आखिरी पन्ने
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रात लगभग आधी बीत चुकी थी। बाहर सन्नाटा पसरा हुआ था। कोहरे ने पूरी
ताकत को रात के अंधेरे को कसकर अपने आगोश में जकड़ रखा था। पहाडों से
बहती हुई गाड, गदनियों का शोर बहुत ही भयानक लग रहा था। रात के गहन अंधेरे
में रेंगने वाले कीड़ों की डरावनी आवाजें सुनकर शरीर में पलभर के लिए कंपकंपी
दौड़ जाती थी। लेकिन रात का पहला पहर बीत जाने के बाद भी मेनका की आँखों में
नींद नही थी। वह कुछ देर तक रात के अंधेरे में चहल कदमी करती रही। और फिर
उसने खिड़की के पास जाकर धीरे से खिड़की को खोला तो हवा का एक तेज झोंका
उसके चेहरे से सरसराता हुआ उसके बालों को उड़ा कर ले गया था।
वह कुछ पल तक खिड़की के पास खड़ी होकर बाहर अंधेरे में अपनी नजरें कुछ
इस तरह से दौड़ाती रही जैसे कि वह पल-पल किसी का इंतेज़ार कर रही हो।
लेकिन रात के अंधेरे में उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया। जिन सड़कों पर दिनभर
आवाजाही रहती है। वही सड़कें रात के घने अंधेरे में सपाट. डरावनी व सूनी दिखाई
देने लगी थी।
कुछ पल तक वह खिड़की के पास खड़ी रहते हुऐ मन ही मन में कुछ बड़बड़ाती
रही। और फिर खिड़की के दोनों पटों को आपस में भिड़ाकर वह चिमनी की मद्धिम
रोशनी में रोज की तरह डायरी लिखने बैठ गई थी।
लगभग आधी रात का समय हो गया है। मैं रोज की भाँति डायरी लिखने लगी
हूँ। अभिनव सो रहा है। मुझे डायरी लिखने का कोई शौक नहीं था। और न ही मैंने
कभी डायरी लिखने के बारे में सोचा था कि मै कभी जीवन में डायरी भी लिखूँगी।
लेकिन आपने मुझे डायरी लिखने के लिए मजबूर कर दिया था। सच कहूँ तो ऐसी
डायरी लिखने के लिए भगवान किसी को मजबूर न करे। क्योंकि मै कभी भी ऐसी
डायरी लिखने के लिए खुश नहीं होती। लेकिन तुम्हारी यादें मुझे कचोटती रहती हैं।
रात का एक-एक पल मुझे याद आने लगता है। जब तुम मुझे अपनी बाहों में लेकर
मुझे तरोताजा कर देते थे। उस वक़्त तुम मुझे बहुत अच्छे लगते थे। सच कहूँ तो
तुम उस वक़्त मेरी नजरों में दुनियाँ के सबसे अच्छे पति थे।
इस डायरी को मेरे अलावा कौन पढ़ेगा… यह तो मैं नहीं जानती। हो सकता है
कि कभी अभिनव इसे पढ़े। लेकिन मैं यह भी नहीं जानती, और नहीं मै यह जानती
हूँ कि यह डायरी हमेशा आज की ही तरह सुरक्षित रहेगी भी या नहीं…मेरे न होने के
बाद इस डायरी का क्या होगा… मैं यह भी नहीं जानती।
लेकिन मैं क्या करूँ...मेरी ज्यादातर रातें उन्नींदी कटती हैं। तुम्हारी यादों को
संजोकर रखने का इसके अलावा मेरे पास और कोई उपाय भी तो नहीं है। डायरी
लिखने की यह आदत तुम्हीं ने तो डलवाई थी। तुम जब भी फौज से छुट्टी लेकर
घर आते थे तो मुझसे डायरी लिखवाते हुऐ कहते कि जब भी तुम्हें मेरी याद आए तो
उस वक़्त कागज के पन्नों पर अपने मन की बातें लिख दिया करना और वही
करते-करते मैं आज डायरी के पन्ने भरने लगी हूँ।
