अबोध मन
अबोध मन


आज सवेरे से ही विशाल का मन उमंग से भरा हुआ था। सवेरे उठने में भी उसने किसी प्रकार का आलस्य नहीं दिखाया। स्कूल के लिए भी झटपट तैयार हो गया। आज स्कूल से उसे कोई ‘बाल सिनेमा’ देखने जाना था। दो दिन से वह इस दिन की प्रतीक्षा में था और अपनी माँ कौशल्या को इस बारे में पता नहीं कितनी बार बता चुका था। माँ कौशल्या भी अपने पुत्र के इस उमंग को देख फूले नहीं समा रही थी।
समयानुसार, वह स्कूल के लिए खुशी-खुशी चल पड़ा। स्कूल के फाटक तक पहुँचा ही था कि देखा, बहुत से विद्यार्थी पहले से ही वहाँ उपस्थित थे। आज कक्षाओं से छुट्टी मिल गई थी, तो विद्यार्थियों की खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। सभी छात्र-छात्राएँ अध्यापकों के आने का बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। सिनेमाघर स्कूल के पास ही था, सभी को कतार में जाना था। उनके इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं। दो अध्यापिकाएँ आईं, उनमें से एक अध्यापिका ने सभी को कतार में खड़ा किया और दूसरी अध्यापिका एक सूची बनाने लगीं, जिसमें वे उपस्थित सभी विद्यार्थियों के नाम और कक्षाएँ लिखती जा रहीं थीं। छात्रों को कुछ विशेष और आवश्यक सूचनाएँ भी देनी थी। निश्चित समय पर सभी विद्यार्थी कतार में चलते-चलते सिनेमाघर पहुँच गए। सिनेमाघर देखकर सभी छात्र उत्साह से भर गए थे। अध्यापिका की सूचनानुसार सभी सिनेमाघर के अंदर पहुँच गए और निर्दिष्ट कुर्सियों पर बैठे गए। बड़ी ही तल्लीनता के साथ विशाल ने सिनेमा देखा । सिनेमा समाप्त होने के बाद, उन सभी को पुन: कतार में ही स्कूल पहुँचना था और वहाँ से घर प्रस्थान करना था। सभी छात्र आज्ञा पालन कर अपने-अपने घर प्रस्थान हो गए।
सिनेमा से लौटते हुए विशाल का मन पता नहीं क्यों दुखी हो उठा। वह चुपचाप घर आ गया। माँ से भी कुछ नहीं बोला। बेटे को इतना शांत देखकर कौशल्या भी अचम्भित थी, फिर भी उसने घैर्य साधा। वैसे तो विशाल की नित्य आदत थी कि वह फाटक खोलकर अंदर आते-आते ही चिल्ला कर माँ को पुकारने लगता था और स्कूल में हुई बातों का ब्यौरा देना शुरू कर देता था। कौशल्या आज अपना सारा काम निपटाकर बैठी थी कि विशाल जब घर आएगा तब, वह काम नहीं कर पाएगी। वह सिनेमा की बातें सुनाएगा, उसे वह तत्पर होकर सुनेगी। आशा के विपरीत विशाल घर आया, परन्तु चुप-चाप। बिना कुछ कहे हाथ-मुँह धो लिए, कपड़े बदले, माँ ने उसकी पसंद का हलवा बनाकर रखा था। विशाल को देखते ही उसने दोने में हलवा डालकर खाने को दिया। विशाल ने बिना किसी प्रतिक्रिया के हलवा खा लिया और पुस्तकें खोलकर अनमने से पढ़ने लगा। कौशल्या की समझ में कुछ नहीं आया। वह भी सामान्य सी अपने काम में लग गई। उससे चुप नहीं रहा जा रहा था। उसने आखिर पूछ ही लिया, ‘विशाल ! फिल्म कैसी थी’ ? विशाल ने छोटा सा उत्तर दिया, ‘अच्छा थी, माँ’। पुस्तकों में लगे हुए विशाल को वहीं छोड़कर कौशल्या रात का खाना बनाने में व्यस्त हो गयी। आठ बजते-बजते विशाल खाना खाकर चुपचाप सोने को तत्पर हो गया
