पिपीलिका
पिपीलिका
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चींटी को देखा ?
वह सरल ,विरल ,खाली रेखा
तुम के तागे- सी जो हिल- डुल,
चलती लघुपत पल-पल मिल-जुल
वह है पिपीलिका-पाँति
देखो न, किस-भाँति,
काम करती वह सतत,
कन-कन करके चुनती अविरत।
गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती।
लड़ती, अरि से तनिक न डरती
दल के दल सैना संवारती,
घर, आंगन, जनपथ बुहारती ।
देखो, वह वल्मीकि सुघर,
उसके भीतर है दुर्ग, नगर,
अद्भुत उसकी निर्माण-कला,
कोई शिल्पी क्या कहे भला,
उसमें है सौध, धाम जनपथ,
आंगन, गो-गृह, भंडार अकथ।
हैंड डिंब-सद्य, वर शिविर रचित,
इयोढ़ी बहु, राजमार्ग विस्तृत
चीट़ी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।