इस बीच अभिनव थोड़ा सा कुनमुनाया तो कुछ पल के लिए उसके हाथ रुक गए
थे… पेन अभी भी उसकी उँगलियों के बीच में दबी हुई थी। उसने चिमनी की लौ को
थोड़ा ऊँचा किया तो धुएँ की एक काली सी लकीर अपनी गंध छोड़ती हुई ऊपर उठते
हुऐ गायब हो गई थी। तभी उसे रात के अंधेरे में बाहर स्कूटर की आवाज सुनाई
दी। उसने एक पल खिड़की की ओर देखा और फिर उसने डायरी लिखना शुरू किया।
बाहर स्कूटर की आवाज सुनाई दे रही है। शायद कोई अपने घर जा रहा होगा।
अच्छा आदमी होगा तो पत्नी उसका इंतेज़ार कर रही होगी अगर जुआरी…शराबी
होगा तो पत्नी रजाई ओढ़े खर्राटें लेती हुई चैन से सो रही होगी। दरवाजा खटखटाने
के बाद भी वह उसके लिए जल्दी से दरवाजा नहीं खोलेगी।
वेसे भी कड़ाके की इस ठंड में किसी का भी मन बिस्तर से उठने का नहीं होता है
और न ही जल्दी नींद ही खुलती है…लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही है… बार-बार
तुम्हारा चेहरा आँखों के आगे तैरने लगता हैं तुम्हरी मुस्कराहट जब मुझे बिचलित
कर देती है तो मैं अभिनव का चेहरा देखने लगती हूँ। हू-ब-हू बिल्कुल तुम्हारे जैसा
ही तो है।
वह कुछ पल के लिए रुकी। शायद लिखते हुऐ उसका हाथ दर्द करने लगा था।
कुछ देर तक वह चिमनी की जलती हुई लौ को देखती रही और फिर उसकी आँखें
गीली हो आई थी। बड़ी देर तक वह अपनी आँखों को अपने हाथों की दोनों हथेलियों
से छिपाए रही। उस वक़्त उसकी नाक सुड़क-सुड़क कर रही थी और फिर उसने
लिखना शुरू किया।
आज से छः महीने पहले जब तुम दो महीने की छुट्टी लेकर आए थे। तब तुमने
मुझे इतना प्यार दिया कि मैं उसे सहन न कर सकी…परेशान हो गई थी मैं । तुम
हमेशा मेरे आगे-पीछे घूमते रहते, किचन में सब्जी काटते हुऐ , लहसुन छीलते हुऐ ,
खाना बनाते हुऐ , तुम मेरे शरीर पर हाथ फेरने लगते…और गैस बन्द करते हुऐ
मुझे अपने हाथों में उठाकर बिस्तर पर गिरा देते तो मैं गदगद हो जाती…लेकिन
कभी-कभी जब मे तुमसे गुस्से में कहती कि बहुत भूखे व सेक्सी हो तुम तो…उस
वक़्त तुम हँसतें हुऐ कहते कि, ‘साल में केवल दो ही महीने की छुट्टी तो मिलती है।
देश की सीमा पर हमें कैसे रहना पड़ता है यह तुम क्या जानो…A लोग अपने घरों
में अपने बच्चों व अपनी पत्नी के साथ हँसते-बोलते रहते हैं, और हम अपनी ड्यूटी
पर चैIकस रहते हुऐ औरत की हँसी सुनने के लिए तरस जाते हैं। बस्स…यही दो
महीने तो तुम्हारे साथ जी भरकर बिताने के लिए मिलते हैं…अगर इन महीनों में
भी तुम्हारा प्यार मुझे नहीं मिला तो मै नहीं जी पाऊँगा ।
अचानक उसके हाथ रुके और वह फबक-फबक कर रोने लगी। उस वक़्त कमरे
में पसरा हुआ सन्नाटा तथा बाहर कोहरे में जकड़ी काली डरावनी रात उसे बहुत
तकलीफ़ देने लगी थी।
‘क्यों इतना प्यार करते थे तुम मुझसे, मुझे छोड़कर ही जाना था तो इस कदर
एक-एक शब्द क्यों कहते थे तुम... मेरे लिए जीना बहुत मुश्किल हो गया है। तुम्हारे
बिना यह घर मुझे काटने को आता हैं क्या करूँ मै?’
