मृत्यु: एक कड़वा सत्य
मृत्यु: एक कड़वा सत्य
मृत्यु आयी इस कदर, बैठी थी शमशान में
लग रहा था की एक सुखद पत्ता कम होगा हमारे परिवार से,
बैठी थी वह इस कदर, जैसे कर रही हो मेरा इंतज़ार,
मै ही था वह सुन्दर पत्ता जो अन्तिम बार देख रहा था अपना परिवार।
ना आँख नम थी, ना था कोई गम,
कोई चूक हमसे ना हुई थी, भला क्यों डरे हम?
वह देखो मेरे द्वार पर चलकर मेरा काल खड़ा था,
लेकिन भला, मै भी किसी से डरा था?
पुछा मौत ने मेरे से की मै क्या चाह्ती थी बोलना?
मै अपने परिवार से चाह्ती थी मिलना,या चाह्ती थी रोना?
मैने कहा “मैं शान से जियी, शान से मरूँगी
कुछ गलत थोड़ी किया, जो खौफ में रहूंगी?
मैं जीयी अपनी इच्छा से, मगर प्रभु इच्छा से मरूँगी
जो किया, सोच समझ कर किया, मै अंजाम से क्यों डरूँगी
हर कार्य का फल जिन्दगी में आवश्यक होता है,
जो गलत किया वह भरूंगी , मेरा हृदय कहता है।।
और अन्त मे, मैं शान से जियी, शान से मरूँगी
कुछ गलत थोड़ी किया, जो खौफ में रहूंगी?
मैं जीयी अपनी इछा से, मगर प्रभु इच्छा से मरूँगी
जो किया, सोच समझ कर किया, मै अंजाम से क्यो डरूँगी ”