कौशल्या जब तक चादर उड़ाकर, कमरे की बत्ती बुझा नहीं देती थी, विशाल सोता नहीं था, उसने न माँ को बुलाया, न बत्ती बुझाने को कहा। कमरे में जाकर स्वयंमेव बत्ती बुझा, चादर ओढ़कर सो गया। कौशल्या को, विशाल का यह व्यवहार बड़ा अटपटा-सा लगा। वह अबोध मन को समझने के प्रयास में लग गई।
दूसरे दिन सवेरे भी विशाल चुपचाप उठा, नहा-धोकर तैयार हो गया और नाश्ता करने के लिए बैठ गया। कौशल्या उसके थैले में किताबें भर रही थी, तभी विशाल के प्रश्न ने उसे चौंका दिया। ‘माँ, क्या सचमुच झूठ बोलने से किसी की माँ मर जाती है’ ? कौशल्या निरुत्तर सी हो गई। उसने आप को सम्भाला। उसने विशाल को बड़े ही लाड़-प्यार से पाला था, किसी चीज़ की कभी कोई कमी नहीं होने दी थी। उसके लिए वह आँखों का तारा था, सभी नैतिक मूल्यों, सदाचार और शिष्टाचार की बातें सिखाई थी। यथा समय उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी। किसी वस्तु की चाह करता तो उसे प्यार से लाकर देती थी। ऐसे क्या हो गया कि, उसका मन यूँ उदास हो गया। इस प्रश्न से तो उसका मन ठनक गया। कौशल्या अपने विचारों में खोयी हुई थी, तभी विशाल ने लगभग चीखते हुए कहा - ‘माँ, बोलो न’ । कौशल्या की तंद्रा टूटी। उसे यह समझ में नहीं आ रहा था कि विशाल से वह क्या बोले। वह केवल ‘हूँ’ कहकर चुप हो गई। उदास मन विशाल ने कहा - ‘माँ ! कल हमने जो सिनेमा देखा था न, उस में राजू की माँ मर जाती है’ ? कौसल्या ने पूछा - ‘कैसे’ ? विशाल अपनी आँखें चौड़ी करते हुए कहने लगा - ‘माँ, राजू और बिल्लू बहुत अच्छे दोस्त होते हैं। राजू एक बहुत ही शरारती और बुरा लड़का है और बिल्लू बहुत अच्छा। राजू बार-बार झूठ बोलता था और लोगों को सताता रहता है। घर के सभी लोग उससे परेशान थे और एक दिन उसकी माँ, उसे सुधारने में असफल होकर, रोती-बिलखती मर जाती है। तब राजू को अपनी ग़लती का एहसास होता है और उस दिन से वह बिल्लू की तरह अच्छा बनने का प्रयास करने लगता है।
कौशल्या को बेटे की मन:स्थिति अब समझने में आ गई। वह न तो बेटे की इस बात को गम्भीरता से लेना चाहती थी, न ही उसे ऐसे ही जाने देना चाहती थी। उसे एक क्षण यह नहीं समझ में आया कि, उसे क्या उत्तर देना चाहिए, वह बस इतना ही कह पाई, ‘हाँ बेटा, झूठ बोलने से माँ को दुख पहुँचता है, उसका दिल भर जाता है और उसी से उसकी मृत्यु हो जाती है’। उसका उत्तर अभी पूरा भी नहीं हुआ कि, विशाल के दूसरे प्रश्न से वह ठगी सी रह गई। ‘माँ ! तब क्या उदय की मम्मी भी मर जाएँगीं’ ? कौशल्या लगभग निरुत्तर-सी हो गई। इस अबोध मन में क्या-क्या बातें चल रहीं हैं। कल के सिनेमा से इस का मन इतना प्रभावित क्यों हो गया ? यह ऐसी बातें क्यों कर रहा है ?