वह बड़ी देर तक सिसकते हुऐ बुदबुदाती रही…और फिर उसने लिखना शुरू
किया।
“मैंने तुम्हें कभी कुछ नहीं कहा। मुझे तुम उस वक़्त बहुत अच्छे लगते थे। जब
तुम टकटकी लगाए मुझे देखते रहते, उस वक़्त मै तुमसे कहती, ऐसे क्या देख रहे
हो तुम...और जवाब में तुम कहते, “बहुत सुन्दर हो तुम...।”
“अच्छा...।”
“हाँ...।”
“किसने कहा...?”
“जिसने तुम्हें देखा है।”
“किसने देखा है...?”
“मैंने देखा है।”
“धत...!”
“तुम बहुत सुन्दर हो मेनका...। तुम्हारा चेहरा देखकर कभी भी मेरा दिल नहीं
भरता। पता नहीं क्यों तुम्हारा चेहरा देखने के लिए बार-बार मन तड़पने लगता है,
सचमुच मेनका…औरत का चेहरा हो तो तुम्हारे जैसा हो। जिसे देखने के लिए मन
बार-बार तड़पता रहे। सचमुच…शपथ… बहुत ख़ूबसूरत हो तुम!”
“कहीं गोल गप्पे खाकर आए हो क्या...?”
“ये क्या कह रही हो मेनका, गोलगप्पे और मै...!”
“क्या पता...?”
“मै समझा नहीं...।”
“मैं समझाती हूँ। जब आदमी अपनी पत्नी के साथ गोलगप्पे खाता है तो
पता…उस वक़्त वह अपनी पत्नी को क्या कहता है?”
“मालूम नहीं...।
“शपथ...तुम गोलगप्पे जैसी ख़ूबसूरत हो।”
उसके शब्दों को सुनकर सुदेश जोर-जोर हँसने लगा और जब उसकी हँसी रुकी
तो मेनका ने कहा, “अयो...यो...तुम कितना सुन्दर जी...! कद्दू का माफिक सुन्दर
गोल-मटोल जी…।”
कहते हुऐ मेनका की हँसी कमरे में गूँजने लगी थी। सुदेश टकटकी लगाए उसे
हँसते देखता रहा और फिर उसने मेनका को अपनी बाहों में उठा लिया था।
“अरे...रे गिर जाऊँगी मैं।”
“ये हाथ…! हाड़-मांस के नहीं…। ये हाथ लोहे के हैं... लोहे के मैडम…जो एक
बार इन हाथों में आ जाता है। वह कभी नहीं छूट सकता…कभी नहीं…।”
“वहाँ मेरे बिना कैसे रह लेते हो तुम...?”
“वहाँ दूसरी है न...!”
“हाय राम...क्या नाम है उसका...?” मेनका ने मुस्कराते हुऐ कहा।
“ड्यूटी...मैडम ड्यूटी...।”
मेनका ने अपने चेहरे पर आए अपने आँसुवों को पोंछा और फिर उसने आगे
लिखना शुरू किया।
तुम्हारे न होने के बाद अब ये रातें मुझे तड़पाने लगती हैं। मेरे शरीर को जलाने
लगती हैं। मुझे अब बिल्कुल भी नींद नहीं आती। पता नहीं क्यों मेरा शरीर घीरे-धीरे
ठंडा होने लगता है। बाँज के घने जंगलों से बहते हुऐ ठंडे झरने की तरह!
मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है जब दो महीने की छुट्टी बिताने के बाद
वापस अपनी ड्यूटी पर जाते हुऐ तुमने मेरे पेट पर हाथ फेरते हुऐ कहा था, ‘इस
बात का हमेशा ध्यान रखना मेनका कि फौजी की ज़िंदगी का कोई भरोशा नहीं
होता, उसे देश के लिए कब शहीद होना पड़े यह कोई नहीं जानता। मैं साल मैं दो
महीने की छुट्टी आकर तुम्हें अपना सारा प्यार देने की कोशिश करता हूँ।…पता
नहीं, मैं कब तुम्हारे प्यार को पाने में नाकाम रहूँ। कुछ पता नहीं…तुम बहुत सुन्दर
हो, अच्छी हो, तुम्हारे ये पतले-पतले होंठ बहुत ख़ूबसूरत व बहुत प्यारे हैं। बुराँस की
पतली पंखुड़ियों की तरह लाल व बेहद सुन्दर! बार-बार मन करता है कि मै तुम्हारे
रेशम जैसे ख़ूबसूरत लम्बे बालों की छाँव तले पल भर के लिए सुस्ताते हुऐ अपनी
सारी थकान उतार लूँ। इसलिए मैं अगली बार जब दो महीने की छुट्टियों में तुम्हारे
पास आऊँ तो यह तुम्हारी गोद में खेलता हुआ मिले।’
तुमने जैसा कहा, मैने वेसा ही किया। एक दिन जब मैंने अभिनव के जन्म की
सूचना पत्र द्वारा तुम्हें भेजी तो मुझे बहुत जल्दी ही तुम्हारा पत्र मिला। तुमने मुझे
ढेर सारी बधाईयाँ देते हुऐ मुझे सिर आँखों पर बिठा लिया था, और जब तुम छुट्टी
आए तो मुझसे लिपट पड़े थे। एक प्लेट में धूप जलाकर जब तुम उसे मेरे चेहरे के
आगे घुमाने लगे तो मैंने मुस्कराते हुऐ कहा, “अरे...रे...ये क्या कर रहे हो तुम...?”
“तुम्हारी आरती उतार रहा रहूँ।”
“हे भगवान...अब तुम्हें कैसे समझाऊँ कि हमेशा पत्नी ही पति की आरती
उतारती है और एक आप हैं कि...”
“चलो मान लेते हैं कि पत्नी ही पति की आरती उतारती है तो कुछ पल के लिए
सोच लो कि मै तुम्हारी पत्नी बन गया हूँ।”
“न बाबा न...। मै पत्नी ही ठीक हूँ। औरत जब बच्चे को जन्म देती है तो उस
वक़्त जो सुख उसे प्राप्त होता है। वह सुख आदमी को सात जन्म लेने पर भी नसीब
नहीं होता है। अपने इस सुख को औरत कभी किसी के साथ नहीं बाँट सकती।
समझे...मेरे...पति…देव…जी...!”
मेरे शब्दों को सुनकर तुम मुस्कराने लगे। अभिनव को अपनी गोद में लेकर आप
उसे चारपाई पर रखने का नाम ही नहीं ले रहे थे। यही नहीं बल्कि दूसरे दिन सुबह
उठते ही तुमने चाय बनाकर मुझे जगाते हुऐ कहा, “जानू...गरम-गरम चाय पियो।
तुम्हारा फौजी तुम्हारी सेवा में हाजिर है। सेवक हाजिर हो...।”
“अरे...तुम मुझे जगा लेते। मैं चाय बना लेती।”
“सुनो... फौजी की ज़िंदगी जैसी ज़िंदगी तो किसी की हो ही नहीं सकती।
फौजी देश के लिए शान से जीता है और शान से मरता है। फौजी की वर्दी में
मजा…फौजी की ताकत में मजा, और फौजी की चाय में मजा।”
“क्या…? तुम्हारा मजा मैं भोग चुकी हूँ।” मैं तुनक गई थी। और वे दो महीने
कितनी जल्दी बीते कुछ पता ही नहीं चला। लेकिन उसके बाद तुम कभी लौट कर
ही नहीं आए। लेकिन सब कुछ जानते हुऐ भी मैं तुम्हारा इंतेज़ार कर रही हूँ कि
शायद तुम लौट आओगे।”
डायरी का पन्ना पलटते हुऐ उसने कुछ पल के लिए अपनी कलम को रोकते हुऐ
कुर्सी पर अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया था। कड़ाके की शर्दी होने के बाद भी वह
मेज पर रखे लोटे का सारा पानी एक ही साँस में गटागट पी गई थी। वह कुछ पल
तक कुर्सी पर अपनी पीठ टिकाए सुस्ताती रही और फिर उसने अभिनव के पास
जाकर हल्के हाथों से उसके चारों ओर रजाई को ठीक करते हुऐ , उसके माथे का एक
हल्का सा चुम्बन लिया। और फिर कुर्सी पर आकर होंठों ही होंठों में बुदबुदाते हुऐ
