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Dr. Akansha Rupa chachra

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Dr. Akansha Rupa chachra

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नरकट

नरकट

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कान्हा तेरे दर्श की प्यासी मै,गर बन जाती तेरी मुरली 

तेरे अधरों की मोक्ष समीर मे खिल जाती अंतर्मन की कली

भव सागर मे हिचकोले खाती मेरी जीवन नैया 

दुखो की कटीली डगर मे आप ही हो खैवया।  

कान्हा संग प्रीत,निभाना मै नादान न जाने,

मै हूँ एक प्रकाश पुंज जुगूनु की भांति टिमटिमाती,

मेरी भक्ति की गागर मे मन का मोती पिरो पिरो कर ,शब्दों में अर्थ उड़ेला है।राज गहरा कुछ भी नहीं बस रोम रोम पर नाम भी तेरा है।

मेरे प्राण आधार कान्हा मुझे बंसी बना लो।

गहरा राज कभी कहां छुपा है। 

मन से भला कोई भागा है। 

कभी आहिस्ता कभी दौड़ कर- उलझाता ये रहता है।

जब जब कान्हा तुम्हे जपूँ।

मै बावरी तुझे ध्यान मे लेकर कारज सारे करूँ।

तेरी मोहक सूरत सहेजकर पलकों मे भर लेती ,

नैनन को कभी भिगोती हूं

मन को जब आकुलता होती पलकों से, इसे छू लेती हूं ।

कान्हा तेरे अहसास को मे अंतर्मन मे छिपा कर अधरों मे तेरे

नाम के शब्दों से माला सदापिरोती हूँ।

चाहती हूँ मेरे जीवन की डोर हाथ तेरे सदा रहे।

कान्हा मुरली की भांति मेरी लौ समा जाए

तुझमे हो विलीन भक्ति रस मे सदा धुन मोहक बजती रहे।

मेरे अंतर्मन मे साक्षात्कार हो कर मुझे बंसी बना लो।

ऐसी धुन बजाओ कान्हा छूटे आवागमन का चक्र 

जन्म मरण से मुक्त तेरे हाथो के दिव्य कोमल स्पर्श की अनुभूति मे खो जाऊँ। 

कोरे कागज पर सहम- सहम कर, दर्द  का  मोती  भरती हूँ।मन अनंत है फिर भी है भूख ढूंढता  है । 

मन के अंदर सारी सृष्टि फिर क्यों नहीं  है इसको तृप्तिकभी अतीत के उबर- खाबर मेंकभी आज की पगडंडी में सुकून नहीं पल भर भी इसे  बेचैनी की भी, हद होती है।खुद को आईने में देख प्रतिबिंब कभी हंसता तो कभी रोता है।मन के अंदर की बातों को 

मन कभी ना समझ पाता लाख पकड़ना चाहो मन को

ये तो छू हो जाता है।

कान्हा तेरे दीदार की अभिलाषी हूँ। 

मुरली धर की मुरली बन तेरे अधरों की दिव्य 

स्पर्श के संग की प्यासी हूँ। 



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