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उस रमणी के आलिंगन में

उस रमणी के आलिंगन में

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उस रमणी के आलिंगन में


डूब चुके हो डुबा चुके हो

समय बहुत तुम खपा चुके हो

क्या पाया उस हाड़-मांस में ?

उस रमणी के आलिंगन में


जब तक तन है तब तक मन है

यह जीवन का कैसा रण है ?

कैसा सुख मिलता है उसमे ?

उस रमणी के आलिंगन में


फेंक निकाल तू उस रावण को

जिससे यह जीवन पावन हो

है कैसा सुख उस धन में ?

उस रमणी के आलिंगन में


वह तो बस एक परछाई है

ना जाने कहाँ से वो आई है ?

क्यूँ झुलस रहे हो तपते वन में ?

उस रमणी के आलिंगन में


बंधु ! वह दो क्षण का सुख है

जो विजय हुआ वही पुरुष है

पुरुषार्थ का फूल ना इस उपवन में

उस रमणी के आलिंगन में


हो पुरुष तो मर्यादा को खोजो

हवस न मन में कभी सहेजो

रंग गये हो क्यूँ उसके अंजन में ?

उस रमणी के आलिंगन में 



उस रूपवती का सम्मान करो तुम

पवित्र स्पर्श हो ! ध्यान रखो तुम

यह खूबी हो गर तेरे मन में

फिर सैर करो उन्मुक्त गगन में

उस रमणी के आलिंगन में ।।




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