उसने बदन पर लिपटे शॅाल से अपनी नाक खुजाई और फिर…आगे लिखना शुरू
किया।
तुम्हारे शहीद होने की सूचना मिलने पर मेरे ऊपर तो पहाड़ ही टूट पड़ा। अपना
तो सबकुछ ही उजड़ गया। मैं बहुत रोई…आज भी रो रही हूँ। औरत के सिर से जब
आदमी का साया उठ जाता है तो फिर उसके जीवन में कष्टों व रोने के अलावा और
होता ही क्या है, उसका जीवन बहुत ही नीरस हो जाता है। शायद पुरूष इस बात को
महसूस न करे। लेकिन औरत इस बात को अच्छी तरह से जानती है। तुम्हारे न
होने से अब ज्यादातर लोग मुझे अनोखी नजरों से घूरने लगते हैं। उनकी नजरों को
देख कर मुझे बहुत डर लगता है। जब मुझे यह एहसास होता है कि मैं अकेली हूँ तो
मेरे माथे से पसीने की बूँदें टपकने लगती हैं। रात को थोड़ी सी भी सरसराहट होती
है तो हृदय की धड़कनें तेज हो जाती हैं। लेकिन मै इतनी कमज़ोर भी नहीं
हूँ कि कोई मुझे छूने की हिम्मत भी कर सके। आखिर में मैं एक बहादुर फौजी की
बहादुर पत्नी जो हूँ। कायरता मुझमें भी नहीं है। वादा करती हूँ कि तुमने कारगिल
में लड़ते हुऐ दुश्मनों के दाँत खट्टे करते हुऐ अपना जो बलिदान दिया है। उस पर मै
कभी भी जीते जी कोई धब्बा नहीं लगने दूँगी।
मैं ऐसा कोई कर्म नहीं करूँगी कि तुम्हारी आत्मा स्वर्ग में रहकर तड़पे। लेकिन
इतना जरूर कहती हूँ कि तुम्हारा प्यार अधूरा रहा। क्योंकि तुमने मेरा जीवन भर
का साथ नहीं दिया। ज़िंदगी के सफर में बीच में से ही चले जाना ये कहाँ की रीति
है…तुम दो महीनों में जो ढेर सारा प्यार मुझे देते थे। उसे पाने के लिए मै तड़प गई
हूँ।
कई बार मैं तुमसे कहती थी कि तुम मुझे इतना प्यार मत दो। लेकिन तुम
हमेशा यही कहा करते कि दस महीने मैं तुमसे दूर रह कर कैसे व्यतीत करता हूँ यह
तुम नहीं समझोगी। फौजी की इस मनोदशा को क्या किसी ने कभी समझने की
कोशिश की, शायद नहीं …। एक ओर जहाँ हम देश की सीमा पर बर्फ से ढकी
पहाड़ों की ऊँची-ऊँची चोटियों में रात-दिन यह सोचते हुऐ अपनी जान की बाजी
लगाने के लिए तैयार रहते हैं कि हमारे देश व हमारे देश की जनता पर कोई आँच न
आए…वहीं दूसरी ओर लोग अपने घरों में बेखबर रहते हुऐ अपनी पत्नी व अपने
बच्चों के साथ चैन की नींद सोये रहते हैं। हम कैसे रहते हैं, कैसे जीते हैं, यह तुम
नहीं जानती मेनका…पर इस बात का हमेशा ध्यान रखना कि अगर साल के इन दो
महीनों में मैं अपने मन में हजारों सपने सजाये जब तुम्हारे पास आता हूँ तो मुझे
कभी भी अपने से अलग मत करना।…अगर ऐसा हो गया तो मैं तुम्हारे प्यार के
बिना जी नहीं पाऊँगा।
शर्दियों के इन दो महीनों में तुम ही नहीं बल्कि मैं भी बेचैन रहती थी। आज भी
मुझे ऐसा लगता है कि शायद तुम किसी भी वक़्त लौट आओगे और मेरे पैरों को
सीधा करते हुऐ मेरे सीने में अपना सिर रखते हुऐ मुझे ढेर सारा प्यार दोगे।
जब कभी मै औरतों के मुँह से सुनती थी कि पुरुष के बिना औरत का जीवन
अधूरा है तो मै हँसती थी। उस वक़्त मै सोचती थी कि कैसी औरतें है जो ऐसी बातें
करती हैं। लेकिन अब मै सोचती हूँ कि उन औरतों का कहना सही था। तुम्हारे बिना
मेरा जीवन भी तो अधूरा हो गया है। मै अकेली हो गई हूँ। निपट अकेली...। कई
बार मैं सम्भलते-सम्भलते लड़खड़ा जाती हूँ। तुम होते तो मै न लड़खड़ाती… और
अगर लड़खड़ाती भी तो तुम मेरा बाजू पकड़कर मुझे सहारा देते हुऐ मेरे पतले-पतले
होंठों पर अपने होंठ रख देते। कई बार तुम अपने दोनों हाथों के बीच में मेरा चेहरा
लेकर मेरी आँखों में अपनी आँखें डालते हुऐ कहते, “तुम उर्वशी से भी सुन्दर हो,
और मेनका...वह तो तुम हो ही...!”
