तहखाने
तहखाने
सुना है
इस शहर में
हर मकान, हर घर में
तहखाने हैं।
कुछ मकान कदरन नये हैं
कुछ पुराने, कुछ बहुत पुराने
और कुछ खंडहर।
कुछ मकानों में
पहले बाशिन्दे के वारिस
रहते आये हैं - पुश्त दर पुश्त।
कुछ मकानों प' काबिज हैं
वारिस ऐसे लोगों के जिन्होंने
कब्ज़ा किया था कभी
किसी पुराने बाशिन्दे को मार भगा कर
या किसी साज़िश, किसी समझौते के तहत।
कुछ और मकान रहाइश रहे
ऐसे लोगों की जो आते-जाते रहे
बगैर कोई निशान छोड़े।
गुज़श्ता सालों में
हर पीढ़ी में, हर शख्स ने
कभी न कभी, किसी न किसी रोज़
कुछ हवादिसात, कुछ तज़ुर्बात
कुछ अहसासों, कुछ हसरतों
की गठरी बांधी और
आंखें मींच कर, सांसें रोक कर
किवाड़ थोड़ा सा खोल कर
फेंक दी अपने घर के तहखाने में।
सुना है
अब ये चाहत है कुछ लोगों की
- एक जायज़ ईमानदार चाहत,
कि तहखानों के दरवाजे
खोल दिये जायें - चौपट।
मगर मुद्दा ये है कि
बाद मुद्दत के खुलें जो सदियों से बन्द दरवाज़े
तो गन्ध घुटन की आयेगी ही।
चन्द लोग ही होंगें जो
घरों की खिड़कियां खोलेंगें तहखानों से पहले
ताकि टटकी उजास का अहसास
धो सके तहखानों में जमा अंधेरों को।
और बहुतेरे होंगे जो
पर्दे खींचेंगे पहले से खुली खिड़कियों पर
फिर अपने तहखानों के दरवाजे खोलेंगे;
और फिर
वो तमाम घुटन
वो तल्ख अंधेरे
उनकी रूहों में उतर जायेंगे;
और वो ढूढ़ेंगे
कुछ ऐसी शक्लें
जिनसे तलब कर सकें हिसाब
पुश्तों पहले लगे ज़ख़्मों का।
