मेरी ख़ामोशी
मेरी ख़ामोशी
आँख से आँसू भी न निकला, दिल से आह भी न निकली।
सुनामी की क्रूरतम लहरों को देख, क्यूं इतनी खामोश थी मैं।
प्रकृति का ये भीषण प्रकोप भी क्यूं न हिला पाया मुझको।
क्या? सचमूच! इंसान की क्रूरता ने संवेदनहीन बना दिया है मुझको।
देख चुकी थे ये आँखे, पहले भी इंसानियत के नंगे नाच को।
दंगों के नाम पर चीर फाड़, आतंक के नाम पर थे बम विस्फोट।
चीथड़ों की तरह बिखरे इंसानी अंग, खून से सनी तमाम लाशें।
रक्तरंजित हाथों में अपनों का ही खून देख, रूह कांप जाती थी मेरी।
शायद इसलिए इतनी खामोश थी मैं!
अंतहीन क्रूरता की एक कड़ी और थी देखी मैंने।
बलात्कारियों के चुंगल में दम तोड़ती, छटपटाती।
नन्हीं कलियों का वो मासूम चेहरा।
कुंआरे मन की उस पीड़ा की भी कसक थी देखी मैंने।
पल-पल मरना, सुलग-सुलगकर जीवन जीते देखा था।
बयां नहीं कर सकती जिस दर्द को, वो दर्द किसी ने झेला था।
सुनामी की इन लहरों ने तो, पल भर में ही खामोशी दे दी।
स्तब्ध नहीं मैं, दुःखी नहीं मैं, इस दुःख से बहुत ऊपर हूँ अब।
क्योंकि मैंने मानव की क्रूरतम लहरों से इस मन को भिगोया है।
इसीलिए आज इतनी शांत हूँ।
इतनी खामोश हूँ, इतनी खामोश हूँ, मैं।