उस वक़्त अगर भूल वश मेरे अन्दर थोड़ा सा भी गुस्सा होता तो तुम्हारा प्यार
पाते ही मेरा गुस्सा ठंडा पड़ जाता…तब मै सोचती कि मुझे तुम्हारे लिए गुस्सा नहीं
करना चाहिए। पति-पत्नी के बीच में तो नोक-झोंक और हँसी-ठिठोली न हो तो फिर
पति-पत्नी का जीवन ही सुखमय कैसा, परन्तु तुमने भी तो कभी कुछ कहा ही
नहीं…कहा होता तो मैं कभी गुस्सा होती ही नहीं। क्या औरत का गुस्सा भी कोई
गुस्सा होता है…? उसी वक़्त
गुस्सा होना और उसी वक़्त हँसते- खिलखिलाते हुऐ छेड़खानी करना। सुबह से शाम
तक काम ही काम…पता नहीं ओरत
में इतनी शक्ति कहाँ से आती है कि उसे थकान ही नहीं लगती, वह टूटती नहीं,
बिखरती नहीं...लेकिन जब किसी औरत का आदमी नहीं होता है न!...तो वह टूट
जाती है… बिखर जाती है…उसका ख़ूबसूरत चेहरा किसी टूटे हुऐ मुरझाए पत्ते की
तरह दिखाई देने लगता है, मैं भी तो टूट गई हूँ न…?
उसी वक़्त अभिनव ने करवट ली तो उसके हाथ अचानक ही रुक गए थे। तभी
रात के सन्नाटे में किसी बूढ़े के खाँसने की आवाज उसके कानों से टकराई तो वह
खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई थी। कमरे में जल रही चिमनी की लौ में अब उसे
अपनी ही छाया बहुत डरावनी व भयानक लग रही थी। वह बड़ी देर तक खिड़की के
पास गुमसुम होकर अपनी उस काली छाया को देखती रही। जो कि लगातार उसकी
नकल करते हुऐ उसका पीछा कर रही थी।
उसने अपने सिर को हल्का सा झटका दिया आखें मिचमिचाई, बाहर अंधेरा इस
तरह पसरा हुआ था कि कहीं कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। ऊँचे-ऊँचे पहाड़ घने
कोहरे की चादर ओढ़े सो रहे थे, स्यालों के रोने की आवाजें और भी डरावनी व
भयानक लगने लगी थी। पहाड़ों से बहती हुई रौली-गदेरियों का शोर कानों से
टकराता तो हृदय की धड़कने एकाएक बढ़ने लगती, और फिर शरीर में एक सिहरन
सी दौड़ जाती।
उसने जैसे ही खिड़की को बन्द करना चाहा। उल्लू की आवाज सुनकर उसके
शरीर में कँपकँपी सी दौड़ गई। उसे वह दिन याद आया…जब सुदेश छुट्टी पर आया
हुआ था। रात को उल्लू की आवाज सुनकर वह बाहर निकल आया था…कुछ देर
तक आवाज सुनने के बाद जब उसे विश्वास हो गया कि उल्लू कहीं दूर जंगल से
बोल रहा है तो वह चुपचाप अपनी चारपाई पर जाकर लेट गया था।
“क्या बात है नींद नहीं आ रही है क्या...?”
“उल्लू बोल रहा है।”
“तो…बोलने दो...।”
“नहीं मेनका…उल्लू कभी भी घर के आस-पास नहीं होना चाहिए। मैं इसीलिए
बाहर यह जानने के लिए निकला था कि कहीं वह हमारे घर के आस-पास तो नहीं
बोल रहा है।”
“इससे क्या फर्क पड़ता है...?”
