सुना है –
सुना है –
कृष्ण तुम न्याय दिलाते हो,
द्रौपदी की लाज बचाने
समय पर पहुँच जाते हो।
बचपन से यही पढ़ा, यही सुना।
किंतु अब एक प्रश्न करता, चिंतित मुझको।
आज न जाने कितनी द्रौपदियाँ,
पुकार रहीं, बार-बार, तुमको
क्यों नहीं पहुंचती, तुम तक उनकी आवाज़।
16 दिसंबर की सूनी ढिढुरती रात में,
एक मासूम पांचाली, निर्भया, दिमिनी,
हो, कोई भी नाम, फर्क क्या पड़ता है,
दु:शासनों ने किया, उसका चीरहरण,
फिर शीलहरण,
तन ही नहीं, आत्मा तक हुई।
उसकी छलनी।
अपनी वस्त्रहीन काया को अपने हाथों से
छिपाने की कोशिश हो रही थी उसकी नाकाम
पुकार रही थी, तुम्हें बार-बार।
दोस्त भी उसका नहीं बैठा था मौन,
किया था उसने भी प्रतिकार।
पर, उस दिन जीत गया दु:शासन
क्योंकि तुम तक नहीं पहुंची द्रौपदी की करुण पुकार।
क्या तुम राजगद्दी के मोह में फंस गए।
खेल रहे थे रासलीला गोपियों के संग,
या रुक्मणी के गेसुओं में खो गए।
क्या चढ़ गया, तुम पर
वर्तमान राजनीति का रंग,
या फिर किसी विदेश यात्रा पर चले गए।
सुनो कृष्ण
माँ का दिल अब बेटी को पैदा कर डर रहा,
चारों ओर घूम रहे, दु:शासन, दुर्योधन
कोई पिता ही बेटी को बना रहा गर्भवती,
तो कहीं भाई ही बहन का शील हर रहा।
क्या हुआ न्याय को तुम्हारे,
क्यों नहीं, तुम्हारा सुदर्शन चक्र चल रहा।
सुनो कृष्ण, सुनो,
नहीं सुनते, क्यों, नहीं देते उत्तर
कहाँ तुम चले गए?
कौरवों के संग तो नहीं मिल गए।
आज की राजनीति में सबकुछ
जायज माना जाता है।
कभी किसी, को कभी किसी को
यूज कर लिया जाता है।
सो तुम नहीं सुन रहे,
चलो न सुनो कृष्ण,
सुनो द्रौपदी, तुम्हें ही अब बनना
होगा सशक्तुम्हें ही उठाने होंगे अस्त्र
क्यूंकि नहीं आएगा कोई कृष्ण,