उदय, उनके मकान मालिक का छोटा बेटा था। बड़ा ही उद्दण्ड, शरारती और हमेशा झूठ बोलता रहता था। हर दिन उसकी पिटाई होती थी, पर उसमें सुधार के नाम पर किंचित भी बदलाव नहीं आ रहा था। कभी-कभी उसकी इतनी धुलाई होती थी कि वह कौशल्या के घर दौड़कर आ जाता था और कौशल्या से, उसे कहीं छुपा लेने को कहता था। कौशल्या उसे समझाने की असफल कोशिश करती थी, खिला-पिलाकर, पुचकारती और फिर उसे वापस घर भेज देती थी ।
विशाल को, अपनी माँ का इस तरह उदय को पुचकारना अच्छा नहीं लगता था पर फिर भी चुपचाप तमाशा देखता रहता था। मन ही मन सोचता, उदय बहुत बुरा है, भगवान इसको सज़ा क्यों नहीं देते हैं ?
दिन गुज़रने लगे, उदय का झूठ बोलना कम नहीं हुआ। उसे देखकर विशाल का मन मथ जाता था, पर वह माँ से कुछ नहीं कह पा रहा था ।
विशाल की चीख से कौशल्या वर्तमान में आई। विशाल ने फिर सवाल किया, माँ, उदय की माँ अभी नहीं मरेंगी न’ ? भगवान उस को सज़ा नहीं देंगे न माँ, बोलो न, माँ बोलो न’ । कौशल्या खीझकर बस यही बोल पाई - ‘विशाल ! बार-बार एक ही सवाल नहीं किया करते, भगवान के सज़ा देने के अलग-अलग ढंग होते हैं, इसीलिए तो उदय को आए दिन चोटें लगती रहती हैं और वह अपनी माँ से पिटता रहता है’ । विशाल, माँ की ओर प्रश्न सूचक दृष्टि से देखता रहा, माँ के उत्तर से संतुष्टि नहीं हुई परन्तु दोबारा प्रश्न करने की हिम्मत भी नहीं हुई। मन में बीते हुए दिन की, सिनेमा में देखी हुई घटना की अमिट छाप अंकित हो गई थी। राजू की तुलना इस अबोध मन ने उदय से कर लिया था और उसकी शैतानी उससे छुपी नहीं थी। भगवान के सज़ा देने का एक ही तरीके को वह सिनेमा में प्रत्यक्ष देख चुका था। वह उदय के प्रति सहृदय भाव रखता था परन्तु कौशल्या का उसको पुचकारना, खिलाना-पिलाना भाता नहीं था । माँ, उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाई, उसे डाँट-डपट दिया पर वह इतना समझ गया था कि बुरा करने से बुरा ही होता है। भगवान उदय को सज़ा तो अवश्य देंगे, पर कैसे देंगे ? उसकी माँ को कुछ हो गया तो, उदय का क्या होगा, उसके बड़े भाई, पिताजी का क्या होगा ? इन छोटी-छोटी पर, गम्भीर बातों से वह दुखी हो गया था। विशाल की चुप्पी से कौशल्या भी अप्रसन्न सी हो गई थी। इसके मन से सिनेमा में देखी हुई बातों को कैसे निकाले, पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला बालक अब धीरे-धीरे दुनियादारी समझ रहा था, प्रत्यक्ष एवं परोक्ष बातों को समझने का प्रयास भी कर रहा था। कौशल्या, बालक के मन में आ रहे विचारों का समाधान ढूँढ नहीं पा रही थी। इस समय चुप रहना ही एक मात्र समाधान जान पड़ रहा था। विशाल को, माँ कौशल्या से सामान्य होकर बात करने में लगभग दस-बारह दिन लग गए। वह न तो पहले की तरह चपड़-चपड़ बोलता था और न ही स्कूल में हुई किसी बात या घटना के बारे में कुछ कहता। कौशल्या, बेटे में आए हुए इस परिवर्तन को देख रही थी परन्तु कुछ बोल नहीं पा रही थी ।
