मसूर की दाल
मसूर की दाल
मसूर की दाल.....जब भी घर पर बनती है,
बनती है तो खानी पड़ती है,
न खाओ तो सुननी पड़ती है,
और कभी कभी तो पड़ भी जाती है।
क्या करें साहिब....किससे कहें, क्या कहें,
इतने बरसों का है जो साथ, सब वक़्त की है ये बात,
कभी बोलते थे, फिर कह भी लेते थे, अब चुप रह जाते हैं,
बस जैसे तैसे खा लेते हैं, सोच कर, आखिर ये तो अन्न है,
इस से ही तो जीवन है, हमारा भी, किसान का भी,
शत: शत: प्रणाम उसको भी।
फिर भी यारों एक वक़्त था, सर पर जब तक माँ का सरमाया था,
जो खाना चाहा, वही पाया था।
रब झूठ न बुलाए, जबसे पत्नी जी आई है,
सच कहता हूं अन्नपूर्णा माई है, हमेशा, उम्दा ही खिलाया है,
इससे ही उन्होंने भी, बहुत यश परिवार में पाया है,
कोई गिला नहीं, कोई शिकवा नहीं, सब इस कमबख्त दिल का पंगा है,
जो आज तक मसूर की दाल के लिये, कह न सका की, ये चंगा है, चंगा है।
