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सपना भी एक घर है

सपना भी एक घर है

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अतीत-स्वप्न में जीता रहूँ

या

लौटूँ अतीत के यथार्थ की ओर

इसी द्वंद्  में जीता रहा कई जीवन

लौटना चाहता था अतीत-यथार्थ की ओर

देखना चाहता था

अपने बालपन में भोगे हुए मैदान, गलियाँ

सटे हुए मकान

खंडहरों के अँधेरे कोनों में हिलकते कुछ परछावें

गलियों में चरखा कातते-कातते

ठिठौली करती औरतें

उन औरतों में मेरी माँ

डिबरी की रौशनी में चलती दुकानें

चिलकते-खिलकते बच्चे

और नैनन ही सौं सैन फ़ेंकतीं मुटियारें।

कितना मोहक होता है

अतीत-स्वप्न के साथ जीना

और कितना कठोर होता है

अतीत स्वप्न में सेंध मारकर

यथार्थ में उतरना।

 

वक़्त भला कहाँ ठहरता है

समय के पिछवाड़े जाकर

उसे पकड़ने और फ़िर से पहचानने की ज़िद

हमें ले जाती है वहाँ

छूटे हुए मोहल्ले, खेत, पेड़, गलियाँ और इमारतें

गलियों और खेतों की मिट्टी में कहीं दबा-छिपा अतीत।

 

ढूँढता हूँ अतीत-स्वप्न में।

स्थिर होकर बंध चुकी छवियाँ

यथार्थ के मुहानों से टकाराती हैं

और चूर-चूर होता है अतीत-स्वप्न

चूर-चूर होना और बिखर जाना

अतीत स्वप्न का

और फ़िर स्मृति से बाहर होने की कोशिश

इस अहसास की तकलीफ़ को

कभी महसूस किया है आपने?

टूटता है अतीत-स्वप्न

टूटना ही है उसे

मैं फ़िर किसी और अतीत-स्वप्न में दाखिल हो जाता हूँ

अपना ही एक आदेश बाँधता है मुझे

कि अतीत-स्वप्न को स्वप्न ही रहने दो

न टकराओ उसे वर्तमान से

वर्तमान हमेशा चुनौती देता है और

अतीत-स्वप्न देता है एक ऐसा घर

जिसके किसी भी कोने में

आप गुज़ार सकते हैं

अपनी ज़िन्दगी के

बेचैन हादसे और उदास लम्हें।


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