कुछ महीने और इसी तरह बीत गए । इस बीच कौशल्या का घर भी बन गया था और वह अपने नए घर चली आई थी । विशाल, कुछ दिन अपने पुराने दोस्तों के साथ खेलने जाया करता था, फिर जब यहाँ, उसके नए दोस्त बनने लगे तो पुराने दोस्तों का साथ लगभग छूट गया, जब-तब उनसे मिलने चला जाता था परन्तु पहले की तरह प्रतिदिन मिलना नहीं होता था ।
विशाल अब आठवीं कक्षा में आ चुका था। पूरी तरह पढ़ाई में लग गया था। खेल-कूद से उसका ध्यान हट चुका था। छुट्टी के दिन या कभी-कभार ही वह खेलने जाया करता था। कौशल्या अपने बेटे की लगन को देख बहुत प्रसन्न थी। उसकी आवश्यकता की सभी चीज़ें उसके लिए उपलब्ध कराती थी।
ऐसे ही दिन बीत रहे थे। इतवार का दिन था। विशाल, उदय और अपने पुराने साथियों से मिलने की इच्छा से उनके घर की ओर चल पड़ा। कौशल्या भी रसोई से निपट चुकी थी। घर की साज-सज्जा करने में व्यस्त हो गई। इतने में उसे विशाल की चीख सुनाई दी। चीख के साथ-साथ दरवाज़े पर ज़ोर से दस्तक हुई, माँ ! दरवाज़ा खोलो, माँ’। कौशल्या एक क्षण में ही दरवाज़े पर पहुँच गई। उसे लगा कहीं, विशाल को चोट तो नहीं पहुँची। उसने लगभग लपक कर दरवाज़ा खोला, हाँफता हुआ विशाल बोल उठा, ‘माँ, भगवान ने उदय को सज़ा दे दी।' कौशल्या भी चीख उठी - ‘क्या हुआ, विशाल’, भगवान ने कौन सी सज़ा दी’ ? विशाल हड़बड़ा कर बोला - ‘माँ, उदय मर गया, माँ, उदय मर गया।' भगवान ने ये कैसी सज़ा दे दी उसे’ ? सिनेमा में तो दिखाया गया था कि झूठ बोलने से माँ मर जाती है, पर यहाँ तो भगवान ने उसको ही ...’ वह आगे कुछ नहीं बोला ।
विशाल की बातें सुनकर कौशल्या के पैरों तले की ज़मीन खिसक ग । उसने तनिक गुस्से में उससे पूछा - ‘क्या बात कर रहे हो ? तुम्हें किसने बताया, वह कैसे मर गया’ ? उसने कहा - ‘माँ, यह तो पता नहीं, पर मैं उसके घर पहुँचने ही वाला था कि मैं ने देखा, उसके घर के पास बहुत भीड़ जमा है, वहाँ खड़े अपने एक दोस्त से पूछा तो, उसने बताया कि उदय मर गया है। माँ, चलो माँ, उदय के घर चलें।' कौशल्या एक क्षण भी अब रुक नहीं पाई। उसके हाथ-पैर सुन्न पड़ गए थे, साहस बटोर कर, जल्दी से ताला लगाया और विशाल के साथ उदय के घर की ओर भागी।
