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Garvit Chawla

Abstract

4  

Garvit Chawla

Abstract

नेपथ्य जैसा रंगमंच

नेपथ्य जैसा रंगमंच

2 mins
270


ज़ाहिर है की, हम सब यहाँ पर कुछ प्यार पे सुनने आये या प्यार पे बोलने आये हैं, 

तो वहीं चलते है ना, 

तो ना जाने क्यों एक बाजार में घूमते हुए, एक मामूली सी दुकान पे बैठे हुए, 

कुछ नगीनों और गलीयों को दूर से ताकने के बाद, 

मुझे मेरा प्यार मिल गया, 


आखिर कैसा होगा अब वो, शांत संत के स्वभाव में लिपटा,

या शोहरत के तेल में डुबा होगा वो, 

शरीर-ए-आग़ाज़ के सैलाब में नहाया हुआ,

या किसी तस्वीर को याद करता होगा वो, 


खैर, 

इस बार, थोड़ा ध्यान से देखा, नज़रों की, लकीर को सींचा, 

अब, कुछ अलग सा था वो, 

नीली सी मुस्कान, हल्की खुली आँखें, दाहिने हाथ में दो फटे पुराने नोट,

और एक मिठी सी आवाज़ थी उसकी। 


अब मैं सांसों को थामे बैठा, सन्दर्भो को कचरे में फेंका

चलकर-उठकर पूछ ही लिया, की सुनो, तुम्हारा प्यार कैसा है? 

अंत की दीवार को लांघे, कहीं गिर तो नहीं गया? 

या साहित्य के संसार से वंचित, कहीं खो तो नहीं गया? 


मेरा प्यार, दर्द ए बाज़ार में बैठा, सुनता मेरी बातें, 

उसने थामा मेरा हाथ, और बड़ी नज़ाकत से बोला, 


उसकी आँखों के नक्शे में, एक देश ढूंढा है मैंने, 

आजकल उसकी गलीयों में, न जाने क्यों धूप ही नहीं आती,

उसके हजार लफ़्ज़ों की माला में, एक संदेश ढूँढा है मैंने, 

खुश हूँ उसके सन्देश पढ़कर, जिनसे मेरी आँखों में अब खरोच ही नहीं आती, 


मेरा प्यार, वही प्यार

जो निर्भय निष्ठ हर नदी की भाँति, 

बहता बहता समझा गया, 

यही की, 

वो प्यार नहीं वो आँचल है, 

वो हर बार एकांत में चंचल है

वो फैज़ की लिखी उन आँखों में डूबा, 

नेपथ्य जैसा रंगमंच है। 



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