क़िस्सा मेरे बचपन का..
क़िस्सा मेरे बचपन का..
बचपन के कई क़िस्सों से
एक क़िस्सा याद आता है
लगे मेला कहीं भी अब
साथ वालिद का याद आता है
शाम होते ही ज़िद पकड़ना
जो चाहा लेना उस पे अड़ना
कहीं भीड़ में गुम हों ना जाऊँ
डर से उंगली कस कर पकड़ना
वो खिलाते और खिलौने दिलाते
और मेरी ज़िद पर झूला झुलाते
याद है उनका वो झूले वाले को समझाना
गर डरे मेरा बेटा तो थोड़ा हल्के झुलाना
ख़ुशी झूले की मेरे चेहरे पर साफ दिखती थी
फ़िक्र मेरी, आँखों में उनकी कैसे झलकती थी
उतर झूले से फिर दौड़ कर उनको लिपट जाना
और अगली गुज़ारिश झट से जुबाँ पर ले आना
थक गए जब घूम कर फिर घर का रुख़ करते थे
खिलौने दिखाते घर पहुँचकर बातें ख़ूब करते थे
मेले के हर क़िस्से में हम एक बात आम रखते थे
जो रह गया देखे बिना ख़ूब उसका बयान करते थे
बचपन के कई क़िस्सों से
एक क़िस्सा याद आता है
लगे मेला कहीं भी अब
साथ वालिद का याद आता है।