दूर से ही उसने उदय के घर के पास जमा भीड़ देख ली थी, उसे समझते देर नहीं लगी कि जो खबर विशाल लेकर आया था, वह सही है। विशाल का हाथ पकड़ वह घर के अन्दर पहुँची। बैठक में, कमरे के बीचों-बीच उदय का पार्थिव शरीर ज़मीन पर रखा हुआ था और उसकी माँ छाती पीट-पीटकर रो रही थी। कौशल्या को देखते ही वह और ज़ोर-ज़ोर से चीखती हुई रो पड़ी। ‘कौशल्या मेरा बेटे मुझे वापस ला दो। मेरा बेटा वापस ला दो। जब मैं उसे मारती थी, उसे तुम बचा लेती थीं, आज भी उसे बचा लो, उसे बुला लो, वापस बुला लो, मेरे उदय को बुला लो।' उदय की माँ की बातें, दिल दहला देने वाली थी। उसकी हृदय विदारक रुदन पूरे वातावरण को भयावह कर रहा था। विशाल माँ के पास खड़ा सब कुछ सुन रहा था और उसकी प्रतिक्रिया देख रहा था। चेहरे के भाव बता रहे थे, वह देखना चाहता था कि अब माँ, क्या करेगी ? कौशल्या का मन द्रवित हो उठा। उसकी आँखों से आँसू टप-टप टपक रहे थे । कोई भी माँ इस दु:ख को सहज नहीं ले सकती थी। वह न तो सान्त्वना दे पा रही थी, न चुप हो पा रही थी। अब उसके मन में एक प्रश्न और मथ रहा था, घर जाने के बाद विशाल के सवालों का वह क्या जवाब देगी ? क्या भगवान की लीला ऐसे ही होती है, क्या भगवान ऐसे भी दण्ड देते हैं ? तरह-तरह के सवाल उसके मन में कौंध रहे थे। कौशल्या ने थोड़ा-सा साहस बटोरकर उदय की माँ से पूछा, बहन जी ! क्या हुआ था उदय को ...’ ? उसकी माँ रोती-बिलखती बोलने लगी - ‘आज क्रिकेट मैच देखने हम सब लोग बैठे थे, टी. वी. देखने की जल्दी में उदय हड़बड़हाट में खाना खाने लगा। खाना उसके साँस लेने वाली नली में चला गया, वह ज़ोर-ज़ोर से खाँसने लगा और उसकी आँखों से आँसू बह चले। उसे साँस लेने में दिक्कत होने लगी, तो हम अस्पताल ले गए। उसे एमरजेंसी वार्ड में रखा गया, श्वास नली में चावल के कुछ दाने चले गए थे, लाख कोशिश करने पर भी डॉक्टर उसे बचा नहीं पाए।' ऐसा कहकर वह और भी चीखें मार-मारकर रो पड़ी।
कौशल्या चुपचाप बैठी उदय के पार्थिव शरीर को देख रही थी, पुरानी बातों को याद कर रही थी, माँ के द्वारा पिटने पर वह उसके घर भाग आता था, उसकी माँ का चिल्लाना सुनाई पड़ता तो, कौशल्या को यह समझते देर नहीं लगती थी कि उदय ने आज फिर कोई शरारत की है। अब वह उसके घर आएगा। वास्तव में उदय उसके घर भागते हुए आ जाता था। उसे छुपा लेने को कहता था। थोड़ी देर वहीं बैठकर, खा-पीकर चला जाता था। कभी-कभी उसकी माँ की आवाज़ और भी ज़ोर से सुनाई देती थी, तू मर क्यों नहीं जाता, मुझे इतना सताता क्यों है, जा मर जा।
उदय की माँ का रोना, वहाँ उपस्थित लोगों को बहुत कष्ट दे रहा था। कौशल्या सोचती रही, क्या भगवान इतना निर्दयी हो जाता है और ऐसी सज़ा भी दे देता है जहाँ मनुष्य को फिर ऐसे अपशब्द बोलने का मौका ही नहीं मिलता है। विशाल कभी अपनी माँ को देखता, कभी रोती-बिलखती उदय की माँ को और कभी उदय के पार्थिव शरीर को।
