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मुसाफिर पहुँचा मदिरालय

मुसाफिर पहुँचा मदिरालय

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आफ़ताब की रौशनी, गुमनाम मुसाफिर चल पड़ा

मुकाम पाऐगा या नहीं, भटका हुआ वो कही खड़ा

 

मदिरालय ने रोक लिया उसके चलते पग को

देख के वो ठिठुर उठा एक साकी की हालत को

दर्द सुरा पीने को यहाँ भीड़ इकट्ठी रहती है

अग्नि पथ के विचलित राही का साथ देती है

अँधेरे में वो चलता एक बार को सिसक उठा

साथ भले ही देती हो ये प्राणाघात भी करती है

बोलो फिर क्या अंतर है इसमें और मेरे अपनों में

कष्ट निवारक औषधि जैसे प्राण पखेरू लेती है

अपने बीते जीवन के सुख की घड़ियाँ वो गिनने लगा

मन ही मन में उसकी तुलना प्याले से करने लगा

फिर सोचा इसकी मादकता दुःख सहने से बढ़कर है

वो भी उन साक़ी में धीरे धीरे शामिल होने लगा

 

आफ़ताब की रौशनी, गुमनाम मुसाफिर चल पड़ा

मुकाम पाऐगा या नहीं, भटका हुआ वो कहीं खड़ा

 

 

 


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