भीड़
भीड़
मुझे भीड़ का एहसास हुआ जब मै रेलवे स्टेशन से बाहर निकला। मुझे लगा की मैं एक बड़े मशीन का हिस्सा हूं, बिना सोचे समझे कदम बढ़ाना काम है मेरा। कंधे पे पड़ा थैले का बोझ एक सा था, जैसे थैले की भी मशीन में निष्पक्ष हिस्सेदारी हो।
भीड़ के बीच चलते चलते लगा की कुछ सोचने, कुछ पड़ताल करने की जरूरत ही नहीं है। शुरू में नज़रें झुकाए चलता रहा और कोई दिक्कत नही हुई। कभी इसके पीठ पीछे, कभी उसके पीठ पीछे, कभी इसके पैरों के निशान पर, कभी उसके पैरों के निशान पर, भीड़ में चलने की ये अनूठी खासियत रही।
लेकिन चिंतामुक्त भी कब तक रहें? मैंने नज़रें उठाकर चारों ओर देखा। अरे बाप रे! भीड़ तो समरूप बिल्कुल भी नही थी जैसा कि मैंने अब तक मानसिक चित्रण किया था। कई लोग झुंड में चलते थे जिसकी वजह से भीड़ कहीं ज्यादा एकत्रित दिखती थी साथ ही साथ दिखती थी भीड़ के बीचोबीच चलती रिक्त सीमाएं।
मैंने नज़रें फिराई और देखा कुछ लोग तेज़ चल रहे थे वहीं कई लोग सावधानीपूर्वक चल रहे थे। हद तो तब हुई जब मैंने देखा कुछ मसखरे पक्के पैरों के चिन्ह पे चलने का प्रयास कर रहे थे। एक तो इतनी भीड़ और उसमें वो उसके पीछे चलने की ठान चुके थे। मुझे हंसी
आती जब कभी वो आपस में टकराते, कभी भीड़ से भिड़ जाते क्यूंकि उन्हें उस महापुरुष के पीछे ही चलना था।
भीड़ ने मुझे सबसे महत्त्वपूर्ण बात सिखाई-चलना। अगर चलते नहीं तो कुचल दिए जाते। मैंने कई लोगों को ठोकर खाते, गिरते देखा बस इसलिए क्यूंकि वो धीरे चलते थे।और उन्हीं के बीच कुछ मदमस्त प्रेमी युगल भी थे, जिन्हें सैकड़ों ठोकरों के बावजूद दुनिया से कुछ लेना देना न था। कुछ लोग चतुर थे कि भीड़ के चलने को उन्होंने मनोरंजन का साधन बना लिया।
मैंने ऐसे लोग भी देखें जिन्होंने भीड़ को कुचलता देख, मददगारों को भी उनकी ओर फेंक - उसमें रस पा लिया। भीड़ अब मुझे विचलित कर रही थी। मुझे एहसास हुआ कि मुझमें भी जान है, मैं मशीन का हिस्सा मात्र नही हूं। कंधे पे पड़ा थैला अब बोझ लगने लगा था। अब तो मैं लोगों से टकराता भी जा रहा था। कहीं भीड़ मुझे कुचल ना दे, मैंने चारों ओर देखा।
ओह! अब समझ आया। ये बस कुछ समय की बात थी। भीड़ हमेशा के लिए नही थी। धीरे धीरे ज्यों सब अपने अपने रास्ते की ओर मुड़े, भीड़ छंटती चली गई। मैं चौराहे पे खड़ा उन्हें घूरता रहा। मुझे चिंता हुई कि ये मैं कहां आ गया, मै तो रेलवे स्टेशन से घर की ओर जा रहा था।