थोड़ी देर में ही अन्तिम यात्रा के लिए गाड़ी आ गई थी। बेबस-मज़बूर माँ बेटे के शरीर से लिपटी, भावावेश में बोले जा रही थी - ‘मैं ने इसे इतना मारा, पिटा है, हे भगवान, मैंने इसे मर जाने की गाली भी दी, तूने मेरी बात को क्यों सुन लिया, मैं कैसी अभागिन हूँ, अपने ही बेटे की मृत्यु की कामना कर बैठी और भगवान ने उसे तुरन्त सुन भी लिया। हे भगवान ! मेरे बेटे की आत्मा को शन्ति देना, उसे अगले जन्म में मेरा बेटा नहीं बनाना, नहीं तो मैं तब भी उसे मर जाने की गाली दूँगी। हे भगवान ! मेरी जैसी माँ इस संसार में कोई नहीं होगी।'
कौशल्या ने आगे जाकर रोती-बिलखती माँ को संभाला। लोगों ने शव को गाड़ी में रखा, गाड़ी चल पड़ी। उदय इस घर से दूर, इस दुनिया से दूर, बहुत दूर चला गया, फिर कभी वापस न लौटने के लिए, खुशहाल, भरे-पूरे परिवार में मानो ग्रहण लगा कर चला गया।
कौशल्या, विशाल को लेकर अपने घर की ओर मुड़ गई। नहा-धोकर वह अपने काम में व्यस्त हो जाना चाहती थी। विशाल भी नहा-धोकर, अपनी पढ़ाई में लग गया। पतिदेव किसी काम से बाहर गए हुए थे। उनके आते ही, कौशल्या ने पूरा वृत्तांत कह सुनाया। विशाल किताबों में खो जाना चाहता था, परन्तु ध्यान उसका बिल्कुल नहीं था। उस दिन रात का खाना, सभी ने जल्दी कर लिया था। विशाल पहले ही अपने कमरे में चला गया था। उसके कमरे की बत्ती बुझाने के लिए कौशल्या गई, तभी उसकी घुटी-घुटी सी आवाज़ उसको सुनाई दी। ‘माँ, क्या आज मैं आप के साथ सो सकता हूँ।' कौशल्या भी शायद इस बात के लिए पहले से तैयार थी, उसने कहा -‘हाँ, हाँ, चलो, अपना तकिया और चादर ले आओ।'
पतिदेव कोई पुस्तक पढ़ रहे थे, एक साथ माँ-बेटे को देखकर, उन्हें समझते देर नहीं लगी कि विशाल अपने दोस्त की बात को लेकर परेशान है। विशाल पलंग के एक तरफ सो गया, माँ ने उसे चादर ओढ़ाया, बत्ती बूझा कर वह भी लेट गई। विशाल के सिर पर प्यार से हाथ फेरा, बेटे ने, माँ के हाथ पकड़ लिया । ‘माँ ! मैं कभी झूठ नहीं बोलूँगा, माँ कभी नहीं।' विशाल अब लगभग तेरह वर्ष का हो गया था, परन्तु इस आयु में भी उसका भोलापन सहज ही झलक रहा था। कभी-कभी कुछ बातें बच्चों के मन में इस प्रकार घर कर जाती है कि उसे दिल से निकालना कठिन हो जाता है। विशाल की बातें सुनकर कौशल्या और भी उदास हो गई। वह सिर्फ ‘हूँ’ कहकर चुप हो गई। इस समय कौशल्या को विशाल वही पाँच वर्षीय भोला-भाला सा जान पड़ रहा था। वह उसके पीठ पर धीरे-धीरे थप-थपा रही थी और विशाल को भी माँ का यह स्पर्श सुख प्रदान कर रहा था। पता नहीं कब वह नींद के आगोश में चला गया परन्तु कौशल्या के लिए नींद कोसों दूर थी। उदय की मृत्यु का मर्म भुलाना इतना आसान नहीं था। बचपन की बातों को भुला देना इतना आसान नहीं था। कुछ बातें स्मृति में रह ही जातीं हैं। विशाल का अबोध मन पता नहीं कब संभल पाएगा।