“फर्क पड़ता है मेनका। सुना नहीं तुमने...जब गाँव में किसी का कोई लड़ाई-
झगड़ा होता है तो वे एक-दूसरे को गालियाँ देते हुऐ कहते हैं कि तेरे घर में उल्लू
बोलेंगे, चुलकटे (चमगादड़) बोलेंगे, स्याल (सियार) बालेगें। कहने का मतलब है कि
तुम सब मर जाओगे तो तुम्हारा घर खण्डहर नजर आएगा।
“पता नहीं लोग इतने गंदे शब्द क्यों बोलते हैं?”
उसे लगा जैसे कि सुदेश उससे बातें कर रहा हो। उसने इधर-उधर देखा, और फिर
उसके मुँह से निकला...ओह...! वह कुछ देर तक गुमसुम खड़ी रही और फिर वह
पागलों की तरह आलमारी खोलकर सुदेश के कपड़ों को चूमने लगी थी। ऐसा करते
हुऐ जब वह थक गई तो उसकी आँखों से बहते हुऐ आँसू धीरे-धीरे उसके ब्लाउज के
हुकों से टकराते हुऐ गुम होने लगे थे।
अपने आँसुवों को पोंछते हुऐ उसने वापस अपनी जगह पर आकर फिर से
लिखना शुरू किया।
तुम्हारे बिना मेरा जीवन भी इस अंधेरी रात की ही तरह सूना है। जिसमें न कोई
चाहत है और न ही कोई जीने की ललक है। मैंने तुम्हारे कपड़े अलमारी में वेसे के
वेसे ही रखे हैं…जैसे तुम रख कर गए थे। तुम्हारी यादों को लेकर जब मै बहुत
परेशान हो जाती हूँ तो तुम्हारे कपड़ों को पागलों की तरह चूमने लगती हूँ। उस वक़्त
ऐसा लगता है जैसे कि तुम मेरे पास दो महीने की छुट्टी आए हुऐ हो। रोज सुबह
उठते ही मैं उस खूँटी को देखने लगती हूँ जिस पर घर आते ही तुम अपनी बर्दी उतार
कर हैंगर के सहारे लटका देते थे। वह हैंगर अब भी उसी खूँटी पर लटका हुआ है जो
तुम्हारी बर्दी को अपने कंधों पर सम्हाले रहता था।… पर अब वह तुम्हारी बर्दी के
बिना सूना-सूना दिखाई देता है।
तुम्हारे बिना घर सूना हो गया है…सीमा रेखा की वह जगह सूनी हो गई है…जहाँ
तुम दिन रात अपनी ड्यूटी पर रहते थे। बैरिक का वह कमरा सूना हो गया है जहाँ
तुम अपना बिस्तर लगाया करते थे।
घने जंगलों के बीच घुमावदार पगडंडियों से जब तुम गाँव आते थे तो उस वक़्त
तुम्हारे फौजी लौंग बूटों की ठक-ठक व करच-करच की आवाज सुनकर मन
प्रफुल्लित हो उठता था। लेकिन अब वह रास्ता तुम्हारे बिना सूना-सूना लगता
है…उस रास्ते पर अब किसी के लौंग बूटों की आवाज नहीं सुनाई देती। रास्ते के
आस-पास चिड़ियों का चहचहाना, तितलियों का मण्डराना व बहती हुई रौली
गदेरियों का गुड़क-गुड़क करता हुआ पानी अब मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं
लगता…पता नहीं क्यों…अब मुझे अपनी ही छाया से डर लगने लगता है, बहुत
घबरा जाती हूँ मै। अपनी घबराहट, मन का अकेला पन तथा रात का सूनापन किसी
को नहीं बता पाती मैं।
रात को खिड़की के पास खड़ी होकर जब मै बाहर पसरे सन्नाटे को देखती हूँ तो
लगता है कि जैसे यह दुनिया एक ही मुट्ठी में समा जाएगी। इस दुनिया में रहने
वाले सभी लोग अपने ही तो हैं। उस वक़्त मै सोचती हूँ कि ये जंगल, ये पहाड़, ये
पेड़-पौधे, पहाड़ों से बहती हुई ये रौली गदेरियाँ, तरह-तरह की रंग-बिरंगी चहचहाती
