मनहोर होली
मनहोर होली
उस फागुन में इक नर्मी थी. न ठंडक न गर्मी थी।
फागुन गुलाबी मौसम था, सब कुछ यूं अधर मेंं था।
सिंधुरी सूरज ढला न था. रात थी, या दिन था ?
कोमल उम्र भाबुक मन था, जवानी थी, या बचपन था ?
महामाया के प्रांगण में राधा रानी के आँगन में।
वो गुलाल छुपाये चुनरी मेंं, मधुर प्रेम लिए मन में।
वो कोमल सी शरमाई सी, आबोध प्रेमकी परछाई सी।
वो प्रेम भाव के रंग में, जो मुझको रंगने चली आई थी।
आँचल से गुलाल निकाल, ज्यों वो मुझको रंगती गई।
सिंधुरी शाम लाल हुई और लालिमा मुझमेंं रमती गई।
ढलता सूरज और शाम का रंग, ज्यों गहरा होता गया।
प्रेम मए संध्या वेला की, शीतल लालिमा मेंं खोता गया।
आज भी मेंरी होली का रंग, तेरे आँचल से ही आता है।
सब प्रेम मय हो जाता है, जब पर्व होली का आता है।
उस होली का रोमांच मेंरे मन से कभी घाटता ही नहीं।
ऐसा रंगा तुमने मुझे तेरा रंग है की मिटता ही नहीं।
वो कच्ची पक्की उम्र की प्रवृति दोनों की भोली थी।
उस गोधूलि बेला में, वो कैसी मनोहर होली थी।