला? लेकिन जब उसने इसके बारे में पता किया, तो उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया था। वह अपना सिर पकड़ कर वहीं जमीन पर बैठ गया। अगर वह कुछ पल और खड़ा रहता, तो वह किसी कटे वृक्ष की तरह जमीन पर गिर पड़ता। ऐसी हालात में या तो उसका सिर फूटता या फिर उसकी मौत हो जाती।

  उसने ज़िन्दगी में कभी सोचा भी नहीं था कि उसके साथ इतना बड़ा धोखा होगा। रूपा ने उसे आकाश से गिरा कर जमीन पर पटक दिया था। उसने अपना प्लाट बेचकर पारथो के प्लाट पर अपना मकान बना लिया था। और उसके बाद जो रकम रूपा के पास बची उसका उसने दूसरी जगह प्लाट ले लिया था।

  जब उसने लोगों से सुना कि वह मकान रूपा का है, तो गुस्से के मारे उसकी आँखों से चिनगारियाँ  निकलने लगी थी। अपने दाँतों को भींचते हुऐ  वह पुलिस थाने की ओर चल पड़ा। लेकिन जैसे ही थाने के गेट पर पहुँचा, उसके मन में बिचार आया कि क्या पता लोग झूठ बोल रहे हों। इसलिए थाने में जाने से पहले रूपा से बात कर लेना जरूरी है। उसने उसी वक़्त  रूपा के पास जाकर जब अपने प्लाट के बारे में बात की तो रूपा जोर-जोर से हँसने लगी। रूपा की हँसी सुनकर उसके माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहाने लगी थी। हाथ-पैर झनझनाने लगे थे। उसकी हँसी किसी जहरीले तीर की तरह उसके कलेजे में चुभने लगी थी। उसे लगा जैसे असंख्य चीटियाँ उसके कलेजे पर डंक मारते हुऐ  उसे झिंझोड़ रही हैं।

   “तूने मेरे साथ इतना बड़ा खेल क्यों खेला? तूने आज मेरी जिन्दगी तबाह कर दी।” उसका गला भर आया था।

   “मैंने तेरी जिन्दगी से कोई खेल नहीं खेला पारथो। मैंने तो अपने शरीर की कीमत ली है। तूने जब चाहा मैं तेरे सामने बिस्तर की तरह खुलती चली गई। औरत का शरीर इतना सस्ता नहीं होता, जितना तू सोच रहा था। एक बात कान खोलकर सुन ले पारथो, अगर तूने पुलिस में जाने की धमकी दी या गया तो मैं तुझे बलात्कार के केस में अन्दर करवा दूँगी। और सुन...आज के बाद इस तरफ देखने की कोशिश भी मत करना। तू अपनी बेटी व अपनी पत्नी का नहीं हुआ, तो मेरा कैसे हो जाता? एक बात का ध्यान रखना पारथो, बरफ की तरह ठंडा रहना...हमेशा ठंडा। अगर गरमाने की कोशिश की तो पुलिस पसीना पोंछने लगेगी। चल...निकल यहाँ से...?” और फिर उसने पारथो को धक्का देते हुऐ  घर से बाहर निकाल दिया था।

   पारथो के अन्दर अब तक जो गुस्सा उबल रहा था। वह एक ही झटके में शांत हो गया। उसकी साँसे बर्फ की तरह ठंडी हो चुकी थी। माथे पर पसीने की जगह अब खुजली होने लगी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे? सारी रात उसके दिमाग में सोचों की पनचकियाँ घरड़-घरड़ कर चलती रही। जो कि उसके दिल और दिमाग को झकझोरने पर लगी हुई थी। जब उसकी सोचों ने उसे परेशान कर दिया तो वह हू...हू...करके रोने लगा। उस वक़्त  उसकी आँखों में शालू और राजी का चेहरा तैरने लगा था।

  आज उसके आँसूं पोंछने वाला कोई नहीं था। न शालू थी न राजी, और न ही वह मोर था, जिसके लिए वह अपने हाथों में दाना रखकर अपने पास बुलाता था। आ...आ...बुजी आ...। आ...दोस्त आ...।

  जब उसका रोना शांत हुआ तो वह रात के सन्नाटे में मोर को आवाज लगाने लगा, ‘आ...बुजी आ...। आ...दोस्त आ...।’ लेकिन मोर को नहीं आना था। वह नहीं आया।

  उसके बाद पारथो कुछ गुमसुम रहने लगा। वह पहले की अपेक्षा अब लोगों से बहुत कम  बोलता था। लेकिन अब भी दफ्तर में काम करने वाले लोग उसे गुटखा माँग कर खाया करते थे। और फिर एक दिन उसे कैन्टीन खाली करने के लिए कहा गया। अब वहाँ पर औफिस की नई बिल्डिंग बननी सुरू हो गई थी। वह अपना सामान लेकर रोड़ के किनारे चाय की रेहड़ी लगाने लगा। परन्तु आए दिन उसे पुलिस वाले परेशान करने लगे,फिर एक दिन कमेटी की गाड़ी आई और उसकी रेहड़ी उठा कर ले गई।

  दोस्तों  उसके बाद पारथो ने चाय का धंधा ही बंद कर दिया था। अब वह कहाँ रहता है? किसी को कुछ पता नहीं। मगर अब भी जब वह औफिस में आता है तो लोग उससे गुटखा व खैनी माँगते हुऐ  कहते हैं, “बहुत दिनों बाद दिखाई दे रहा है यार…। कहाँ रहता है तू? गुटखा खिला यार।”  वह लोगों को मुस्कराते हुऐ  गुटखा, खैनी व कुबेर खाने को देता है। साथ ही वह बिना हिचक लोगों से कहता है, ‘जूते फट गऐ  हैं यार। कोई पुराना जूता या कोई पैंट कमीज हो तो ले आना।’ कुछ लाते हैं और कुछ नहीं लाते।

  लेकिन आप इस बात को जानने के लिए बहुत बचैन हो रहे होंगे कि बुजी कहाँ गया? बुजी के बारे में जानने के लिए हमें चौकीदार के पास चलना पड़ेगा।  चौकीदार का कहना था कि जिस रात शालू  मरी थी उस रात मोर पारथो की कैन्टीन में चक्कर लगाते हुऐ  जोर-जोर से रो रहा था। उसके बाद वह फिर कभी लौटकर नहीं आया। कहाँ गया कुछ पता नहीं।  

  आज भी पारथो कभी-कभार दिखाई देता है। उसकी आवाज दूर-दूर तक सुनाई देती है। आ...आ...बुजी आ। आ...दोस्त आ...। लेकिन बड़ी देर तक भी आवाज लगाने के बाद भी जब उसे कोई जवाब नहीं मिलता, तो वह चुपचाप वापस लौट जाता है। कहाँ जाता है किसी को कुछ पता नहीं।

 


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