हुई चिड़ियाएँ, तितलियाँ, गुनगुनाते हुऐ भँवरे, शोर करते बच्चे…सब अपने ही तो
है, फिर मैं अकेली कहाँ हूँ…? प्रातःकाल होते ही जब ओंस की बूदें आँखों से ओझल
होने लगती हैं और लोगों का कान फाड़ देने वाले शोर के साथ-साथ जब गली का
कुत्ता मुझे देखकर गुर्राने लगता है तो लगता है कि यह दुनियाँ अपनी
तो है ही नहीं। यह सब एक छलावा हैं…यहाँ कोई किसी का नहीं…सब अकेले हैं और
सभी को अकेले ही जीना है।
सच कहूँ तो कारगिल में दुश्मनों को मिट्टी में मिलाकर जब तुमने आखिरी साँसे
लेते हुऐ धरती माँ की मिट्टी को चूमते हुऐ , मुस्कराकरा कर सैल्यूट मारते हुऐ ,
अपने प्राण त्यागे होंगे तो उस वक़्त धरती माँ ने तुम्हें नमस्कार किया
होगा…धरती माँ ने तुम्हारे लहू को अपने माथे से लगाते हुऐ गर्व से तुम्हारी जय
जयकार के नारे लगाए होंगे।
तुम बहुत भाग्यशाली थे कि शहीद होते वक़्त धरती माँ ने तुम्हें अपनी गोद में
पकड़ रखा था। उस वक़्त कोई रोया हो या न रोया हो। लेकिन उस वक़्त धरती माँ
अपने पुत्र को शहीद होते देखकर जरूर रोई होगी।…क्योंकि तुम उसके लाड़ले थे,
उसकी गोद में खेलते हुऐ , पलते हुऐ , बड़े हुऐ थे, तुम पहले धरती माँ के पुत्र थे और
बाद में मेरे पति। सच कहूँ तो मुझे अपने आप पर तुम्हारी पत्नी होने का बहुत गर्व
है। मै बहुत भाग्यशाली रही जो कि तुम जैसा पति मुझे मिला। तुम्हारी एक-एक
चीज जो घर में पड़ी हुई है उन्हें मैंने बड़े प्यार से सम्भाल कर रखा हुआ है…क्योंकि
वे चीजें मेरे जीने का सहारा हैं। उन्हें देखकर मुझे प्रेरणा मिलती है कि मुझे अपने
आपको भाग्य के भरोसे मझधार में नहीं छोड़ना है…मुझे ख़ुद जीना है, अपनी
हिम्मत व अपनी सूझ-बूझ से…यह सोचकर कि मैं असहाय नहीं हूँ।
रात भागने की तैयारी कर रही है और डायरी के आखिरी पन्ने भी अपनी
समाप्ति पर हैं…फिर भी मैं डायरी के इन पन्नों में आपकी मीठी यादों को संजोना
चाहती हूँ, ताकि अगर मैं किसी वक़्त लड़खड़ाने लगूँ तो तुम्हारी यादों से भरे ये
पन्ने मुझे उस वक़्त सहारा दे सकें।
तभी तेज हवा के टकराने से खिड़की के देानो दरवाजे जोर से खुले और हवा का
एक तेज झोंका आकर चिमनी की लौ के साथ खेलने लगा, जिसके कारण चिमनी
की लौ कुछ कम हुई…और कम हुई…और फिर एक बार तेजी से ऊपर उठते हुऐ
बुझ गई थी। जिसके कारण कमरे में घुप्प अंधेरा पसर गया था।
वह कुछ पल तक बुझी हुई चिमनी को देखने की कोशिश करती रही…लेकिन
अंधेरा इतना घना था कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। तभी अभिनव
कुनमुनाया, हवा के तेज झोंके कमरे में सरसराने लगे थे। वह खिड़की बन्द करने के
लिए उठी ही थी कि कुर्सी से पैर उलझ जाने के कारण एक घुटी-घुटी सी चीख उसके
मुँह से निकली और फिर वह गिर पड़ी…कमरे में गहरा सन्नाटा पसर गया
था।…लेकिन रात के उस गहन सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश करते हुऐ डायरी के
पन्ने फड़फड़ाते हुऐ एक भयानक तथा डरावना शोर पैदा करने लगे थे।