परिपक्व
परिपक्व
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परिपक्व होना निश्चित है
हर वस्तु के लिए,
प्रेम परिपक्व होकर
पिता बन जाता है,
दुख परिपक्व होकर
'अनुभव'
बेईमानी परिपक्व होकर
'सत्यनिष्ठा' बन जाती है
ईर्ष्या की परिपक्वता
'साहचर्य' बनती है।
जो जैसा होता है,
वह अगले क्षण
ठीक वैसा कहां रहता है।
दुख कहां दुख रहता है,
ईर्ष्या कहां ईर्ष्या ?